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कहानी- संवादहीनता (Short Story- Sanvadhinta)

"उम्र की इस सांध्य बेला में यह एहसास हुआ है कि जीवन में आई उलझनों को सभी अपनी-अपनी समझ के अनुसार सुलझाते हैं. मेरी हमेशा से ये सोच रही है कि एक अनर्गल विवाद से एक सार्थक चुप्पी भली है. समस्याओं को सुलझाने में मैं मौन को अहमियत देता रहा, क्योंकि डरता था कि वाद-प्रतिवाद से समस्या उलझकर कोई अप्रिय रूप न ले ले…"

"अरे भई! आज चाय नहीं मिलेगी क्या?" सुबह जॉगिंग से वापस आए शाश्‍वत ने ज़ोर से कहा और अपने कमरे में चला गया, तभी श्रेया चाय लेकर आई और बोली, "मम्मी, मैंने पापा को चाय दे दी है, ये आपकी व शाश्‍वत की चाय है."
"उसके कमरे में दे दे ना." नंदिनी आश्‍चर्य से बोली, तो श्रेया हड़बड़ी दिखाते हुए बोली, "मम्मी मैं ब्रेकफास्ट बना रही हूं. प्लीज़, आप चाय दे दीजिए ना." कहती वो रसोई में यूं भागी मानो दो मिनट में पता नहीं क्या हो जाएगा. नंदिनी शाश्‍वत की चाय लेकर उसके कमरे में आई, तो शाश्‍वत ने जल्दी से उसके हाथ से ट्रे ले ली. दोनों साथ-साथ चाय पी ही रहे थे कि तभी सुधीर आ गए.
"अरे वाह, आज मां-बेटे साथ-साथ."
"हां, आज श्रेया का नाश्ता नहीं बना, बेचारी ने चाय भी नहीं पी. मैं जाकर रसोई में उसका हाथ बंटा देती हूं." कहती हुई नंदिनी अपना कप रखकर चल दी.
"श्रेया, क्या मदद करूं, मैं परांठे बना देती हूं. तू चाय पी ले."
"नहीं मम्मी बस हो गया. मैं आराम से बाद में चाय पी लूंगी."
फिर भी वह बहू के काम में हाथ बंटाने लगी. जाने क्यूं आज श्रेया कुछ चुप-चुप सी लगी, मानो किसी विचारों में खोई हो, वरना वह कुछ न कुछ इधर-उधर की बातें करती रहती है. नाश्ते की मेज़ पर वो भी यंत्रवत काम करती रही. कहीं शाश्‍वत से कुछ; नहीं नहीं… ये तो मस्त है, रोज़ की तरह बातें कर रहा है. भ्रम जान नंदिनी अपने कार्यों में व्यस्त हो गई. शाम को शाश्‍वत आया, तो श्रेया अचानक सिरदर्द की बात कहकर चाय का कप लेकर अपने कमरे में चली गई. जबकि शाश्‍वत की चाय वहीं रह गई थी, शाश्‍वत अपने नए प्रोजेक्ट के बारे में सुधीर से बात करता रहा.
श्रेया व शाश्‍वत शाम को रोज़ कहीं न कहीं घूमने के लिए जाते हैं, पर आज श्रेया के सिर में दर्द था सो वो कहीं नहीं गई. शाश्‍वत उसके लिए दवा लेकर आ गया.
"किसी डॉक्टर के पास चलें क्या?"

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"नहीं ज़रूरत नहीं है." श्रेया के सपाट से जवाब से वो चुप हो गया. सुबह फिर वही… टिफिन नंदिनी को देते बोली, "मम्मी शाश्‍वत को दे दीजिएगा." नंदिनी कुछ बोलती कि उससे पहले शाश्‍वत आ गया. टिफिन देखते ही बोला, "थैंक्स श्रेया, मैं जा रहा हूं." कहते हुए शाश्‍वत नीचे चला गया, तो भी श्रेया कुर्सी में बैठी अख़बार में नज़रें गड़ाए रही. तभी उसे लगा कि नंदिनी उसकी ओर आश्‍चर्य से देख रही थी. श्रेया हड़बड़ा कर जल्दी से उठ गई, पर तब तक शाश्‍वत नीचे जा चुका था. अनमनी-सी बालकनी में खड़ी श्रेया शीघ्र ही वापस आ गई. जैसे ही शाश्‍वत निकला श्रेया फिर से सबके साथ सामान्य व्यवहार करने लगी.
नंदिनी को अंदाज़ा हो चुका था कि बहू और बेटे के बीच कुछ तार खींच गए हैं. नंदिनी दोनों के व्यवहार से कुछ बेचैन-सी हो गई थी. दोपहर का खाना खाने के बाद वह आंख बंद करके लेट गई. उलझा हुआ दिमाग़ बार-बार श्रेया की तरफ़ चला जाता था. जाने क्यूं उसकी मानसिकता उसे बड़ी पहचानी सी लगी. कई बार हिम्मत करके श्रेया से बात करने का ख़्याल आया, पर हर बार उसके कदम ये सोच कर ठिठक जाते कि कहीं श्रेया इसे बेवजह की दख़लअंदाज़ी न समझे. फिर शाश्‍वत की ग़ैरमौजूदगी में उसका सामान्य व्यवहार उसे भ्रम की स्थिति में डाल देता था.
श्रेया के चेहरे में नंदिनी को अपना पुराना अक्स दिखाई देता. जब नंदिनी की सुधीर के साथ शादी हुई थी. सुधीर स्वभाव से शांत और उसका बेहद ध्यान रखनेवाले पति थे. नंदिनी के मायकेवाले व अन्य रिश्तेदार उसके भाग्य की प्रशंसा करते न अघाते. गृहस्थ जीवन के शुरुआती दिनों में जब कभी नंदिनी और सुधीर के विचार टकराते और आहत नंदिनी उससे बातचीत बंद कर जाने कितना समय इस आस में गुज़ार देती कि कभी सुधीर उसकी नाराज़गी का कारण पूछते हुए कहेंगे कि आओ नंदिनी हम अपने मतभेद के बारे में बात करें. फिर दोनों अपने पक्ष, गिले-शिकवे एक-दूसरे के सामने रखें. ऐसा दोबारा ना हो इसकी क़सम खाएं. खुले मन से अपनी-अपनी भूलों को स्वीकार कर दोनों आगे बढ़ें. पर वो दिन कभी नहीं आता. समय आगे बढ़ जाता पर नंदिनी का मन वहीं उलझता रहता. सुधीर नंदिनी के इस अबोलेपन को पहचानते और प्रत्युत्तर में बातचीत जारी रखते, पर कभी उससे उस संवादहीनता का कारण नहीं पूछते. नंदिनी अपने अबोलेपन से अपना विरोध जताती, जबकि सुधीर ऐसे समय में भी नंदिनी के प्रति प्रेम प्रदर्शन में कोई कमी नहीं रखते. उम्र के उस दौर में अक्सर सुधीर द्वारा जताए गए प्यार का पलड़ा भारी पड़ता.
लोगों के सामने सुलझे पति के रूप में पहचाने जानेवाले सुधीर विवादित मुद्दों को अनसुलझा ही छोड़ देते थे. उलझनों को सुलझाए बगैर सामान्य स्थिति बहाल करने की कोशिश करते समय के प्रवाह में ऐसा हो भी जाता, पर बिन सुलझी गुत्थियां गांठें बन नंदिनी के दिल में टीस उठाती. नंदिनी ने कई बार सुधीर को समझाया पर वो अपना रवैया नहीं छोड़ पाते.
उसे याद आया एक बार नंदिनी की लंबी चुप्पी के बाद छोटा-सा शाश्‍वत मायूसी भरे स्वर के साथ बोला था, "मम्मी गर्मियों की छुट्टियों में जब हम महाबलेश्‍वर जाएंगे, तब भी क्या आप ऐसे ही चुप रहोगी? हमारा तो सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा." नंदिनी उसकी भोली आशंका से द्रवित हो गई थी. उसने तुरंत शाश्‍वत को गले लगा कर कहा, "नहीं बेटा मम्मी की तबियत आजकल ठीक नहीं है न; इसलिए मैं चुप रहती हूं. तुम चिंता मत करो मैं कल तक ठीक हो जाऊंगी." अपने अहं को त्याग कर उसने झगड़े के मूल को दबा तो लिया, पर मन में पनपती उन गांठों का वह कुछ न कर पाई, जिन्हें सुलझाने में सुधीर ने कभी विश्‍वास नहीं रखा.
आज उदास श्रेया में स्वयं को और शाश्‍वत में सुधीर को देख वह सिहर गई. नहीं; साधारण-सा दिखनेवाला दोनों का यह व्यवहार सामान्य नहीं है. शाम को शाश्‍वत घर आया, तो छायी चुप्पी को देख पूछ बैठा, "मम्मी, श्रेया घर में नहीं है क्या?"
"बेटा, आज वह अपनी सहेली पूजा के साथ शॉपिंग के लिए गई है. मैं चाय बना रही हूं तुम फ्रेश हो जाओ हम साथ चाय पिएंगे. आज कितने दिनों बाद मुझे अपने बेटे के साथ अकेले समय बिताने का मौक़ा मिला है."
"मम्मी तभी तो कहता हूं श्रेया को उसके मायके भेज देते हैं." शाश्‍वत के इस मज़ाक पर वह हंस पड़ी, "एक दिन भी रह पाएगा उसके बगैर?" शाश्‍वत मां की बात पर मुस्कुरा पड़ा. वह शाश्‍वत की आंखों में श्रेया के प्रति उसका मौन समर्पण साफ़ देख पा रही थी. अचानक वह बेटे से पूछ बैठी, "तुम्हारे और श्रेया के बीच सब ठीक तो है न?" मां के अकस्मात किए इस सवाल पर शाश्‍वत असहज हो गया था. "मम्मी, आप ऐसा क्यूं कह रही हैं." नंदिनी से आंखें चुराते हुए वह बोला, तो नंदिनी ने दृढ़ता से कहा, "कुछ तो है शाश्‍वत…"
"अरे मम्मी, एक छोटी-सी बहस हुई थी हम दोनों के बीच में, आप तो जानती हैं कि श्रेया सेंसेटिव है. लेकिन अब सब ठीक है. आप उसे इतना सीरियअसली क्यूं ले रही हैं वो कितने दिन नाराज़ रह सकती है. जानती नहीं हैं क्या? श्रेया दो दिन भी बोले बगैर नहीं रह सकती है." कहकर शाश्‍वत हंस पड़ा. तो नंदिनी गंभीर स्वर में बोली, "बेटा यह अच्छी बात है कि बहू कोई बात ज़्यादा दिन अपने अंदर नहीं रखती है. पर फिर भी कोई बात उसके भीतर जन्म लेकर ग्रंथि बन कर पनपे, उसे समय से पहले ही उखाड़ कर फेंक दो. तुम्हारे द्वारा अपनाया गया सामान्य व्यवहार उसे अपनी उपेक्षा का एहसास करा सकता है. बेटा बातचीत बंद हो, तो बातों का सूत्र वहीं से पकड़ो, जहां से बातचीत बंद हुई हो. नहीं तो अबोलापन तुम्हारे रिश्ते को दीमक की तरह चाट जाएगा. छोटी-छोटी बातें उसे तनावग्रस्त कर देंगी. ये क्या तुम देख सकोगे. शाश्‍वत पुरुषत्व समस्या के समाधान में है, उसे एवाइड करने में नहीं है."
शाश्‍वत की चुप्पी में नंदिनी की बातों का असर दिखने लगा था. नंदिनी बेटे के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली, "अबोलापन मन में गांठें निर्मित करता है, जबकि बातचीत उन गांठों को खोलती है. झगड़े के मूल को उखाड़ना बेहतर है बजाय उसे छेड़ा ही न जाए, क्योंकि उस मूल से तो विषाद और तकलीफ़ के अंकुर फूटेंगे. आपसी बातचीत एक-दूसरे को समझने का सशक्त ज़रिया है. तुम दोनों समझदारी से एक-दूसरे के सामने अपना पक्ष रखोगे, तो कोई वजह नहीं है कि रास्ता ना निकले. विवाद के भय से मुद्दे को छेड़ा ही न जाए ये ठीक नहीं है." नंदिनी अपनी रौ में थी कि किसी की उपस्थिती का एहसास हुआ. कब से सुधीर बगल में खड़े थे. ना तो नंदिनी और ना ही शाश्‍वत का ध्यान सुधीर की ओर गया था.

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"आप कब आए सुधीर? मैं आपकी चाय लेकर आती हूं." नंदिनी चाय लेकर आई, तो उसने नोट किया कि दोनों ही चुपचाप बैठे थे. नंदिनी ने सुधीर से इधर-उधर की बात की, तो वह हां हूं में जवाब देते रहे. रात को खाने की मेज़ पर ख़ामोशी छाई रही. जो सभी के भीतर चल रहे आत्ममंथन को दर्शा रही थी. इस मौन से असहज होकर नंदिनी बोली, "क्या हुआ, आज आप इतने चुप क्यों हैं?" नंदिनी के प्रश्‍न के उत्तर में सुधीर ने उसका हाथ थाम लिया और संजीदा होकर बोले, "उम्र की इस सांध्य बेला में यह एहसास हुआ है कि जीवन में आई उलझनों को सभी अपनी-अपनी समझ के अनुसार सुलझाते हैं. मेरी हमेशा से ये सोच रही है कि एक अनर्गल विवाद से एक सार्थक चुप्पी भली है. समस्याओं को सुलझाने में मैं मौन को अहमियत देता रहा, क्योंकि डरता था कि वाद-प्रतिवाद से समस्या उलझकर कोई अप्रिय रूप न ले ले.
इधर तुम अपनी चुप्पी से विरोध जताती रही. परिणामस्वरूप बढ़ती संवादहीनता हमारे बीच दूरी पैदा करती रही. मैं उसे पाटने के लिए आपसी बातचीत को जारी रखता, लेकिन विवाद की उन जड़ों को न छेड़ता, जिसका इंतज़ार तुम्हें हमेशा रहता. ये मानवीय ग़लतियां स्वाभाविक हैं. आज जिस तरह तुमने शाश्‍वत को समझाया है, वो बहुत ज़रूरी था." नंदिनी की आंखों में अनायास ही ढेर सारा प्यार सुधीर के लिए उमड़ आया.
वह भावुक होकर बोली, "नहीं सुधीर मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है. हम दोनों ने अपने स्वभाव के अंतर्गत ऐसा किया. मैंने भी काफ़ी बाद में यह महसूस किया कि स्त्री-पुरुष के व्यवहार में ये जेनेटिक अंतर होता ही है. पर एक-दूसरे को समझने के लिए प्रयासों की भी अपनी भूमिका होती है. अगर तुम ग़लत थे, तो मैं भी सही नहीं थी. मैंने ग़लती की इंतज़ार करके कि संवाद प्रक्रिया की शुरुआत तुम्हारी तरफ़ से हो. मैंने भी तो बातचीत का सूत्र पकड़ने का प्रयास नहीं किया. इस तरह से न जाने कितने अमूल्य पलों को मैंने नाराज़गी और तनाव की भेंट चढ़ा दिया. तुम्हारे भीतर उठा ये मंथन बता रहा है कि तुमने शायद मेरी और शाश्‍वत की बातें सुन ली हैं. मैं श्रेया को तनाव नहीं देना चाहती हूं, पर साथ ही उसे इस बात का एहसास ज़रूर करवाऊंगी कि वो भी शाश्‍वत की पहल के इंतज़ार में आनेवाले सुनहरे पलों को धूमिल न करे. गृहस्थी की गाड़ी दो पहियों पर तभी चलती है जब दोनों तालमेल बिठाएं." नंदिनी की बातें सुन कर सुधीर ने प्यार से उसका हाथ चूम लिया. सुधीर के समर्पण को देख वो भावुक हो उठी थी. ताज़ी हवा के झोंको ने दोनों को सहला कर नई स्फूर्ति से भर दिया था. यूं लगा मानो दोनों का एक मीठा-सा रिश्ता अभी-अभी जुड़ा हो, घर के पास लगा गुलमोहर भी झूम-झूम कर बधाई देकर मानो कह रहा हो कि बात करने का साहस हर इंसान में नहीं होता है. घर आ गया था. श्रेया और शाश्‍वत सोने चले गए थे. देर रात तक उनके कमरे से बातचीत की धीमी-धीमी आवाज़ें आती रहीं.
सुबह नंदिनी रसोई में आई, तो सुखद आश्‍चर्य में डूब गई. श्रेया चाय बनाती हुई कुछ बोलती जा रही थी और शाश्‍वत आराम से किचन की रैक पर बैठा उसे निहार रहा था. यह देखकर नंदिनी चुपके से बाहर आ गई और बरामदे में अख़बार लेकर बैठ गई. संवादहीनता ख़त्म हो चुकी थी. रिश्तों पर जमी बर्फ़ को प्यार व मनुहार की गर्मी ने पिघला दिया था. ऐसे में स्वतः ही घर एक स्वाभाविक उल्लास से भर गया था, पर नंदिनी कुछ और भी सोच रही थी; नहीं ये तो अभी आधा प्रयास है. अभी तो बेटी समान बहू को भी उसकी उस ग़लती का एहसास करवाना है, जो कभी मैंने की थी.
अब श्रेया की बारी है ये समझने की कि संवादहीनता रिश्तों में लगी दीमक के समान होती है, मेरा रिश्ता बचा, क्योंकि सुधीर ने हर हाल में संवाद को कायम रखा. कभी मैं कहूं, कभी तुम के संगीत पर चलना ज़रूरी है कि एक-दूसरे के प्रयासों को फॉर-ग्रांटेड न लेकर स्वयं के प्रयासों को जारी रखने में समझदारी है. दूसरों की पहल के इंतज़ार में स्वयं का इज़हार हमेशा अच्छा होता है.
"क्या हुआ मम्मी?" श्रेया ने अपनी ओर प्यार से निहारती नंदिनी से पूछा, तो वह मुस्कुरा दी. उसे उम्मीद थी कि समझदार श्रेया नंदिनी के अनुभवों से उपजी सीख को अपने जीवन में ज़रूर उतारेगी, ताकि आनेवाली ख़ुशियां सन्नाटे से डरकर अपना रास्ता न बदलें.

- मीनू त्रिपाठी

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