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कहानी- शीशे का घर (Short Story- Sheeshe Ka Ghar)

सुषमा समझती थी कि निशी की लगाम उसके हाथ से निकल रही है, जिसे वह पूरे बल से थामने का प्रयास कर रही थी. किन्तु यौवन और धन की बाढ़ इतने ज़ोर की थी कि उसे अपने पांव के नीचे से धरती खिसकती महसूस होने लगती थी. वह लाचार थी, फिर भी गोपाल को इस भंवर में नहीं लाना चाहती थी.

पमा चौधरी तीन दिन से दफ़्तर नहीं गई थी. बार-बार आंखें भर आती थीं. दफ़्तर न जाने का कोई कारण भी तो होना चाहिए, बीमारी, बच्चों की बीमारी, मेहमानों का आना आदि. परन्तु ऐसा कोई कारण तो नहीं था, इसीलिए उसने कार्यालय में सूचना नहीं भेजी थी और न ही वहां फोन किया था. बस तीन दिन से सोफे पर पड़ी सोचे जा रही थी कि क्या उसे दफ़्तर जाना चाहिए. किन्तु इससे भी अधिक चिन्ता उसे इस बात की थी कि अभी टेलीफोन की घंटी बजेगी और गोपाल वर्मा उससे पूछेंगे, "सुषमा, ठीक तो हो? दफ़्तर क्यों नहीं आ रही? बच्चे तो ठीक हैं? यदि कोई ज़रूरी काम था, तो टेलीफोन पर ही सूचना दे देतीं. दफ़्तर और घर में कुछ अन्तर तो होना चाहिए. यहां कुछ नियमों का पालन आवश्यक है. यदि किसी चीज़ की आवश्यकता हो, तो दफ़्तर से किसी कर्मचारी को भेज दूं, या शाम को लौटते समय स्वयं चला आऊं. मैं तो दौरे पर था. चार दिन के पश्चात् आया हूं, तो पता चला है कि तुम तीन दिन से दफ़्तर नहीं आ रही हो "
और सिर को दोनों हाथों से दबोचे वह सोचने लगी कि यदि घंटी बजे, तो वह इन प्रश्नों का क्या उत्तर देगी. उसे कुछ सूझ नहीं रहा था. वह सिर को यों दबा रही थी, मानो दिमाग़ को निचोड़ डालना चाहती हो, ताकि इसमें ऐसी व्यर्थ बातें आए ही नहीं. परन्तु प्रश्न तो यह था कि उसने दफ़्तर में नौकरी करके यह परेशानी मोल ही क्यों ली थी? उसे किसी वस्तु का अभाव नहीं था. रहने के लिए अच्छा फ्लैट था, जिसे उसने ख़ूब भली प्रकार से सजा रखा था. पति की पेंशन से अच्छी गुज़र हो जाती थी. तीन सुन्दर और स्वस्थ बच्चे थे. वह स्वयं ऐसा अच्छा जीवन व्यतीत करती थी कि चालीस वर्ष की होने पर भी कोई उसे तीन बच्चों की मां नहीं कह सकता था. वह अफसरों के क्लब की सदस्य थी और अपने पति के मित्रों और उनकी पत्नियों में लोकप्रिय थी. समय व्यतीत करने के लिए उसने कई प्रकार के जंगली पौधे लगा रखे थे. कभी चित्र भी बनाती और कभी किताबें लाकर पढ़ा करती.
बच्चे अब उस पर अधिक निर्भर नहीं थे. बड़ी लड़की निशी, जो उसकी जवानी के दिनों की प्रतिमा दिखाई देती थी, अब कॉलेज चली गई थी. दोनों लड़के स्कूल में थे. सुषमा अपने आपको घर के कामों में व्यस्त रखने का यत्न करती, फिर भी उसका मन उचाट रहता था. पति के जीवन में वह जिस प्रकार के दैनिक सुख-सुविधा के जीवन की आदी हो चुकी थी, उसका कोई निशान भी बाकी नहीं था. अब तो मानो वह एक नाव चला रही थी, जिसमें उसके जवान हो रहे बच्चे सवार थे, जिनकी उछल-कूद से कभी-कभी नाव डोलने लगती थी. नाव को ठीक दिशा में रखने के लिए चप्पू चलाते-चलाते उसके हाथ थक जाते थे.


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उसे अब अनुभव होने लगा था कि पैसा और पेंशन ही सब कुछ नहीं है. उसे समय बिताने के लिए किसी निश्चित कार्यक्रम की भी आवश्यकता है. जीवन में कोई ऐसा साथ भी होना चाहिए, जिससे वह सुख-दुख बांट सके, जिससे वह कठिन घड़ियों में परामर्श कर सके. जो बच्चों की देखभाल में उसका साथ दे. यदि बच्चे रात देर से आएं, तो वह अकेली बैठी उपन्यास न पढ़ती रहे किसी से कह सके कि वह स्कूल या कॉलेज से बच्चों को ले आए.
ऐसी ही परेशानियां थीं, जो भूत के समान उसके सिर पर सवार रहती थी हर समय. इनके बारे में सोचते रहने की अपेक्षा उसने चौधरी साहब के कार्यालय की ओर से पेश की गई नौकरी स्वीकार कर ली थी. यह मुलाज़मत उकता देनेवाली घड़ियों के लिए थी. जब वह घर में अकेली रह जाती थी, तब‌ रमेश चौधरी की तस्वीर के सामने आंखें बंद किए खड़ी रहती या तरह-तरह के विचार उसे परेशान किए रहते. वह ग्यारह बजे जाकर चार बजे लौट आती थी.
इस नगर में उनका अपना कोई नहीं था, किन्तु उसने इसे यहां रहने के लिए इसलिए चुना था कि उनका अपना फ्लैट था, बच्चों की शिक्षा का ठीक प्रबन्ध था. आवश्यकता के समय पति के मित्रों और कार्यालय से सहायता भी मिल जाती थी.
नौकरी कर लेने के पश्चात् उसका जीवन कार्यक्रम नियमबद्ध हो गया था. वह अपने आप पर भी अधिक ध्यान देने लगी. जो वस्त्र पहनने छोड़ दिए थे, वह उन्हें फिर पहनने लगी. प्रत्येक कार्य नियमबद्ध हो गया और पांच घंटे दफ़्तर में व्यतीत करने के पश्चात् वह जब घर आती, तो इतनी थकी होती कि बेकार के विचारों के लिए उसके दिमाग़ में कोई स्थान ही नहीं होता. वह एक प्याला चाय लेकर आंखें बंद किए आधा घंटा चुपचाप बैठी रहती. उसके पश्चात् बच्चों के काम में लग जाती.
किन्तु यह नौकरी भी तो उसकी वर्तमान कठिनाइयों का एक कारण थी. उसकी ब्रांच का अधिकारी गोपाल शर्मा कभी उसके पति के साथ ही काम कर चुका था. उसे भी युवा अवस्था में सुषमा के विधवा हो जाने का कम दुख नहीं था. सुषमा ने यह नौकरी गोपाल के अनुरोध पर ही स्वीकार कर ली थी. क्योंकि गोपाल ने ही उसके लिए केवल कुछ घंटे का एक काम निकाल लिया था, जिससे उसे घर से निकल कर कुछ समय बाहर गुज़ारने का अवसर मिल गया था.
गोपाल के रूप में सुषमा का एक भले मनुष्य से परिचय हुआ था, जो सुषमा को परेशान देखना नहीं चाहता था. उसका कथन था कि यदि वह अपने एक पुराने मित्र की विधवा के लिए इतना कुछ भी नहीं कर सकता, तो वह मनुष्य कहलाने का पात्र नहीं है. और सुषमा के थके हुए हाथों को जब सहारा मिला, तो उसने अपने बाजू इस दीवार पर रखने में संकोच नहीं किया. वह अपनी समस्याएं गोपाल से कह देती थी या उनके संबंध में उससे परामर्श करती.
इस प्रकार गोपाल वर्मा सुषमा के फ्लैट पर भी आने-जाने लगा. बच्चे एक भले पुरुष को घर पर पाकर बहुत प्रसन्न हुए. वे भी अपने छोटे छोटे काम गोपाल अंकल से कहने लगे. गोपाल के पास बहुत से सरकारी साधन थे, जिनसे सुषमा और बच्चों को बहुत सहायता मिल रही थी. प्रायः गोपाल घर लौटने से पहले सुषमा के यहां कुछ क्षणों के लिए रुक जाता. कभी बच्चे कहते, तो उनके साथ कैरम खेलने लगता. कभी चाय भी हो जाती. इस प्रकार बच्चों के जीवन का सूनापन कुछ हद तक दूर हो जाता और दोनों छोटे लड़के तो अब होमवर्क में भी गोपाल से सहायता लेने लगे थे. निशी को कभी किसी वस्तु की आवश्यकता होती, तो वह भी बिना सकोच गोपाल से कह देती.


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अब गोपाल अंकल इस घर में कोई अपरिचित व्यक्ति नहीं थे. दफ़्तर में भले ही वे सुषमा के अफसर थे, किन्तु घर में वह परिवार के एक दयालु मित्र के नाते आते थे. उन्हें सब को हंसते-खेलते देख कर प्रसन्नता होती. इसी से सन्तुष्ट होकर वे घर चले जाते. वह एक कर्तव्य था, जिस की पूर्ति में उन्हे आनन्द भी आता और गौरव का अनुभव भी होता.
यदि गोपाल एक सप्ताह के लिए बाहर चले जाते, तो बच्चे उनकी प्रतीक्षा करने लगते. सुषमा के बहुत से काम भी रुक जाते, जो वह दफ़्तर के सेवकों द्वारा करा दिया करते थे. दफ़्तर से समय निकालना सुषमा के लिए संभव नहीं था और छु‌ट्टी के दिन तो घर के काम समेटने और बाज़ार जाने में ही बीत जाते थे.
गोपाल अंकल एक वृक्ष की भांति बनते जा रहे थे, जिस का सहारा भी था और घनी छांव भी. उनके आने से सुषमा का तो मानो मानसिक तनाव बहुत हद तक कम हो गया था. अब वह यह नहीं सोचती थी कि यह कार्य कैसे होगा? वहां कौन जाएगा? गोपाल बहुत सी समस्याओं का समाधान कर दिया करते थे. इसी कारण सुषमा उन्हें घर की छोटी-छोटी बातें भी बताने लगी थी.
हां, एक बात जिसमें वह गोपाल को अपना राजदार नहीं बना सकी थी. युवा अवस्था में पहुंच रही उसकी लड़की निशी, योग्य भी थी और सुन्दर भी. वह इस आयु में निशी को किसी पुरुष के बहुत निकट नहीं आने देना चाहती थी. बच्चों ने घर पर बैडमिन्टन का नेट लगा रखा था. शाम को बच्चे जब खेलते, तो गोपाल भी कई बार खेल में शामिल हो जाता. परन्तु सुषमा का प्रयास यही रहता कि निशी गोपाल की पार्टनर न बने. उसने निशी के बारे में कभी, गोपाल को अधिक कष्ट नहीं दिया. उसके अधिकतर काम वह स्वयं ही निपटा आती थी. निशी सुषमा के पास उसके पति की अमानत थी, जिसमें वह किसी प्रकार का विकार देखना नहीं चाहती थी.
निशी के कॉलेज का एक युवक उसके साथ बैडमिन्टन खेलता था. अच्छा, सुन्दर लड़का था. सुषमा को निशी के उससे मिलने पर अधिक आपत्ति नहीं की. एक-दो बार रंजीत निशी को अपनी कार में घर छोड़ने आया, तो सुषमा ने बुरा नहीं माना. परन्तु जब निशी रंजीत के घर जाने लगी, तो सुषमा के कान खड़े हुए. यदि देर तक रुकना हो, तो निशी वहां से फोन कर देती. सुषमा को यह पसन्द नहीं था. वह इस कली को फूल बनने से पूर्व भटकने देना नहीं चाहती थी, इसलिए वह यही चाहती थी कि यदि निशी को रंजीत से कभी मिलना भी हो, तो वह उसे अपने ही घर बुला लिया करे.
रंजीत का आना-जाना बढ़ने लगा था, इसलिए उसने रंजीत के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करना आवश्यक समझा. वह यह काम गोपाल को नहीं सौंपना चाहती थी, ताकि कहीं कोई उलझन खड़ी न हो जाए. उसने निशी के कॉलेज जा कर पता लगाया. रंजीत एक अमीर वकील का बेटा था, जिनकी हालत और समाज में स्थान सुषमा से कहीं ऊंचा था. खाते-पीते शाह ख़र्च लोग. प्रत्येक प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध. निशी को उनके यहां से कोई न कोई उपहार मिलता ही रहता था.

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यदि बात आगे चले तो सुषमा को उन लोगों के बारे में पूरा ज्ञान तो होना चाहिए. उसने वकील साहब के बारे में कोर्ट में अपनी जान-पहचान के एक वकील से परामर्श किया, तो वह चौंक उठी. वकालत के श्वेत बोर्ड के पीछे वकील साहब काला धंधा करते थे. वे तस्कारों के वकील थे. आए दिन बड़ी-बड़ी पार्टियां देते, जिनमें जज और बड़े-बड़े अधिकारी भी भाग लेते. इसी संपर्क के कारण वह अपराधियों को बचा लेते थे और उनसे बड़ी-बड़ी फीस लेते थे. यही नहीं, यहां तक शक था कि वकील साहब का भी तस्करी में हिस्सा है. नहीं तो दौलत की ये रेलपेल, ये कारें, दावतें केवल वकालत की फीस से नहीं चल सकतीं.
इसलिए सुषमा ने किसी न किसी बहाने निशी का वकील साहब की कोठी पर जाना रोक दिया था. किन्तु रंजीत तो अपने को अब चौधरी परिवार का ही एक सदस्य समझने लगा था.
वह जब भी निशी को घर छोड़ने आता, तो उसकी कार फल, खाने-पीने की चीज़ों से लदी रहती. कई बार वह अन्य मित्रों को भी साथ ले आता और रात दस-ग्यारह बजे तक संगीत और गपशप होती रहती.
सुषमा समझती थी कि निशी की लगाम उसके हाथ से निकल रही है, जिसे वह पूरे बल से थामने का प्रयास कर रही थी. किन्तु यौवन और धन की बाढ़ इतने ज़ोर की थी कि उसे अपने पांव के नीचे से धरती खिसकती महसूस होने लगती थी. वह लाचार थी, फिर भी गोपाल को इस भंवर में नहीं लाना चाहती थी.
किन्तु एक रात स्थिति ने बहुत ही ख़तरनाक मोड़ ले लिया. रंजीत ने उससे आकर कहा कि उसके पिता नव वर्ष की रात को एक बड़े होटल में पार्टी दे रहे हैं. वह निशी को भी पार्टी में ले जाना चाहता है. सुषमा निशी का ऐसी पार्टी में जाना ठीक नहीं समझती थी, किन्तु निशी तो मानो दौलत की चमक-दमक पर मस्त हो रही थी. उसने मां से अनुमति ले ली थी. सुषमा एक परकटे पछी की भांति फड़फड़ा कर रह गई. निशी के जाने के पश्चात् भी उसे चैन नहीं आ रहा था. वह वेशभूषा बदल कर उसी होटल में हो रहे एक और समारोह में भाग लेने चली गई.
सुषमा होटल की बालकनी में खड़ी खाना खा रही थी. नीचे हॉल में वकील साहब का हंगामा पूरे यौवन पर था. कितने ही स्त्री-पुरुष तड़क-भड़क वेशभूषा में इस पार्टी में भाग ले रहे थे. संगीत की धुनों में कुछ सुनाई नहीं देता था. केवल सिगरेट का धुंआ और शरीर ही ऊपर उठ रहा था. कितनी ही स्त्रियां और पुरुष हाथ पकड़े नाच रहे थे. युवा पीढ़ी ने तो मानो तूफ़ान उठा रखा था. ग्लास टकरा रहे थे. रूप प्रदर्शन हो रहा था. वेटर रंगारंग पेयजल लिए घूम रहे थे.
निशी भी बिना आस्तीन का लंबा काला गाउन पहने एक युवक के साथ नाच रही थी. किन्तु उसके हाथ में ग्लास और सिगरेट नहीं थी. हां, अगली पार्टी में यह भी संभव हो सकता था. धन और सुन्दरता के उपासक किसी भी वस्तु को उसके स्थान से नीचे ला सकते हैं.
सुषमा अधिक देर यह दृश्य सहन नहीं कर सकी और लौट आई. उसने निशी के घर आने पर कुछ नहीं पूछा.
दो दिन के पश्चात रंजीत उनके यहां शाम को चाय पीने आया. उसके जाने के पश्चात् सुषमा ने निशी से दो टूक कह दिया, "मैं नहीं चाहती कि रंजीत कभी हमारे घर आए."
निशी यह वाक्य सुनकर चौंक सी गई. कुछ क्षण चुप रह कर बोली, "यदि रंजीत यहां नहीं आएगा, तो गोपाल अंकल भी नहीं आएंगे." और पांव पटकती हुई अपने कमरे में चली गई.
सुषमा दोनों हाथों में सिर को दबाए यों सोफे पर दुबकी बैठी थी, मानो वह शीशे के घर में बैठी हो, जिस पर चारों ओर से पत्थर बरस रहे हों.

- एम. के. महताब

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