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लघुकथा- शोपीस (Short Story- Showpiece)

"इन उधार के चावों से ही वह थोड़ा ख़ुश हो लेती है. अपना जीवन भर लेती है. इनके बारे में बात करके ही ख़ुद को इस एहसास में बांधे रखती है कि हां उसका भी कोई है, जिसके बारे में वो बात कर सकती है. वरना हमारे बच्चों के बारे में वह कब तक सुनती रहेगी." अनुभा ने एक गहरी सांस ली.

"और ये मैं पिछली बार के जूट मेले से लेकर आई थी.. और ये लोकरंग से, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का बनाया हुआ है."
देर तक सुमन बड़े चाव से अपनी लाई हुई वस्तुएं नेहा और अनुभा को दिखाती रही. उसका कौतुक और उत्साह देखते बन रहा था.

जब वह चाय बनाने गई, तो नेहा व्यंग्य से मुस्कुराकर बोली, "घर तो देखो इसका. घर नहीं शो-पीस की दुकान लग रही है पूरी. और बातें भी उनके ही बारे में जैसे और कुछ है ही नहीं इसके पास."
"तो सच में ही उसके पास है क्या. पति व्यवसाय में महीने के आधे दिन बाहर रहता है. बच्चे है नहीं. तो घर को सजाकर इन वस्तुओं से ही वह घर का और मन का खालीपन भर लेती है." अनुभा ने सहजता से जवाब दिया.


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नेहा अवाक-सी सुनती रही. सुमन के मन के इस दर्द के बारे में तो उसने कभी भी सोचा ही नहीं था. वह तो हमेशा ही उसकी बातों का मज़ाक ही उड़ाती आई है.
"इन उधार के चावों से ही वह थोड़ा ख़ुश हो लेती है. अपना जीवन भर लेती है. इनके बारे में बात करके ही ख़ुद को इस एहसास में बांधे रखती है कि हां उसका भी कोई है, जिसके बारे में वो बात कर सकती है. वरना हमारे बच्चों के बारे में वह कब तक सुनती रहेगी." अनुभा ने एक गहरी सांस ली.


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तभी सुमन चाय लेकर आई. चाय पीते हुए सुमन फिर बड़े उत्साह से अपने शो-पीसेज़ के बारे में बताने लगी.

लेकिन इस बार नेहा बहुत चाव और उत्साह से उसकी बातों में हिस्सा ले रही थी.

डॉ. विनीता राहुरीकर

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Photo Courtesy: Freepik

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