लड़कियों को भी खाना बनाना आना चाहिए यह कहकर कोई भी ख़ुद पर पुरातन पंथी का ठप्पा नहीं लगवाना चाहता. अपनी मम्मी की विचारधारा से प्रभावित स्वाति ने इसे निकृष्ट कार्य समझा. और यदा-कदा उत्साह से कह उठती, “आई हेट कुकिंग…”
कल सरल से बात हुई तो दुखी होकर कहने लगी, “स्वाति बहुत परेशान हो रही है. बात करके मेरा तो मूड ही ऑफ हो गया. मुझसे कहने लगी कि कुकिंग तो सर्वाइवल स्किल है. इतनी ज़रूरी स्किल आपने कैसे नहीं सिखाई! आजकल के बच्चों को तो देखो, चित भी मेरी और पट भी…”
“हैलो मम्मी, जल्दी से बताओ, पूरी को कितनी पतली बेलते है…”
“कौन बना रहा है पूरी, तुम..?” मानसी ने विस्मय से अपने बेटे अनुज से पूछा, तो वह कहने लगा, “हां, मैं और शैली मिलकर बना रहे हैं.”
“ओह! ठीक है, रोटी जैसी बेल लो या थोड़ा उससे मोटी भी चलेगी. और हां, तेज आंच में ही फूलती है. फिर मध्यम कर लेना… और सुनो, जरा ध्यान रखना, हाथ नहीं जला लेना तुम लोग…”
“हां-हां मम्मी चिंता न करो सब कर लेंगे…” कहते हुए अनुज ने फोन काट दिया, तो जय हंसते हुए बोले, “क्या हुआ आज पूरी बना रहा है क्या?..”
“हां, वो और उसके पड़ोस में रहनेवाली उसकी ऑफिस कलीग शैली है, साथ मिलकर बना रहे है. आजकल दिन का खाना उसके घर और रात का शैली के घर बनता है…” कहकर मानसी ने गहरी सांस लेकर घड़ी देखी, साढ़े सात बज गए थे. आज इतनी जल्दी खाना बन रहा है… कहीं दोपहर का लंच मिस तो नहीं कर दिया… पूरी बन रही है, पर खाएंगे किससे… सब्ज़ी बनाई है या फिर अचार से… अचार तो अनुज बिल्कुल नहीं खाता.
“क्या सोचने लगी तुम, कर लेंगे ये आज के बच्चे हैं.” जय के कहने पर भी वह बिना कोई प्रतिक्रिया दिए वर्तमान की विषम परिस्थितियों के चिंतन में लीन हो गई.
बेंगलुरु की एक आईटी कंपनी में उसका बेटा अनुज जॉब करता है. एक सोसाइटी में वन बेडरूम फ्लैट लिया है. घर की साफ़-सफाई और खाने के लिए मेड को रखा था, जो कोरोना संकट के चलते अब घर बैठ गई है. अभी तक वह मेड, जिसे अनुज अक्का कहता है, उसके रहते वह उसके खाने-पीने को लेकर निश्चिन्त थी. कोरोना ने पैर पसारने शुरू किए, तो उसकी सोसाइटी में सभी ने मेड को आने से मना कर दिया, पर अनुज ने अपनी मेड यानी अक्का को आने से मना नहीं किया… बिना अक्का के घर की व्यवस्था का चरमराने की कल्पना ही होश उड़ाने को काफ़ी थी. पर कोरोना काल में उसका आना ख़तरे से खाली भी नहीं था. एक लड़का खाना कैसे बनाएगा… घर कैसे साफ़ करेगा… ये सोचकर कुछ दिन तो इस रिस्क से समझौता किया गया… फोन पर जब भी अनुज से बात होती, वह एक ही बात कहती, “अपनी अक्का को आते ही सैनिटाइज़र दिया करो… उससे कहो, हाथ धोकर खाना बनाए…” रोज़-रोज़ एक ही बात सुन-सुनकर वह चिढ़ जाता.
“क्या मम्मी, रोज़ ही एक बात करती हो…”
पर वह उसे समझाना नहीं छोड़ती. जय कहते, “बार-बार कहने से कोई फ़ायदा नहीं है. समझदार है, कर लेगा सब… या तो उसकी अक्का पर भरोसा करो और अगर इतना तुम्हें वहम है, तो कह दो कि वो उसे हटा दे. आख़िर तुम भी तो अपने आप ही सब कर रही हो…”
जय के लिए ये कहना आसान था पर वह जानती थी कि ऐसे समय में अनुज के लिए घर का भार अक्का पर छोड़ना और अक्का को छोड़ना दोनों ही परिस्थितियों में एक तरफ़ कुआं, तो दूसरी और खाई जैसी स्थिति थी.
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वह जानती है कि अनुज उस कार्यकुशलता से घरेलू काम नहीं कर पाएगा जैसे वह कर लेती है, क्योंकि उसे इन कामों को करने की आदत नहीं है. हालांकि घरेलू सहायिका पर वो भी निर्भर ज़रूर थी, पर उसके न आ पाने की स्थिति में उसने मानसिक रूप से ख़ुद को तैयार किया और आज वह अपने घर को बिना किसी बाहरी की मदद लिए बख़ूबी संभाल रही है.
और संभाल इसलिए पा रही है, क्योंकि उसने यह काम पहले भी किए हैं. पर अनुज ने ऐसे काम कभी किए ही नहीं… ऐसे में उससे क्या उम्मीद की जाए. क्या उसकी असफलता का दोष वह जेंडर को ही दे. क्या एक स्त्री होने के नाते ही वह घरेलू काम कर पाती है… और पुरुष होने के नाते अनुज को काम करने में तकलीफ़ हो रही है… नहीं बेशक यहां जेंडर मसला नहीं है, मसला है आदत… उसे आदत थी, इसलिए बर्तन मांजना, कपड़े धोना, खाना बनाना, साफ़-सफ़ाई इत्यादि कार्य सुगमता से हो जाते है.
काश! अनुज को भी इसकी आदत होती, पर आदत कैसे होती क्या सोचकर वह उसे ये सब काम सिखाती…
“अरे, तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है… बहुत बढ़िया बनी है बिल्कुल अनुज के हाथों जैसी…”
सहसा जय ने फिर टोका. सामने रखी चाय का प्याला मुंह से लगाया, तो अनुज की याद आयी… वह दो कप चाय परफेक्ट बनाता है. काश! जैसे उसे चाय बनाना सिखाया वैसे ही खाना बनाना भी सिखाया होता.
अनुज के हाथों की चाय की चर्चा उसे दस-बारह वर्ष पीछे ले गई, जब वह दस-बारह वर्ष का था. वह बाहर से थककर आती, तो उससे चाय बनाने को कहती… दो कप चाय का अनुपात उसने अपने मस्तिष्क में भली प्रकार से बिठा लिया. वह दो कप चाय बहुत अच्छी बना लेता था.
एक दिन उनकी ननद आई, तब अनुज ने तीन कप चाय बनाई… उसका चाय बनाने का अंदाज़ सबसे अलहदा था. दो कप चाय के अनुपात के आधार पर दो-दो कप चाय दो बार में बनाई और तीन कप में छानकर एक कप फेंक दी. उसको ऐसा करते देख जय ख़ूब हंसे और कहने लगे, “चाय बनाने का पाठ सिखाया नहीं गया है, रटाया गया है… इसीलिए दो कप चाय ही सही बनती है. दो कप चाय से इतर संख्या में चाय बनवाना महंगा पड़ेगा… एक कप चाय बनाने को कहोगे, तो भी ये दो कप ही बनाएगा और एक कप की चाय फेंक देगा…”
हंसी-मज़ाक के वातावरण में जीजी ने अनुज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “चाय तो अच्छी है, पर ये काम लड़कों का थोड़े ही हैं…” उस वक़्त कहीं न कहीं उसके दिमाग़ में ये बैठ गया अनुज लड़का है. और ये काम उसके नहीं हैं.
कमोबेश यही बात उसने अपनी बड़ी बहन के घर दोहराई, जब दीदी के बेटे वेदांत को रसोई में दीदी की मदद करते देखा, तो बोल उठी, “क्या दीदी, क्यों इससे लड़कियोंवाले काम लेती हो.”
दीदी ने हंसकर जवाब दिया, “खाना बनाना एक ज़रूरी स्किल है, पता नहीं क्यों आजकल, लड़के-लड़कियां दोनों ही इस महत्वपूर्ण स्किल को एक-दूसरे के पाले में धकेलकर पल्ला झाड़ लेते है. मेरे हिसाब से तो ये स्किल जेंडर की मोहताज नहीं होनी चाहिए. मैं तो वेदिका-वेदांत दोनों को ही खाना बनाना सिखाऊंगी. कल को कौन जाने कब इसकी ज़रूरत पड़ जाए. कल को हॉस्टल जाएगा. नौकरी के चलते अकेले रहना पड़ेगा, तब कम-से-कम ज़रूरत पड़ने पर अपना पेट तो भर लेगा.”
“क्या दीदी आजकल हम हाउसवाइफ खाना मेड से बनवा लेती है. ये क्यों ख़ुद बनाएगा…” कहते हुए उस वक़्त कभी नहीं सोचा था कि इन सुविधाओं पर ताला लग सकता है. लॉकडाउन में पैसे होने के बावजूद सुविधा सम्पन्न लोग भी अपना काम स्वयं करने को मजबूर होंगे.
जो जहां है, वहीं थम जाएगा… तब ये स्किल ही काम आएगी. कुकिंग वास्तव में सर्वाइवल स्किल के रूप में उभरेगी.
काश! उसने अपनी बड़ी बहन की सीख समझ ली होती. अनुज से घर में खाना भी बनवाया होता, तो आज इस आपात स्थिति में चिंता के मारे वह मरी न जाती. मन में ग्लानि उठती कितने बच्चे समय रहते अपने माता-पिता के पास आ गए. अनुज भी मेरे पास होता तो सिर से चिंताओं का बोझ उतरता.
लॉकडाउन शुरू होने से पहले स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उसने जय से एक-दो बार दबी जुबान से कहा, “आगे पता नहीं क्या सिचुएशन हो. अनुज को बुला ले क्या…”
“बिल्कुल नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है उसे यहां आने की… इस वक़्त जो जहां है, वही रहे…”
जय की दृढ़ता देख वह भी चुप रह गई… उनकी बात भी ग़लत नहीं थी, कोरोना जिस तरह से फैल रहा था, उसमें एयरपोर्ट जाना और यहां नोएडा आना ख़तरे से खाली नहीं था. इतनी स्थिति बिगड़ जाएगी ये भी तो नहीं सोचा गया था. लॉकडाउन के बाद तो रातों की नींद गायब हो गई थी.
“मम्मी, चिंता मत करो, अक्का पास ही रहती है, वो आकर खाना बना रही है…” अनुज की तसल्ली से भी जान सांसत में पड़ी जान पड़ती, लॉकडाउन में उसे घर बुलाना न केवल उसकी अक्का के लिए वरन अनुज के लिए भी जोखिम भरा था.
बेटे में घर का काम संभालने का आत्मविश्वास होता, तो कब का कह देती कि अब बाहरी प्रवेश पर प्रतिबंध लगाओ… ख़ुद खाना बनाओ, घर संभालो झाडू-पोंछा करो… पर किस बूते पर कहती उसके लिए ये कार्य रॉकेट साइंस जैसे दुष्कर थे.
वैसे भी वह कितना आराम तलब है. आज क्या खाना बना है ये भी उसे नहीं पता होता.
“तुम्हारी अक्का आज क्या बना गई…” जब पूछो तब जवाब मिलता,
“पता नहीं, अभी देखूंगा…”
“तुम उससे अपनी पसंद का कुछ नहीं बनवाते क्या…” वह कहती तो बोलता, “मुझे बताना नहीं आता कि आज ये बनाओ.. वो बनाओ… खाने का मेनू डिसाइड करना सबसे मुश्किल काम है. चीज़ों की अवेबिलटी देखकर वो एक-आध ऑप्शन देती है, बस मैं अप्रूव कर देता हूं…”
ऐसा बोलनेवाला अनुज लॉकडाउन के समय कैसे और क्या बनाएगा और खाएगा…
स्टेज टू से थ्री में कोरोना के पहुंचने की ख़बर सुनकर एक दिन दिल कड़ा करके कहना ही पड़ा, “अनुज,कुछ दिन के लिए अपनी अक्का को छुट्टी दे दो… कैसे भी हो अब संभालना ख़ुद ही पड़ेगा.” “अच्छा…” उसने बड़े धीमे से सुस्त स्वर में कहा. उसकी मजबूरी और भय को मानसी समझ रही थी. आख़िरकार उसे ये फ़ैसला लेना ही पड़ा.
“अक्का नहीं आएगी. बाहर से खाना मंगवाने का ऑप्शन भी नहीं है, सो अब क्या होगा?" वह घबराया पर उसने उसका ख़ूब उत्साह बढ़ाया.
घर में कौन-कौन से मसाले हैं… कौन-कौन सी दाल-सब्ज़ी है इसका पता करके फोन पर ही उसे निर्देश देना आरंभ किया. दाल-चावल तो किसी प्रकार बन गया, पर रोटी तो उससे बनी ही नहीं. कभी आटा गीला, तो कभी रोटी बेल ही नहीं पाया. जो बेली, तो जल गई. वो फोटो भेजता, तो मन रो देता. यूट्यूब को देखकर उसने आटा गूंथना सीखा और बेलना भी. सब्ज़ियों के मामले में यूट्यूब फेल हुआ कारण इतनी सामग्री बताते थे कि उनकी अनुपब्लधता ही रहती. फोन पर ही निर्देश देना सही लगा… वो स्पीकर पर फोन रख देता और वह एक-एक चरण बताती जाती… और वह अनुपालना करता. उफ़! कितना मुश्किल था. रोटी-परांठे के वीडियो अपलोड किए गए. ज़रूरत सब करवा लेती है, सो खाना बनाना सीखना भी अपवाद न रहा.
फिर एक दिन वह बोला, “मम्मी, अब से सुबह का मैं और शाम का खाना शैली बनाएगी. तब तक, जब तक हम दोनों कुकिंग में परफेक्ट न हो जाए…” इस पर उसे थोड़ा चैन आया. एक से भले दो थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि एक लड़की होने के नाते शैली ठीक-ठाक खाना बना लेती थी. अनुज से बेहतर किचन मैनेज कर पाती थी, पर शैली अच्छा खाना बना लेती है यहां ये जेंडर के आधार पर तय करना क्या सही था.
शायद उसने घरेलू कामों का प्रबन्धन अनुज से बेहतर सीखा होगा. मानसी को अपनी सहेली सरल की याद आई. एक दिन उसका फोन आया, वो बहुत दुखी और डरी-सी लग रही थी, “मानसी, इस मुए कोरोना ने तो आफत कर दी… स्वाति को तो मैगी भी ढंग से पकानी नहीं आती है. अब उसे फोन पर सिखा रहीं हूं, तो इरीटेट हो जाती है. कहीं डिप्रेशन में न चली जाए…”
सरल की बात सुनकर उसे वो पल याद आए, जब सरल गर्व से अपनी गोल्ड मेडिलिस्ट पढ़ाकू बेटी को देख कहती, “वो ज़माना गया, जब लड़कियों को रोटी बेलना सिखाया जाता था. आजकल और बहुत कुछ है सीखने को…”
लड़कियों को भी खाना बनाना आना चाहिए यह कहकर कोई भी ख़ुद पर पुरातन पंथी का ठप्पा नहीं लगवाना चाहता. अपनी मम्मी की विचारधारा से प्रभावित स्वाति ने इसे निकृष्ट कार्य समझा. और यदा-कदा उत्साह से कह उठती, “आई हेट कुकिंग…”
कल सरल से बात हुई तो दुखी होकर कहने लगी, “स्वाति बहुत परेशान हो रही है. बात करके मेरा तो मूड ही ऑफ हो गया. मुझसे कहने लगी कि कुकिंग तो सर्वाइवल स्किल है. इतनी ज़रूरी स्किल आपने कैसे नहीं सिखाई! आजकल के बच्चों को तो देखो, चित भी मेरी और पट भी…”
सरल को पछतावा था कि स्वीमिंग, कराटे, डांस के साथ मैंने उसे कुकिंग क्यों नहीं सिखाई… वही जब जीजी से बात हुई, तो वह लॉकडाउन और वेदांत को लेकर निश्चिंत थीं. हंसती हुई कहने लगीं, “मानसी, वेदांत तो मस्त है. एक दिन मुझसे कह रहा था कि क्यों न इस लॉकडाउन के बाद मैं अपना करियर ही चेंज कर लूं. शेफ बन जाऊं.”
बेशक वेदांत ने मज़ाक किया होगा, पर उसका यह हुनर इस वक़्त काम आ रहा है. इस वक़्त वेदान्त ख़ुश है… दीदी को चिंता नहीं है कि कैसे मैनेज करेगा, पर उसे अनुज की चिंता है. सरल को स्वाति की चिंता है.
अभी इन परिस्थितियों में फंसकर बच्चे इस स्किल के महत्व को समझ रहे है. कैसे माता-पिता इतनी ज़रूरी ट्रेनिंग देने से बच्चों को चूक गए. वह स्वयं चूक गई. काश! वह अनुज को घरेलू काम करने की ट्रेनिंग देती… खाना पकाने में इतना आत्मविश्वास तो होता कि वह आज अपरिहार्य स्थिति में ख़ुद को मजबूर न समझता… बेटियां आज अंतरिक्ष में जा रही है. ऐसे में कोई उन्हें घरेलू काम सिखाने के पक्ष में हो, तो वह पिछड़ी सोच का कहलाएगा…
बेटा लड़का है घरेलू काम करते वो कहीं अच्छे लगते है… वह हंसी का पात्र बन जाएगा…
इन ग़लत धारणाओं के बहाव में बच्चों को उस स्किल से दूर रखा गया, जिनमें पारंगत होना अति आवश्यक है. पूर्वाग्रहों के चलते आज कितने बच्चों को समस्याओं के समंदर में फंस गए. शायद आज ये कठिन समय बहुत-सी धारणाओं को तोड़ने के लिए ही आया है… कुकिंग वाकई रॉकेट साइंस नहीं है और वह पिछड़ेपन की निशानी भी नहीं है.
अपना काम करना… झाडू-पोंछा, साफ़-सफाई, खाना बनाना… ये सब ऐसी स्किल्स हैं, जिन्हें आज की चुनौतियां सिखा ही देंगी. लोगों की मानसिकता भी आज की कठिन परिस्थितियां बदल ही देंगी…
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“अरे देखो, तुम्हारे बेटे ने क्या बनाया है…” सहसा जय उत्साह से मोबाइल दिखाते उसके पास आए, तो वह सोच-विचार त्यागकर मोबाइल पर अनुज के भेजे चित्र देखने को तत्पर हो गई, “एक थाली में बड़ी-सी पूरी, साथ में आलू-टमाटर की सब्ज़ी और बूंदी का रायता. वह ज़ूम करके प्लेट में रखे भोजन को देखने लगी. आलू-टमाटर की सब्ज़ी अच्छी लग रही थी. पूरी थोड़ी मोटी कुछ भटूरे के आकार की थी, पर जो भी था स्वादिष्ट लग रहा था…”
“कैसा लगा खाना?”
अपनी उत्सुकता को वाट्सअप पर भेजा, तो त्वरित उत्तर आया, “बढ़िया.”
“शाबाश!” एक किसिंग इमोजी के साथ उसने भेजा.
“यार पूरी-सब्ज़ी देखकर भूख लगने लगी. तुम भी खाना लगा दो…” जय बोले, तो उसे भी सहसा भूख का एहसास हुआ. आज वह ख़ूब अच्छे से खाएगी. यह सोचते हुए वह खाना लगाने लगी. दाल-रोटी का कौर तोड़कर मुंह में डाला, तो मोटी-सी गद्देदार पूरी और आलू टमाटर का स्वाद घुला लगा.
इस कोरोना ने बहुत सिखाया और बहुत सिखाएगा… अनुज की बनाई पूरी भी एक दिन पूरी जैसी बनेगी. एक दिन बिना उससे रेसिपी पूछे वह अपने लिए खाना बनाएगा, और कहेगा… ‘आपने क्या बनाया? मैंने तो आज ये बनाया. आप खातीं, तो उंगलियां चाटती रह जातीं.’ यह विचार आते ही उसके होंठो पर मुस्कान दौड़ गई और मन सुकून से भर गया.
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