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कहानी- सोने की चूड़ियां (Short Story- Sone Ki Chudiyan)

Kahaniya

"अपने मन की इन भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करना बहुत मुश्किल है मेरे लिए, पर घर में जहां भी तुम होती हो, तुम्हारी चूड़ियों की खनखनाहट मुझे वही खींच लाती है."

संगीता की आंखों से अविरल आंसू बहे जा रहे थे… वो एकटक अपने हाथ में रखी सोने की चूड़ियों को देख रही थी, जो अभी-अभी कुणाल देकर गया था. संगीता की आंखों के मोती चूड़ियों के टुकड़ों की तरह गालों से सरकते हुए ज़मीन पर गिरने लगे पर… उनके टूटने की आवाज़ को अब सिर्फ़ संगीता ही सुन सकती थी.
संगीता की दृष्टि सामने रखे अपने चूड़ीदान पर अटक गई, जिसमें चूड़ियों की रंगीन कतारें बार-बार उसे स्मृतियों के विविध रंगों में धकेल रही थी और वह ख़ुद को घड़ी के पेंडुलम-सा विवश महसूस कर रही थी… पेंडुलम जो समय की नित्य बढ़ती यात्रा में बार-बार आगे-पीछे होने के लिए विवश था.. पर अपनी जगह अटका हुआ था.
स्मृतियों में जा पहुंची संगीता. याद कर रही थी जीवन का वो समय, जब वो और अशोक विवाह के बंधन में बंधे थे. विवाह के अवसर पर संगीता के घरवालों ने अपनी हैसियत के अनुसार उसे बहुत कुछ दिया था, बस उसके पिता संगीता के लिए सोने की चूड़ियां नहीं बनवा पाए थे.
संगीता को पूरी आशा थी कि उसका पति उसके इस शौक को ज़रूर पूरा करेगा, क्योंकि उसे पति भी ऐसा मिला था, जो उसे बहुत प्यार करता था. शादी के बाद जब वो पहली बार अशोक के साथ घूमने गई, तो उसने सर्वप्रथम संगीता को लाल रंग की चूड़ियां पहनवाई और उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर प्यार से उसकी आंखों में आंखें डालकर कहा था, "इन चूड़ियों की खनक मैं सदैव सुनना चाहूंगा संगीता… तुम हमेशा अपनी कलाई रंग-बिरंगी चूड़ियों से भरी रखना…"
अशोक अक्सर संगीता से कहते, "तुम्हारी चूड़ियों की खनक मेरे लिए मंदिर में बजते घंटे के समान है, जो मेरे मन में अलग ही तरह की तरंगें उत्पन्न कर देती हैं…"


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अशोक बोले, "अपने मन की इन भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करना बहुत मुश्किल है मेरे लिए, पर घर में जहां भी तुम होती हो, तुम्हारी चूड़ियों की खनखनाहट मुझे वही खींच लाती है."
संगीता को तो स्वयं भी चूड़ियों का अत्याधिक शौक था, उनके बिना वह अपने श्रृंगार को पूर्ण ही नहीं मानती थी. वास्तव में शौक तो उसे सोने की चूड़ियों का था, पर उसकी ये इच्छा पूरी ही नहीं हो पा रही थी. तो वह कांच की रंग बिरंगी अलग-अलग डिज़ाइन की चूड़ियां ख़रीदकर अपने इस शौक पूरा करती थी.
अशोक की भी बहुत इच्छा होती थी कि वह संगीता को सोने की चूड़ियां लेकर दे, पर चाह कर भी वो इतना पैसा जमा नहीं कर पा रहा था.
हर वर्ष करवा चौथ पर अशोक संगीता को चूड़ियां दिलवाने की सोचता, पर संयुक्त परिवार में इतना पैसा बचता ही कहा था. हर महीने घर का कोई-ना-कोई ख़र्चा मुंह फाड़े खड़ा होता था. अक्सर अशोक मन मसोसकर रह जाता, क्योंकि ओवरटाइम करने के बाद भी वह इतना पैसा नहीं बचा पाता था कि संगीता को चूड़ियां दिलवा पाए.
संगीता भी पैसा बचाने के लिए दिन-रात चकरघिन्नी की तरह घूम-घूमकर काम करती थी. घर की सफ़ाई, कपड़े, बर्तन, दो समय का खाना और भी घर के छोटे-छोटे कई काम होते थे, जिन्हें वह ख़ुद ही निपटा देती थी, ताकि कामवालियों पर व्यर्थ पैसा ना उड़े. वो इन सबसे बचने वाले पैसों को अपनी चूड़ियां लेने के लिए जमा करना चाहती थी.
संगीता को सोने की चूड़ियों का इतना शौक था कि उसे पूरा करने के लिए वह लोगों के कपड़े सिलकर भी पैसे जोड़ती थी, पर वह सारी बचत किसी-ना-किसी ख़र्चे के समय निकालनी पड़ जाती थी… कभी बच्चों की पढ़ाई, कभी मां की बीमारी. ननद-देवर की शादी कर फारिग हुई, तो अपने बच्चों की शादी की चिंता सताने लगी थी. बेटी सुहानी का ध्यान तो पढ़ने में ज़्यादा लगता नहीं था, अतः बीए करते ही एक अच्छा घर-वर देखकर उसकी शादी कर दी. बेटा विदेश में बसना चाहता था. उसे वहां भेजने के लिए भी एक बड़ी रकम की आवश्यकता थी.
समय बीतता गया. संगीता यूं ही बचत करती और यूं ही ज़रूरतें पैदा होती जाती और संगीता यूं ही भली बन.. बचत निकाल.. रिश्तों पर लुटाती चली गई. चूड़ियां ख़रीदने की उसकी इच्छा सर्वोपरि होते हुए भी सर्वोपरि नहीं थी, उसकी यह इच्छा सदैव अन्य आवश्यकताओं की भेंट चढ़ती रही. बच्चों की शादी के बाद प्राइवेट नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके अशोक के पास अब ना तो कोई पेंशन थी और ना ही कोई ख़ास सेविंग्स बची थी.
ऐसे ही सारी उम्र निकली जा रही थी, पर संगीता के मन के भीतर… किसी एक कोने में सोने की चूड़ियां लेने की इच्छा अभी भी उफान मारती थी, लेकिन अन्य ख़र्च देखकर दब जाती थी.
समय-समय पर ये इच्छा यदा-कदा हिलोरे लेने लगती थी, पर संगीता के लिए घर-परिवार सर्वोपरि था. जिसकी कर्मभूमि से वह जुड़ी हुई थी, वहीं उसका जीवन था. उसके लिए सब कुछ उसका परिवार ही था. ऐसे तो संगीता हमेशा अपने हाथों में कांच की चूड़ियां पहनी रखती थी. उसके सुहाग की सलामती की निशानी जो थी वह… पर संगीता भूल गई कि चूड़ियों की नश्वरता की तरह ये जीवन भी नश्वर है…
… संगीता गहरे सदमे में थी. उसकी ज़िंदगी पूरी तरह बिखर गई थी. उसका अशोक उसे अकेले रोते-बिलखते छोड़कर चला गया था… इस दुनिया से हमेशा के लिए…


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अकेली बैठी संगीता अपनी सूनी कलाई देख रही थी, जिसमें अब वो अपने पति के प्यार की रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियां कभी नहीं पहन पाएगी. बेटे-बहू को भी उसकी सूनी कलाई अच्छी नहीं लग रही थी, क्योंकि सदा से ही उन्होंने मां की कलाई भरी देखी थी. मां के हाथों में सोने की चूड़ियां रखते हुए कुणाल ने कहा, "इन्हें पहन लीजिए मां… कोई भी और ज़रूरत होगी तो बोलिएगा ज़रुर… मां… हां, अब हम लोग निकलते हैं. छुट्टी भी इससे ज़्यादा नहीं मिलेगी."
व्यथित हृदय से सोने की चूड़ियां अपनी कलाई में देख संगीता सोच रही थी- ये चूड़ियां उसे किस क़ीमत पर मिली हैं… क्यों उसके सुहाग को ही उसके हाथ में यह चूड़ियां देखना नसीब नहीं था?..
अब संगीता को लग रहा था, इससे अच्छी तो वो कांच की चूड़ियां ही थीं, जो हमेशा अशोक के प्यार में खनकती रहती थी.. इन चूड़ियों के एवज में मुझे ये जो एकाकी जीवन मिला है… क्या ये चूड़ियां, मेरे इस अकेलेपन का साथी बनने आई हैं…

Neena Mahajan Neer
नीना महाजन नीर

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