शाम को विनय को धिक्कारता हृदय रात में बिल्कुल बदल गया. जितना दूर वह विनय को भगाने का प्रयास करती, वह उतना ही पास आता जाता. अजब-सी कशमकश में नींद आई. बुरे-बुरे सपने आते रहे, सहमाते रहे. सपनों में विनय का चेहरा कभी गालों तक झुक आता, कभी सीने में चुभता, कभी निश्छल-सी चमकती दो आंखें सारे अस्तित्व में चुभ जातीं. कमर के खुले हिस्से में बांहें चुभतीं, इतनी कि सीने में सिमटने का दिल कर आता, कभी पांव टीसता, कभी मन…
आरामकुर्सी पर अधलेटी शीला गुमसुम मूरत-सी लग रही है, पर दिल की तलहटी स्थिर नहीं है. लगता है, रोशन सपनों का एक शहर बहुत पास से गुज़र रहा है. बेख़याली में उसे छूने का मन हो आता है. हाथ बढ़ते हैं, पर कारवां ठहरा नहीं, आगे बढ़ गया है…
बस, आज की रात का ज़रा-सा टुकड़ा बाकी है, कल से वही इलाहाबाद की गर्मी, ख़ामोशी और अकेला फ्लैट… पहली बार बहुत अकेलापन महसूस होगा उसे. पर ये फैसला तो उसने ही किया था. नारी मुक्ति की राह पर सगर्व चलते हुए, आजीवन अविवाहित रहने का प्रण. जीवन मज़े से गुज़र रहा था. पहले बाबूजी के पत्र आते थे, पर पिछले दो बरस से बाबूजी नहीं रहे, तो पत्रों का वह इंतज़ार भी नहीं रहा. मां को नाती-पोतों से फुरसत नहीं थी. मांएं तो बचपन से ही जुड़ी रहना चाहती हैं, पहले अपने बच्चों के बचपन से, फिर नाती-पोतों के बचपन से. तभी अपने बच्चों से दूर वे नई पीढ़ी की हो जाती हैं.
मां के हिसाब से वह बहुत सुखी थी. ख़ूब कमाती और ठाठ से अकेली रहती थी. जब भी मिलतीं तो कहतीं, “तू मज़े में है बिट्टो. न आदमी की चें-चें, न बच्चों की पें-पें, वरना सारी ज़िंदगी इन्हीं में खटना होता है.” यह बात उसे राहत देती. बस, एक बार मां ने उसे चिट्ठी लिखी थी. अपनी एक सहेली के लड़के से उसका रिश्ता तय करना चाहती थीं, पर उसी ने नाराज़ होकर मना कर दिया था.
पर अब क्यों उसे धराशाई-सी लग रही है गुज़री ज़िंदगी एकदम बेमानी? इंदु और विनय तो सोए हैं अभी. उन्हें तो पता भी नहीं कि उसने सुबह पांच बजे की गाड़ी का टिकट मंगवा लिया है. उनसे बिना मिले ही लौटना है. फिर भी जैसे एक इंतज़ार सा है. बार-बार अड़ियल घोड़े-से मन को वह मनाती है, पर ज़िद्दी मन विनय की आंखों के आंगन में उतर, पलकों की चौखट से टिककर, सुनहरी धूप को एकटक देखना चाहता है. जब भी उसकी आंखों में धूप उतर आती है, सारे स्वप्न चौंककर कुनमुना उठते हैं. सात-आठ दिन से धूप की यही तपिश महसूस हो रही है. कभी हल्की, कभी गहरी. वह अनदेखा करती है, पीठ फेरकर दूर चली जाती है.
इंदु की शादी में परीक्षाओं के कारण जाना नहीं हो सका था. इंदु का आग्रह भरा निमंत्रण चला आया, “नैनीताल जा रही हूं, हनीमून मनाने, चाहे तो आकर मिल जा.” इंदु बचपन की सहेली थी. जुड़वां कहते थे सब उन्हें. अब भी वही स्नेह था, लम्बे-लम्बे पत्र लिखती थीं दोनों. इसीलिए बुलावा मिलते ही शीला उतावली हो गई उससे मिलने को.
कैसा पागलपन था. नई दुल्हन के हनीमून में दाल-भात में मूसलचंद-सी आ कूदी. तब नहीं सोचा था कि नए जोड़े के बीच वह क्या करेगी? स्टेशन पर तपाक से मिली इंदु. खिली-खिली, अतिरिक्त सुंदर हुई सी. शीला सम्मोहित सी देखती रह गई. तभी इंदु ने परिचय कराया, “विनय चंद्र, पतिदेव.” लम्बा, बलिष्ठ और सांवला विनय शीला को बड़ा आकर्षक लगा. इंदु भाग्यशाली रही.
“आप हैं शीलाजी. इंदु बहुत गुण गाती है. आपके बारे में इतना जान गया हूं कि लग नहीं रहा, आप पहली बार मिली हैं. इंदु ठीक कहती है, सच ही ब्लैक ब्यूटी हैं आप.”
“शीला तारीफ़ पर मत जाना. आने से पहले हज़ारों बार कोस चुके हैं तुझे. बहुत झगड़ा भी किया है.”
हंस दिया विनय, “आप ही कहें, किसी का हनीमून बरबाद करने कोई यों चला आता है क्या? कोसता नहीं तो क्या करता? पर अब आ ही गई हैं, तो क्षमा मांग लेता हूं. नाराज़ तो नहीं हैं न, सफ़र कैसा कटा?”
शीला देखती ही रह गई उस वाचाल को. कोई उत्तर न सूझा. कभी नए शादी-शुदा जोड़े देखे होते, तब तो हनीमून की अहमियत जानती. मुंह उठाए चली आई थी. उधर इंदु प्रश्नों की झड़ी लगाए थी, “मां कहां हैं? भाभी कैसी हैं? कान्हा और सलोनी तो बड़े हो गए हैं, फिर मां तेरे पास क्यों नहीं आतीं?”
ताज़ा दम होकर शीला ने होटल के कमरे से आसपास निगाह फेरी तो बड़ी प्यारी जगह लगी. दूर तक हरे, स्लेटी व नीले रंग आपस में घुले-मिले थे, मानो पहाड़, पेड़ और आसमान अपनी-अपनी संज्ञा भूलकर स़िर्फ रंग ही रह गए हों. दर्शनशास्त्र से अलग कुछ सोचना भला लगा. आश्चर्य हुआ कि कौन था उसके भीतर, जो प्रकृति को सराह रहा था. बड़ी दिलकश शाम थी, न काम का बोझ था, न अकेलेपन की बोरियत. अब लग रहा था कि अकेले रहने से साथ में रहना कभी-कभी अच्छा लगता है.
अगले चार दिनों तक विनय और इंदु का घूमने का कार्यक्रम चलता रहा. उमंग से भरपूर थे वे दोनों. पर इन चार दिनों में शीला अस्थिर हो गई. उन दोनों का अचानक आपस में खो जाना, गुटरगूं करते कबूतर के जोड़े की तरह उनकी चुहल, शरारतें, शोखी…वह अनदेखा करने की कोशिश करती. अजीब स्थिति थी. क्यों आई वह इनका हनीमून ख़राब करने? ये न तो ख़ुद एन्जॉय करते हैं और न ही उसे अकेला छोड़ते हैं. उससे भी अजीब था विनय का व्यवहार, जो कभी-कभी उसे भ्रम-सा ही लगता था.
अनजाने में विनय का क्षणांश को एकटक देखना, निमिष को उंगलियां छू लेना, कान के पास तेज़ सीटी बजा देना- सब बचपना लगता था, पर आंखों में स्वप्न-से रंग मन की चुगली कर जाते. घोड़े पर चढ़ाते व़क़्त कमर में लिपटी विनय की बांह जब उसकी नंगी पीठ पर चुभी, तो बहुत अजीब लगा था. उस व़क़्त विनय की आंखें उसकी आंखों में थीं और सांसें उसके गालों पर गर्म झकोरे-सी. जिस्म का रोंआं-रोंआं खड़ा हो गया था, कनपटी की नस टिप-टिप बज उठी थी. पुरुष के पहले स्पर्श से लगा था सांस ही नहीं आएगी.
अपने मन की लाचारी पर शीला की आंखें छलछला आईं. घोड़ेवाले ने घोड़ा आगे चला न दिया होता तो बेहोश होकर गिर जाती. इंदु चुप-सी हो गई थी. शायद उसे अच्छा न लगा हो, पर थोड़ी ही देर में सम्भल कर सामान्य हो गई. इंदु-विनय फिर आगे हो लिए थे और घोड़ेवाले से घोड़ा थोड़ा पीछे ही रखने को कह शीला निश्चिंत हो गई.
पहाड़, घाटियां, झरने लांघ-लूंघ कर होटल पहुंचे तो बुरी तरह थक चुके थे. कहीं विनय फिर उतरने में मदद न करे, इस डर से शीला ख़ुद ही घोड़े से कूद पड़ी और पैर मुड़ गया. वह कराह कर वहीं बैठ गई. हाय, यह क्या हुआ? जिससे बचना चाहा, वही स्थिति अब और विकट होकर सामने आ गई. शीला लंगड़ाते-लंगड़ाते इंदु और विनय के कंधों का सहारा लेकर चल पड़ी. दोनों की बांहें कमर से सहारा दिए थीं, पर लग रहा था कि एक ही बांह है- बार-बार छूती हुई. लाचारी और दर्द से आंसू बहने लगे.
इंदु ने पुचकारा, “अरे, तू तो बड़ी बहादुर बनती थी. बस, इतनी-सी चोट में हो गई छुट्टी.” बेचारी, क्या बताती उसे? किसी डाकू जैसी लग रही थी ख़ुद को शीला.
वह कमरे में आकर आराम कुर्सी पर लुढ़क पड़ी. इंदु आंसू पोंछ रही थी और चोर नज़रों से ताकता विनय… पत्थर होता तो सिर में ही जड़ देती. नालायक, पागल. परी-सी बीवी पाए चार दिन नहीं हुए कि ताकने लगा इधर-उधर. बदन के हर हिस्से में चुभ रही थी उसकी नज़र. बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था विनय का वहां खड़ा होना.
शाम को विनय को धिक्कारता हृदय रात में बिल्कुल बदल गया. जितना दूर वह विनय को भगाने का प्रयास करती, वह उतना ही पास आता जाता. अजब-सी कशमकश में नींद आई. बुरे-बुरे सपने आते रहे, सहमाते रहे. सपनों में विनय का चेहरा कभी गालों तक झुक आता, कभी सीने में चुभता, कभी निश्छल-सी चमकती दो आंखें सारे अस्तित्व में चुभ जातीं. कमर के खुले हिस्से में बांहें चुभतीं, इतनी कि सीने में सिमटने का दिल कर आता, कभी पांव टीसता, कभी मन…
ये उसे क्या हो गया था? मन का दो दिशाओं में पूरे वेग से खिंचना उसे तोड़ रहा था. विनय स्वीकार भी था और अस्वीकार भी. विरोधी भावों की झंझा से जूझती शीला सोच रही थी, अब क्या होगा? भोर में ही जाकर ठीक से नींद आ पाई.
सुबह-सुबह इंदु आई. अच्छा था कि उसे शीला की उधेड़बुन नहीं छू पाई थी. भोली लड़की कहां इस बिगड़े आदमी के पल्ले बंध गई. उस समय यही सोचने में आया था. पर क्यों उसका मन सारी रात उस बिगड़े आदमी की तरफ़ खिंचता रहा था? कभी नकारता, कभी स्वीकारता. पर इस व़क़्त उसे न देखकर उदास-सा हो आया. इंदु स्नेहिल थी. घूमने नहीं जाना चाह रही थी, पर शीला ने ही ज़िद करके भेज दिया. बड़ा लाड़ आया उस पर. अच्छा ही हुआ जो विनय नहीं आया. इंदु कब तक अंजानी रह पाती. शाम तक ठीक रहेगा. शीला ने लम्बी उसांस भरी.
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ढलती शाम इंदु के साथ विनय भी आया. हालचाल पूछ कर ताज़ा दम होने के लिए इंदु अपने कमरे में चली गई. विनय नहीं गया, वहीं बैठ गया बिस्तर के कोने पर. शीला को फिर अपना दम घुटता-सा लगा.
“कैसी हैं आप?”
“ठीक हूं.”
“आप तो ठीक से झूठ भी नहीं बोल पातीं, सारा दिन एक जगह बैठे-बैठे बोर हो गई होंगी. बाहर तक ले चलूं? घबराइए मत, गिराऊंगा नहीं.” कहते हुए वह हंस पड़ा.
मना करते हुए शीला ने देखा था, बड़ी मासूम हंसी थी और वह कल से चोर, लम्पट और भी न जाने क्या-क्या कहे जा रही थी. घबराकर आंखें मूंद लेना ठीक लगा.
“कहें तो बाम लगा दूं? अच्छा, सिर दबा देता हूं.” बिना उसकी स्वीकृति लिए वह सिर दबाने बैठ गया. शीला का तन-मन पंख लगा कर उड़ने को होने लगा. अब संदेह नहीं रहा था. विनय सचमुच आकर्षित था और वह भी कहां बच पाई उसके सम्मोहन से. इतनी नज़दीकी से लेश मात्र भी गुस्सा नहीं आया.
यह क्या हो गया था उसे? बड़ी-बड़ी दलीलें दूर छुप गई थीं. पराजय उसे मुंह चिढ़ा रही थी. ग्लानि हो रही थी अपने पराजय के एहसास पर. क्या अब तक जो किया वह दिखावा था? खीझ चरम सीमा पर जा पहुंची. आंसू बहकर गालों तक आ गए. उंगलियों से उन्हें पोंछता विनय ज़रा भी लम्पट नहीं लगा.
थोड़ी देर बाद शीला का सिर तकिये पर टिका, बिना कुछ बोले वह चला गया. उसका मन हुआ दौड़ कर रोक ले और सिर दबाने को कहे, पर वह उसकी प्रिय सखी का पति था और यह बात उसे अब तक याद थी.
अगले दिन विनय नहीं आया, इंदु आई. सारा काम किया, पर कुछ गुमसुम-सी लगी. हे ईश्वर, उस नादान की चोरी क्या इसने पकड़ ली? बुरी तरह सिहर गई शीला. नहीं-नहीं. वह अपनी सखी को बहुत प्यार करती है. जो उसे तोड़ दे, ऐसा कोई काम उससे न होगा. पर मुंह से बोल न फूटा.
अगले दिन इंदु से दो-तीन उपन्यास मंगा लिए. घूमने जाने से पहले इंदु आई. विनय नहीं आया. अच्छा हुआ जो नहीं आया. आता तो वह फिर खो जाती उसके सम्मोहन में. वह इतनी कमज़ोर है, यह अब क्षण-क्षण पता लग रहा था. चाहे कितना फौलाद बना रही थी ख़ुद को, पर विनय के नाम से पिघला जाता था सारा अस्तित्व.
दो दिन जैसे-तैसे गुज़रे. सूजन कम हो चली थी और दर्द भी. उस दिन वह धीरे-धीरे उठकर सहारा लेकर कमरे में चली-फिरी. फिर सारी दोपहर उपन्यास में निकाल दी. शाम को जल्दी आ गए वे दोनों. इंदु तो अलसाई-सी बिस्तर पर ढेर हो गई. विनय बिस्तर के किनारे उठंगा-सा बैठ गया, एकदम पैरों के पास. फिर हाथों से पांव थाम लिए, बुरी तरह सहम गया मन, ‘ये विनय क्या पागल है? इंदु क्या सोचेगी?’
“इस व़क़्त तो सूजन कम है. है न?”
इंदु ने भी झांका और सिर हिला दिया. विनय सिरहाने रखा ऑयोडेक्स उठाकर लगाने लगा. शीला बोल पड़ी, “ये क्या करते हैं आप? अब ज़रूरत नहीं है.”
“कैसे नहीं है? ऑयोडेक्स नहीं लगाऊंगा, तो आप तो यहीं पड़ी रहेंगी और हमारे हनीमून का कबाड़ा होता रहेगा.” शरारत टपकाती आंखें कितनी जीवंत थीं. अटपटे उलाहने से शीला का मन फिर ग्लानि से भर उठा. ‘क्यों आई, क्यों आई’ का शोर कानों के आर-पार तक गूंज गया.
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“आज फिर बोर हुई होंगी. खिड़की के बाहर ही झांक लेतीं. इतना सुहाना मौसम है. क्या सारा दिन इस सड़े-गले नॉवेल में घुसी रहीं?” बिल्कुल जाहिल-गंवार है. शरत् के ‘श्रीकांत’ को सड़ा-गला नॉवेल कहता है. मन उसकी अज्ञानता पर तरस से भर उठा.
“ऐसा न कहना, वरना हम दोनों नाराज़ हो जाएंगे. तुम भी पढ़ो, तो जानो शरत् की अमर कृतियों को.” इंदु ने कहा.
“बाप रे, दो साहित्यकारों के बीच में फंस गया. चल इंदु, चाय पिला और भारी-सा नाश्ता भी. पेट में चूहे कूद-कूद कर बेहोश भी हो गए हैं.” इंदु शीला की बंद आंखों व माथे को छू कर बाहर चली गई. आंखों को सुकून मिला उस स्नेहिल स्पर्श से.
“शीलाजी, मुझे आपसे कुछ कहना है. न, न, उठिए मत और आंखें भी बंद रखिए, मुझे कहने में सहूलियत होगी.” उसकी आवाज़ अस्वाभाविक-सी लगी, क्या कहना चाहता था? उसने उसकी नीयत का खोट तो नहीं पकड़ लिया? क्या मन का भेद इस पर खुल गया? लज्जा से गड़ गई शीला. कुछ कहते न बना, आंखें बंद किए प्रतीक्षित हो गई.
“मैं जो कुछ कहूंगा, उसे अन्यथा न लें. पहले दिन से ही आप मुझे बहुत भली लगी हैं. इतना ही जानता हूं कि मन आपके नज़दीक रहना चाहता है. इंदु मां की पसंद है, अच्छी पत्नी सिद्ध होगी और सुखी भी रहेगी, क्योंकि उसे देना आता है. पर मैं अपने मन का क्या करूं? पहली बार कोई बहुत अच्छा लगा है. जानता हूं, मेरी नज़दीक आने की कोशिशें आपको नागवार गुज़रती हैं. हो सकता है, आप मुझे चरित्रहीन समझती हों, पर इसमें मैं कहीं भी कुसूरवार नहीं हूं.
“कुछ महीने पहले मां ने मुझे एक तस्वीर दी, उनकी सहेली की बेटी थी. मां को पसंद थी, मुझे भी अच्छी लगी. वह तस्वीर मेरे ड्रॉवर में महीनों पड़ी रही. मैं रोज़ उसे देखता, उससे बातें करता. एक अंजाना लगाव-सा हो गया था उस तस्वीर से. अचानक एक दिन मां ने वह मांग ली. कहा, लड़कीवाले वापस मांग रहे हैं. लड़की शादी करने को राज़ी नहीं. तस्वीर चली गई. उस दिन बड़ा खालीपन-सा लगा. ग़ुस्सा भी आया, जब शादी नहीं करनी थी तो तस्वीर भेजी क्यों? बहुत नाराज़ था मैं उससे. मुझे वह बेहद घमंडी लगी.
“फिर इंदु से विवाह हो गया. मैं ख़ुश था, पर वह तस्वीर दिमाग़ में बनी ही रही. एक दिन इंदु ने अपनी सखियों का परिचय तस्वीरों द्वारा कराया. जिस सखी का नाम वह हमेशा लेती थी, उसकी तस्वीर देख कर मैं हैरान रह गया. यह वही थी, जिसकी तस्वीर महीनों मेरे ड्रॉवर में पड़ी रही थी.
“जब आपके आने की बात हुई, तो मैं उत्सुक था. उस दम्भ को देखना-परखना या शायद आहत करना चाहता था, जिसने मुझे ‘ना’ कहा था. पर जब देखा तो आप मुझे दुनियादारी से कटी-छंटी, अजब निश्छलता से पूर्ण लगीं. बच्चों जैसा लाड़ आता है आप पर, आपका बहुत सम्मान भी करता हूं. इन्हीं गड्डमड होती भावनाओं के वश में शायद कुछ ऐसा हो गया कि आपको अटपटा लगा हो. पर सच मानिए, कुछ भी अशोभनीय नहीं है मन में आपके प्रति.”
विनय चुप हो गया था. कितना बड़ा हो गया था विनय. क़द-काठी और भी ऊंची हो गई, शीला ने मन ही मन आंखें उठाकर उसे देखा. उसकी गरिमा को तौला और आंखें खोल दीं. आंसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें उपन्यास पर टपक पड़ीं. विनय ने हाथ बढ़ाकर उपन्यास उठा लिया और फैलती बूंदों को हथेली से पोंछ दिया.
पहली बार विनय को आंखभर देखा. उसकी आंखों की धूप बड़ी चटक थी. उन आंखों में कुछ था, जो स्वप्निल-सा था और निष्पाप भी. पर अपने भय का क्या करे वह? आपस में उलझी उंगलियां सुन्न हो गईं. यह इंदु कहां रह गई? क्या इतनी देर लगती है नाश्ता-चाय को? यह बावरा कुछ कर न बैठे. उठकर छू लेगा तो क्या करेगी वह?
स्लीपरों की आहट गूंजी. शुक्र है, इंदु व़क़्त पर आई. ‘संभालो अपनी अमानत को, जो छलिया-सी है. दिखावे को बुराई करता है मेरी, पर हृदय की तहों में जाने कितनी परतें हैं. स्नेह स्वीकार लिया है. अपनी सीमाएं भी स्वयं बांध ली हैं. पर है तो पुरुष ही, कहीं उच्छृंखल न हो जाए.’ सोचती हुई शीला को विनय से अब भय लगने लगा, पर उससे कहीं अधिक भय स्वयं से लग रहा था.
चाय-नाश्ता कर इंदु-विनय अपने कमरे में चले गए, तो शीला धीरे-धीरे कमरे के बाहर आई. चौकीदार सामने बैठा था. सुबह का टिकट लाने को कह दिया.
सारा व्यक्तित्व पंख-सा हल्का हो गया. मन का बोझ उतरने पर बड़ी शांति मिल रही थी. यही विकल्प था दीवाने मन का, फिर भी न जाने क्या-क्या याद करके सारी शाम गुपचुप आंसू बहाती रही शीला.
शाम बीती, धीरे-धीरे रात भी बीत रही थी. सन्नाटे में भर-भर आती आंखें और सामान सहेजते हाथ ठहर-ठहर जाते थे कि इंदु को अपने जाने की ख़बर तो दे दे. पर नहीं, यों ही ठीक है. उनकी ख़ुशियों को जीवन देना है. मन ही मन पूरे स्नेह से इंदु को सीने में समेटती शीला का मन ख़ामोश हो गया.
उसकी पलकों पर दो चमकीली आंखों की धूप उतर आई, इतनी अधिक चटक कि आंखें चौंधियाने लगीं. माथे पर हाथ रखे, तो जलने लगे. सीने से उठी देह-गंध नथुनों में भर गई, इतनी अधिक कि सांस रुकने-सी लगी. जाने कब से सीने में दफ़न गुलमोहर अब सुलग उठे थे. उ़फ्, कब तक सज़ा देंगे ये बिम्ब, कब तक कौंधेंगे? कल्पना में अपने सीने पर इंदु के स्पर्श को महसूसती शीला सोच रही थी.
- आभा सिंह
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