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कहानी- स्वयं से किया गया वादा (Short Story- Swayam Se Kiya Gaya Vaada)

'बहू का आना' क्या हर सास के मन में ऐसा ही कोई अंतर्द्वंद्व शुरू कर देता होगा? मन की इस उठा-पटक को तो मैं प्रियेश के साथ भी तो शेयर नहीं करना चाहती. पता नहीं क्या सोचेंगे मेरे बारे में. प्रियेश मेरे इस रूप को जाने किस तरह लेंगे. आज जीवन में दूसरी बार मुझे बदलाव के घूमते हुए चक्र ने वहीं लाकर पटक दिया है, जहां तीस साल पहले मैं भी इसी देहरी पर आकर खड़ी हुई थी.

मैं चुपचाप बालकनी के एक कोने में पड़ी इस कुर्सी पर सिमटी-सी बैठी हूं. जाने क्यों मन आज इतना उदास है. जानती हूं, ऐसा कुछ नहीं हुआ है, फिर भी पता नहीं कौन-सी चिंता मन को मथ रही है. अपने आप में उलझी मैं अपने ही अंतर्द्वंद्व में इतनी तल्लीन और खोई-सी थी कि इनके आने का आभास तक नहीं हुआ. जाने कब आंखों के दायरे तोड़, खारे जल की कुछ बूंदें गालों पर लुढ़क पड़ी. इन्होंने घबराकर पीछे से मुझे बांहों के घेरे में लेते हुए प्रश्न दाग दिया, "क्या हुआ, अनु?"
"कुछ भी नहीं, बस यूं ही मन उदास है." मैंने सहज होते हुए कहा.
"आज तो तुम्हें सबसे ज़्यादा ख़ुश होना चाहिए, तुम्हारी ज़िम्मेदारियां अब पूर्ण होने जा रही हैं और तुम हो कि यूं आंखों में सावन-भादों समेटे जाने कहां खोई हो?"
मैंने झट संभलते हुए कहा, "कुछ भी तो नहीं हुआ?"
"फिर भी कुछ तो बात है, वरना तुम इस तरह उदास बुझी-बुझी कभी नहीं रहतीं." इनकी पारखी आंखों ने ताड़ ही लिया था और ताड़ें भी कैसे नहीं, आख़िर एक-दूसरे की रग-रग से वाकिफ़ हम सहज ही एक-दूसरे की परेशानी की चिंता रेखाओं को पकड़ लेते हैं.
तीस साल का साथ है. चेहरा तो चेहरा, मन के हावभाव भी शायद समझ जाते हैं.
ये मुझे सहेजते हुए से बोले, "अनु, बोलो भई. कुछ बताओ तो."
मैंने सहज होने की पूरी कोशिश के साथ कहा, "यूं ही आज रह-रहकर मांजी याद आ रही है."
"क्यों भई? सास बनने की ख़बर से ही सास याद आ गई क्या? ये मां आज क्यों याद आ रही हैं. उनसे तो, जब तुम आई थीं, तुम्हारी पटरी लंबे समय तक नहीं जमी थी."
ये मज़ाक के मूड में बोल गए.
"मेरी पटरी? वाह, आप भी न…" चिड़चिड़ाते हुए मैंने आंखों को पोंछते हुए कहा.
"मतलब तो एक ही हुआ न, पटरी तुम्हारी कहो चाहे मां की? आज पता चला मुझे तुम्हारी स्थिति देखकर. सास भी कभी बहू थी वाली उक्ति का अर्थ?" वे समझौते के लहजे में बोल रहे थे.
"चाय पीने का मन हो रहा है, आप लेंगे क्या?" मैं उठने लगी.
"हां, हां, आधा कप चल जाएगी. चाय की कब मना है, इसी बहाने थोड़ी देर तुम पास बैठोगी तो सही."
"क्यों? क्या मैं तुम्हारे पास नहीं, कहीं दूर लंका में रहती हूं?"
"लगता है, आज तो तुम लड़ने के मूड में हो. अरे, मेरा मतलब है, अब तुम्हारी बहू क्यों, गलत कहा क्या मैंने." ये हमेशा हल्के-फुल्के मूड में ही बात करते हैं. शाम का अख़बार फैलाकर बैठ गए.
चाय का प्याला पकड़े-पकड़े मैं फिर गुमसुम हो गई. इन्होंने फिर टोका था, "प्लीज़ अनु, कुछ तो बात है? बताओ भी."
"सच बताने लायक कोई बात नहीं." मैं मुस्कुरा उठी.
"कुछ तो ज़रूर है, ये मृगनयनी आंखें क्या यूं ही सजल हो रही हैं?" ये दुलारते हुए बोल रहे थे.

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इस स्नेह भरे संवाद ने मुझे और रूंआसा कर डाला, पर बताने जैसी कोई बात थी भी कहां? क्या बताती कि अभिनव की पसंद मुझे नापसंद है. ठीक उसी तरह जैसे तीस साल पहले मांजी ने मुझे नापसंद करार दिया था. तभी फोन की घंटी बजी और ये उठकर चले गए. मैंने राहत की सांस ली. चलो, सच उगलने से बची, वरना ये तो मेरे अंदर के चोर को ज़रूर पकड़ लेते. पर यह चोर कब मेरे मन में प्रवेश कर गया, मैं नहीं जानती. हां, जब से अंदर है दिलोदिमाग़ में एक खलबली-सी मची हुई है. एक शीतयुद्घ चल रहा है मेरा मेरे ही साथ. आज पहली बार मुझे भी लगा कि मेरा अस्तित्व अब ख़तरे में है. तो क्या ऐसा ही मांजी को भी लगा होगा, जब प्रियेश ने मुझसे ब्याह करने की इच्छा मांजी को बताई होगी?
'बहू का आना' क्या हर सास के मन में ऐसा ही कोई अंतर्द्वंद्व शुरू कर देता होगा? मन की इस उठा-पटक को तो मैं प्रियेश के साथ भी तो शेयर नहीं करना चाहती. पता नहीं क्या सोचेंगे मेरे बारे में. प्रियेश मेरे इस रूप को जाने किस तरह लेंगे. आज जीवन में दूसरी बार मुझे बदलाव के घूमते हुए चक्र ने वहीं लाकर पटक दिया है, जहां तीस साल पहले मैं भी इसी देहरी पर आकर खड़ी हुई थी. मेरे कदम देहरी के बाहर ही थे और मैंने महसूस कर लिया था कि देहरी के अंदर जमे हुए पैर मेरा, मेरे आगमन का उस तरह स्वागत नहीं कर रहे जैसी मेरी अपेक्षाएं थीं. बाहर मैं थी, अंदर मांजी, जिनके हाथ में आरती की थाली ज़रूर थी, पर बढ़ती उम्र के झुर्राते-से चेहरे पर एक तमतमाया-सा मौन था और आंखों में मुझे तौलती-तपती-सी आभा थी. जाने क्या था उन आंखों के तेज में जो मुझे ईर्ष्या की तरह लगी थी. मैं मन ही मन कुछ-कुछ डरी हुई सी थी कि जाने कैसा व्यवहार करेंगी वे मेरे साथ.
सतरंगी सपनों का हिंडोला उनके सामने आते ही रूक गया था. पर मन का कोई कोना आश्वस्त भी था कि प्रियेश मुझे पसंद करते हैं, असीम प्यार करते हैं. मांजी करें न करें, क्या फ़र्क़ पड़ता है. पर बाद में महसूस हुआ कि एक छत के नीचे हर रिश्ते की अहमियत है और रिश्ते को निभाने से बहुत फ़र्क़ पड़ता है. सुबह-शाम छोड़ दो, तो दिन के शेष समय को उन्हीं के साथ गुज़ारना होता था. ब्याह के पांच सालों तक मांजी और मैं अलगाव के दो किनारों पर ही थे. वह तो पांच वर्ष बाद अभिनव रूपी सेतु ने हम सास-बहू को दादी और मां बनाकर अलगाव को लगाव में ऐसा बदला था कि मरते वक़्त भी मांजी ने इनकी नहीं, मेरी गोदी में सिर रखकर गंगाजल ग्रहण करते हुए प्राण त्यागे थे.
ब्राह्मण और मैं राजस्थान की ब्राह्मण बेटी, क्या फ़र्क़ था, केवल प्रांत का? केवल भाषा का? रीति-रिवाज़ों और खानपान का? केवल सांस्कृतिक भेद ही तो था-थीं तो दोनों एक ही जाति कीं. ब्राह्मण कुलों में जन्मीं थीं, पर मांजी कुछ यूं व्यवहार करतीं मानो अछूत कन्या उनके घर आ गई हो और वे अबड़ा (भ्रष्ट) गई हों. अलग पकाना, अलग पूजा-पाठ, उनका इस तरह का व्यवहार मुझे अंदर ही अंदर तोड़ देता था. एक हीनता का बोध करवाता था. तब हमेशा लगता मांजी ग़लत हैं, पर आज लग रहा है वे ग़लत नहीं थीं. वह उनकी उथल-पुथल होती मनःस्थिति का ही परिणाम रहा होगा. ऐसा ही तो मैं भी सोच रही हूं अभिनव की पसंद को लेकर! लड़की आईआईटी है, अभिनव के साथ पढ़ी, उच्च शिक्षित है. पर मेरे अंदर उसकी शिक्षा, अभिनव की पसंद के बावजूद, कुछ ऐसा अलग सा पक रहा है, जो मुझे ही द्वंद्व में डाल रहा है. मैं और मांजी तो केवल प्रांत के अंतर से ही बंटे थे, पर सुकन्या तो जाति और धर्म से भी अलग है. कैसे हम उसके साथ निभा पाएंगे?
आज सुकन्या को मैं उसी अलगाव के दूसरे किनारे पर देख रही हूं. मैं शुद्घ भारतीय परंपराओं की क़ायल हूं. कायदे, मान-मर्यादा, संस्कार सभी कुछ मेरे निर्धारित मानदंडों पर चलते हैं. बड़ों के चरण-स्पर्श को दुनिया का सबसे अच्छा अभिवादन माननेवाली मेरी संस्कृति में सुकन्या का 'हेलो आंटी, हाय अंकल' कहां समायोजित हो पाएगा! एक तीखी चुभन सी उठी भीतर. मन लगातार उलझता ही जा रहा है. "सुकन्या को बदलना पड़ेगा स्वयं को, ऐसे नहीं चलेगा…" मैं बुदबुदा उठी.
"क्या हुआ, मम्मी?" अभिनव ने पीछे से आकर गले में बांहें डालते हुए, मेरे गाल से गाल सटाकर प्यार करते हुए पूछा.
"कुछ नहीं रे, बस यूं ही." मैंने उसका गाल थपथपाते हुए कहा.
"नाराज़ हो आप?" उसकी आवाज़ में भय की झलक थी.
"नहीं तो." सहज होने का मेरा प्रयास व्यर्थ गया.
"मम्मी, जब से आप सुकन्या से मिली हैं, आप चुप हैं, उदास हैं. पसंद नहीं आई क्या?" वह गंभीर लहज़े में बोल रहा था.
"ऐसा कुछ नहीं है." मैं उठकर अपने कमरे में आ गई थी. मैं अभिनव के प्रश्नों से बचना चाहती थी. जानती हूं, इन दिनों वह नए जीवन के ख़्वाबों की दुनिया में तैरता रहता है. मैं नहीं चाहती कि वह दुखी हो. उसका दिल टूटे. उस पर अपने कमज़ोर होते पुरातनपंथी मन की झलक भी न पड़े, यही सोचकर उठ गई थी मैं बालकनी से. पर वह मेरे पीछे-पीछे कमरे में चला आया.


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"यू नो मम्मा, सुकन्या इज वेरी इंटेलीजेंट."
"आई नो वेरी वेल." मैंने मुस्कुराते हुए सहज होने की कोशिश की.
"शी इज वेरी स्वीट." वह वहीं मेरे पलंग पर लेट गया और शायद भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गया. उसे झपकी आ गई. मैंने चादर उढ़ाकर उसके बालों में हाथ फेरा, तो नज़रों के सामने नन्हा-सा अभिनव आ गया. यादों का छोटा-सा अलबम फिर मन में खुल बचपन रिवर्स होती फिल्म की तरह मेरे सामने खुलता गया.
एक-एक घटना, एक-एक बात मेरे स्मृतिपटल पर उभरती जा रही थी. उसके चेहरे पर नज़रें गईं, तो लगा जैसे वह आज भी उतना ही मासूम है. मैंने उसके माथे को चूम लिया. 'क्या इसकी इच्छा के लिए मैं स्वयं को नहीं बदल सकती?..
पर मैं ही क्यूं बदलूं हर बार? पहले मांजी के लिए, अब बहू के लिए? मैं और सुकन्या, सुकन्या और मैं, मैं और मांजी, मांजी और मैं… लगातार यह चक्र मेरे दिलोदिमाग़ पर मंडराने लगा. सैकड़ों नए सवाल पुराने संदर्भों के साथ मन में उठने लगे. दिल आक्रांत हो गया. सुकन्या के आते ही अभिनव मुझसे दूर हो जाएगा? मुझे अभिनव से दूर होने का भय लगातार सताने लगा. अब तक अभिनव के जीवन में कोई स्त्री थी तो वह केवल मैं- उसकी मां. दादी के साथ भी उसका प्यार बंटना मुझे अच्छा नहीं लगता था. तब उस पराई लड़की के साथ..? सुकन्या के आने की कल्पना से ही मुझे बेटा अपने से दूर होता लगा. कितना सुख मिलता है मुझे उसके लिए बनाने में, उसके लिए जागने में, उसके स्वेटर, उसके कपड़े पसंद करने में. पर धीरे-धीरे यह सब सुकन्या का सुख हो जाएगा. सुकन्या की पसंद में बदल जाएगा. मैं घर की धुरी से हटकर हाशिए पर चली जाऊंगी. सिहरन सी हुई तन-मन में, तो क्या अपनी स्वतंत्रता और एकाधिकार के बंटवारे का भय मुझे डरा रहा है? अपने सर्वाधिकार, अपने वजूद के घटने का डर है. क्या परिवार में एक दूसरी स्त्री का प्रवेश मेरे महत्व को चुनौती नहीं दे रहा? मन में गुबार-सा उठा और सारे प्रश्न
धुंधले-से होने लगे. पसीने से तर-बतर हो गई मैं. रात सोचते-सोचते ही आधी हो गई, पर नींद का नामोनिशान नहीं था.
कितना उत्साह था मुझमें जब मैं दुल्हन बनकर इस घर में आना चाहती थी. प्रियेश के साथ काम करते हुए अक्सर मां की बात होने लगती. मां का ज़िक्र, मां की कल्पना से ही रोमांचित हो उठती थी मैं. बचपन में ही मां खोकर अधूरी हो गई ममता की छांव को बाबा ने पूरा करने की लाख कोशिश की थी, पर फिर भी प्यार, स्नेह और आशिर्वाद की रिक्तता को सदा महसूस किया था मैंने. प्रियेश से मां के बारे में सुन-सुनकर एक सुंदर कल्पना ने जन्म लिया था मेरे मन में- जहां सास-बहू नहीं मां-बेटी हुआ करती थीं, पर क्या? फिर अपनी बहू को बेटी बनाऊंगी, यह वादा मैंने अपने आपसे ही किया था, फिर अब क्यों मैं परेशान हूं?
क्या हाथी के दांत की तरह विचार भी दिखाने के अलग होते हैं और निभाने के अलग?

- डॉ. स्वाति तिवारी

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