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कहानी- स्वीकार (Short Story- Sweekar)

“तू क्या समझती है कि केवल तेरे स्वभाव के कारण तेरा घर और जीवन इतना व्यवस्थित है? नहीं पगली, इसमें तेरे सुलझे हुए और समृद्ध परिवार का भी हाथ है. कभी मेरे यहां आकर देख. तीन कमरों का घर और छः प्राणियों का संयुक्त परिवार. व्यवसाय ऐसे कि किसी के घर आने-जाने का कोई समय नहीं. पर घर वाले बहुत अच्छे स्वभाव के हैं. मैं अगर तेरी तरह व्यवस्थित और अनुशासित स्वभाव की होती तो कभी वहां एडजस्ट नहीं कर सकती थी. पर वो जो ऊपर वाला है न, उसे दुनिया चलाने के लिए हर तरह के इंसानों की ज़रूरत होती है इसीलिए तमाम वैराइटीस बनाता है. तभी देख, मैं न केवल ख़ुश हूं, बल्कि अपना पॉटरी का बिज़नेस भी कर रही हूं. कुछ लोगों को रोज़गार भी दिया है."

भावना प्रकाश

आज निपुणिका का दसवां जन्मदिन था. उसकी मां मंजरी ने उसकी पसंद की पार्टी के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया. मेहनत तो वो हर बार करती थी, पर इस बार बेटी की तरफ़ से पार्टी को यादगार बनाने की फरमाइश भी थी. गेम्स हो या डेकोरेशन, खाना हो या रिटर्न गिफ्ट, हर चीज़ में कलात्मकता, योजनाबद्धता या यूं कहें कि मंजरी का व्यक्तित्व झलक रहा था. उच्च शिक्षा ग्रहण करने और एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दो साल नौकरी करने के बाद एक समृद्ध और सुशिक्षित घर में विवाह हुआ था उसका. मंजरी उन लोगों में से थी जो पढ़ाई हो या अतिरिक्त गतिविधि, हर जगह हमेशा प्रथम आते हैं और हर कार्य को संपूर्णता के साथ करते हैं.
रात में सोते समय मंजरी को बुखार लगा. “तुम्हारी ये संपूर्णता की ज़िद्द भी ना! इस वजह से एक्ज़र्शन मोल लेती हो तुम, इसीलिए तबियत ख़राब हुई है.” पति प्रीत ने दवाई देते हुए टोका.
“अरे नहीं, वायरल होगा. देखो, बच्चे कितने ख़ुश थे. सालभर इंतज़ार करती है नोनू इस दिन का.” मंजरी दवाई गटक कर बोली.
“वाव..!” तभी निपुणिका दौड़ते-चिल्लाते हुए आई और मां से लिपटकर झूल गई. “कितना सुंदर गिफ्ट है तुम्हारा. कैसे जान जाती हो मुझे क्या अच्छा लगता है? माई गुड नहीं, बेस्ट नहीं, बेस्टेस्ट मम्मा. मज़ा आ गया. थैंक यू.”
“मम्मा को तंग मत करो, उन्हें बुखार है.” प्रीत ने टोका.
“डोंट वरी पापा, दादी-बाबा बुआ के पास ऑस्ट्रेलिया गए हैं तो क्या? मेरी तो एक हफ़्ते की छुट्टी है. मैं मम्मा का ख़्याल रखूंगी.”
“बाप रे! एक हफ़्ता? तब तो तुम्हारी मां की तबियत का भगवान ही मालिक है.” प्रीत ने चुटकी ली. फिर क्या था, घर पिलो फाइटिंग के साथ ठहाकों से गूंज उठा.
बुखार सुबह फिर चढ़ गया. मंजरी गोली खाकर दोबारा लेट गई तो उसकी आंख लग गई. प्रीत ने हैवी नाश्ता बनाया. ख़ुद खाकर मंजरी और बेटी के लिए रख दिया. फिर बेटी को कुछ समझाकर ऑफिस चले गए. “क्या कर रही है मेरी नोनू?” जब मंजरी की आंख खुली तो कुछ देर बिस्तर पर करवटें बदलने के बाद उसने पूछा. वो प्यार से बेटी को नोनू बुलाती थी.
“मैं क्रोशिया से तुम्हारे लिए जैकेट बना रही हूं. मां, तुम चिंता मत करो. पापा खाना बनाकर गए हैं और बाकी कामों के लिए मैं हूं ना? और पापा भी तो कितने केयरिंग हस्बैंड हैं.” अब मंजरी की हंसी छूट गई. “तुम्हें कैसे पता कि पापा केयरिंग हस्बैंड हैं?”
“मैं लॉन में पानी डालने बाहर निकली तो लीना आंटी के पूछने पर मैंने तुम्हारा हाल बताया. उनके नाश्ते, खाने के बारे में पूछने पर मैंने कहा कि पापा ने सब बनाकर रख दिया है, तो उन्होंने ही ये कहा. क्यों ये सही नहीं है?” निपुणिका ने भोलेपन से पूछा.

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“बिल्कुल सही है, तू भी तो बड़ी केयरिंग बेटी है. रोज़ मैं लॉन में पानी डालती हूं. मेरी तबियत ठीक न होने पर तूने मेरी ज़िम्मेदारी बांट ली. इसी को तो केयरिंग होना कहते हैं.” मंजरी ने बेटी को चूम लिया.
फिर क्या था, नोनू का उत्साह चरम पर पहुंच गया. वो उछलकर खड़ी हो गई और एक सांस में बोलने लगी, “अरे मम्मा, अभी तो तुम्हें पता नहीं है मैं तुम्हारी कितनी केयर करने वाली हूं. मैं खाना अवन में गरम करूंगी.” मंजरी के होंठों पर मुस्कान आ गई. जाने क्यों उसे ऐसा लग रहा था कि वो पहली बार अपनी बेटी की बाल-सुलभ बातें सुन रही है. क्या ये देविका की बातों का असर था? उसने इत्मीनान से आंखें मूंद लीं. मन को अतीत में भ्रमण करने को खुला छोड़ दिया.
देविका! उसकी सबसे प्रिय सखी. एक ही दिन नोनू से मिली थी और नोनू ने उसका नाम अच्छी आंटी रख दिया था. हालांकि वो जितनी सुव्यवस्थित, अनुशासित और योजनाबद्ध थी देविका उतनी ही अस्त-व्यस्त, सहज और अल्हड़ थी. कॉलेज में सब आश्‍चर्य करते थे कि इतने विपरीत स्वभाव में इतनी पक्की दोस्ती कैसे है, पर वे जानती थीं कि वे विपरीत नहीं पूरक थीं. मंजरी देविका की पढ़ाई से संबंधित समस्याओं का समाधान थी और देविका मंजरी की व्यावहारिक उलझनों का निराकरण.
“इस दोहे का मतलब बताओ न मम्मा.” नोनू के झिंझोड़ने से मंजरी जैसे सोते से जागी.
“अरे वाह! मेरा गुड बेबी पढ़ रहा है? उसने क़िताब खोलकर बैठी बेटी को पुचकारा.
“मैं एक गुड और रिस्पॉन्सिबल गर्ल हूं इसलिए पढ़ाई कर रही हूं. पापा का फोन आया था. उन्होंने याद दिलाया कि तुम सबसे ज़्यादा ख़ुश मेरे पढ़ाई करने से होती हो और मुझे पता है ख़ुश होने से तबियत जल्दी ठीक हो जाती है.”
“अच्छा..!” मंजरी ने शब्द को फैलाते हुए मुस्कुरा कर पूछा, “तुम्हें कैसे पता?”
“बिकॉज़ आई एम द मोस्ट इंटेलिजेंट गर्ल ऑफ़ द यूनिवर्स, मुझे सब पता है.” नोनू अपने
चिर-परिचित अंदाज़ में कॉलर खड़े करने का उपक्रम करते हुए बोली. कोई और दिन होता तो मंजरी उपदेश देना शुरू कर देती कि ख़ुद अपनी ही तारीफ़ करना अच्छी बात नहीं है, पर आज वो हंसकर बोली, “किस दोहे का मतलब?”
“रहिमन विपदा है भली, जो थोड़े दिन होए
हित-अनहित या जगत में, जान परत सब कोए.”
“बेटा इसका मतलब है, परेशानी भी कभी बड़े काम की होती है. इससे हमें अपनों के सही स्वभाव का का पता चलता है जैसे…” मंजरी को लगा उसका गला सूख रहा है और उसकी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं पड़ रही. “जैसे… तुम सोचकर बताओ” उसने वाक्य अधूरा छोड़कर कहा.
“जैसे तुम्हें बुखार आने पर पता चला कि मैं यूज़लेस पर्सन नहीं केयरिंग बेटी हूं.” नोनू बड़ी सहजता से तपाक से बोली.
“यूज़लेस..?” मंजरी के दिमाग़ पर जैसे कई हथौड़े एक साथ पड़ गए थे. नोनू को लगता है कि वो उसे यूज़लेस समझती है? नोनू अपनी धुन में पढ़ रही थी, लेकिन आज मंजरी का ध्यान पढ़ाई से भटक गया था. कब, कहां और कैसे नोनू के दिल में ये बैठ गया? वो अतीत का मंथन करने लगी.
शादी के छह साल बाद बड़ी मन्नतों और मुरादों के बाद बेटी हुई थी उसे. कितने प्यार और अरमानों से उसका नाम निपुणिका रखा था उसने. उसे हर काम में निपुण बनाने का अरमान जो था. मातृत्व सुख पाने के बाद उसने जॉब छोड़ दी थी. आर्थिक स्थिति अच्छी होने और छह वर्ष का दायित्वहीन ख़ुशनुमा वैवाहिक जीवन जीने के कारण कोई और तमन्ना बाकी नहीं थी. अतः मंजरी ने अपनी सारी प्रतिभा, सारा ज्ञान, आठ वर्षों के शैक्षणिक जीवन का सारा अनुभव और सारा समय निपुणिका की परवरिश पर लगा दिया था.
लेकिन जैसे-जैसे निपुणिका बड़ी होने लगी उसने पाया कि उसकी बेटी अपने नाम और मां के स्वभाव के बिल्कुल विपरीत है. मंजरी बाल मनोवैज्ञानिकों द्वारा बताए हर निर्देश का पालन करती, पर एक सुंदर सांचे में ढलने की बजाय निपुणिका हर दिन उसके लिए एक नई चुनौती खड़ी कर देती. उसके हर कार्य में एक मस्तमौलापन झलकता था जो मंजरी को बिल्कुल गंवारा न था. पढ़ाई में बेटी का औसत होना उसे सबसे ज़्यादा अखरता था.
कभी मंजरी को लगता कि पति प्रीत अपनी व्यस्तता के कारण निपुणिका को समय नहीं दे पा रहे हैं इसलिए वो इतनी उद्दंड होती जा रही है. कभी लगता कि दादा-दादी का अतुलित प्यार उसे बिगाड़ रहा है. कभी वह बेटी के औसत होने का दोष स्कूल को देती. मंजरी का मस्तिष्क यह मानने को तैयार ही नहीं था कि कोई बच्चा इतनी योजनाबद्ध कोशिशों के बावजूद स्कूल में पहचान नहीं बना पा रहा है. शिक्षण व्यवसाय में रहते हुए मंजरी ने अनेक मनोवैज्ञानिकों और विशेषज्ञों से प्रशिक्षण प्राप्त किए थे. हर जगह सारांश रूप में एक बात ज़रूर बताई जाती थी कि हर व्यक्ति विशिष्ट होता है. सही शिक्षा और परवरिश व्यक्ति में छिपे असीम को तराश सकते हैं.
रिज़ल्ट वाले दिन निपुणिका के साठ प्रतिशत के आसपास अंक देखकर मंजरी का मूड बुरी तरह ऑफ हो जाता था. उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर जाता था इस दिन.
“ये कहीं से भी उस मां की बेटी का रिपोर्ट कार्ड नहीं लगता जिसके शिक्षण की कार्यशालाओं में जीते अवॉर्ड्स से अलमारी भर गई है.” एक बार वो ग़ुस्से में बोली थी.
“मेरे एक दोस्त हैं, उनका बेटा ऑटिस्टिक है. कभी उनके घर ले चलूंगा तुम्हें. उनकी मेहनत और ख़ुश रहने की आदत देखोगी, तो तुम्हें रियल इंस्पिरेशन मिलेगा.” पति ने तो उसे यथार्थ का एहसास कराने के लिए ये कहा था, पर मंजरी के मन में एक मनोचिकित्सक से परामर्श करने का विचार कौंध गया था.
“योर चाइल्ड इज़ ऐब्सॉल्यूट्ली नॉर्मल.” कई तरह के परीक्षणों के बाद मनोचिकित्सक ने कहा था.
“फिर क्यों इसके कभी पचास-साठ प्रतिशत से ज़्यादा अंक नहीं आते? किसी भी एक्टिविटी में ये मेहनत करने में रुचि नहीं दिखाती.”
“क्योंकि जो एक्टिविटीज़ इसे ऑफर की गई हैं उनमें से किसी में इसकी रुचि नहीं है और बच्चे की योग्यता को अंकों की कसौटी पर कसकर देखना ठीक नहीं.” डॉक्टर ने उसका वाक्य संशोधित करते हुए कहा था.
“लेकिन दुनिया तो इसे इसी कसौटी पर कसेगी ना? आज जब इसे किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर नहीं मिलता तो चोट तो इसी को पहुंचती है. हर रिजेक्शन पर घर आकर रोती है, तो मैं इसे ये न समझाऊं कि बिना सिंसियर हुए किसी क्षेत्र में पहचान नहीं मिलती?” मंजरी ने दिल का गुबार निकाला.
“नहीं, वो आप अलग से समझाएं, पर उस समय उपदेश देने की बजाय कभी अपनी तरफ़ से पहचान देकर देखें.”

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मनोचिकित्सक की बात तब मंजरी के गले नहीं उतरी थी. क्या नहीं दिया है उसने बेटी को? वो सोचती रही थी.
तो क्या देविका और डॉक्टर ठीक कह रही थीं? उसी के कारण, पर कहां और कैसे नोनू को लगने लगा कि मां उसे यूज़लेस समझती है.
पिछले महीने की ही तो बात है, इतने सालों बाद अचानक टपक पड़ी थी देविका. “कैसे ढूंढ़ा मुझे?” उसने ख़ुशी से पूछा था.
“जहां चाह वहां राह!” देविका अपने ज़िंदादिल अंदाज़ में बोली थी. संयोग से उसी दिन निपुणिका की पी. टी. एम. थी और सारी अध्यापिकाओं से उसकी शिकायतें सुनकर हमेशा की तरह मंजरी का मूड ऑफ था.
जितनी देर वह चाय-नाश्ता तैयार करती रही, देविका नोनू के साथ ही खेलती रही. “भई तेरी बेटी मुझे बहुत ही पसंद आई. बहुत ही समझदार और व्यवहार कुशल है.” चाय पीते हुए उसने नोनू की तारीफ़ के पुल बांध दिए.
“तुझ पर गई है इसीलिए तुझे पसंद आई.” न चाहते हुए भी मंजरी के चेहरे और स्वर में कड़वाहट आ गई थी जिसे व्यवहार-कुशल देविका तुरंत समझ गई थी.
“हूं, तो वो तेरी तरह नहीं है और यही तेरी प्रॉब्लम है?”
मंजरी ठीक वैसे ही चुप हो गई थी जैसे कॉलेज के समय में समाधान की तलाश में चुप हो जाया करती थी.
“यार देख बुरा मत मानना.” देविका बड़े प्यार से उसका हाथ अपने हाथों में लेकर बोली थी.
“तू क्या समझती है कि केवल तेरे स्वभाव के कारण तेरा घर और जीवन इतना व्यवस्थित है? नहीं पगली, इसमें तेरे सुलझे हुए और समृद्ध परिवार का भी हाथ है. कभी मेरे यहां आकर देख. तीन कमरों का घर और छः प्राणियों का संयुक्त परिवार. व्यवसाय ऐसे कि किसी के घर आने-जाने का कोई समय नहीं. पर घर वाले बहुत अच्छे स्वभाव के हैं. मैं अगर तेरी तरह व्यवस्थित और अनुशासित स्वभाव की होती तो कभी वहां एडजस्ट नहीं कर सकती थी. पर वो जो ऊपर वाला है न, उसे दुनिया चलाने के लिए हर तरह के इंसानों की ज़रूरत होती है इसीलिए तमाम वैराइटीस बनाता है. तभी देख, मैं न केवल ख़ुश हूं, बल्कि अपना पॉटरी का बिज़नेस भी कर रही हूं. कुछ लोगों को रोज़गार भी दिया है."
“क्या… क्या कर रही है तू?” मंजरी ने सुखद आश्‍चर्य से पूछा.
“जी हां जनाब! और भी राहें हैं ज़माने में. फालतू नहीं हूं मैं.” देविका अपने ज़िंदादिल अंदाज़ में बोली थी. “अरे! ये किसने कहा कि तू फालतू है?” वो अचकचा कर बोली थी.
“कभी-कभी इंसान कुछ न कहकर ज़्यादा कुछ कह जाते हैं, मंजरी. नहीं, नहीं, मैं अपने नहीं, तेरी बेटी के लिए कह रही हूं उसका कच्चा मन है. उस पर बुरा असर पड़ता होगा.”
“तो क्या बच्चों को सर्वोत्कृष्ट बनाने की, अनुशासित करने की कोशिश करना मां का कर्तव्य नहीं है? मैं कहां ग़लत हूं यार? समझ में नहीं आता एक ओर तो सब अध्यापिकाएं उसकी शिकायत करती हैं, दूसरी ओर सब कहते हैं ज़्यादा उपदेश मत दो.” मंजरी खीझ गई थी.
“ओ हो! गीता पढ़ी है न? बच्चे को अच्छा इंसान बनाना मां का कर्तव्य है, वो कर पर तू जैसा चाहेगी उसे ठीक वैसे ही सांचे में ढाल लेगी, ये फल पर नियंत्रण का प्रयत्न है. वो तेरे हाथ में नहीं है. बस ये समझ लेगी तो तनावमुक्त रहेगी.”
खटाक! अचानक खटपट की आवाज़ सुनकर मंजरी घबरा कर उठ बैठी।
“मम्मा, मैंने खाना गरम करके लगा दिया है.” नोनू आकर बोली. खाते समय वो बोली, “पापा का फोन आया था, उन्होंने याद दिलाया कि तुम्हें दवाई देनी है पर मैंने तो सुबह ही तुम्हें दवाई देने का रिमाइंडर सेट कर लिया था. पापा ने कहा है वो मुझे मोस्ट रिस्पॉन्सिबिल गर्ल का अवॉर्ड देंगे.”
“अच्छा! एक अवॉर्ड मैं भी दूंगी.” मंजरी ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा. “आहा!! मज़ा आ गया दो-दो अवॉडर्स! ये तो मेरी ज़िंदगी का बेस्टेस्ट दिन है.” नोनू खाना छोड़कर कुर्सी पर ही खड़ी होकर कूदने लगी.
इतनी ख़ुशी! मंजरी के कानों में डॉक्टर का वाक्य गूंज गया. ‘कभी उसे अपनी तरफ़ से पहचान देकर देखें.’ उपदेश तो साधारण लोगों को सारी दुनिया देती है, लेकिन उनमें भी पहचान और सराहना की भूख होती है. इतनी-सी बात वो आजतक क्यों नहीं समझ पायी थी.
उसका ध्यान गया कि प्रीत ने बेटी को कितने क़ायदे से टैकल किया है. उसे ये क्यों लगता रहा है कि उसके आलावा कोई और बेटी को सुंदर सांचे में ढालने का प्रयास ही नहीं कर रहा? कहीं ये उसकी अतिरिक्त अपेक्षा ही तो नहीं? देविका ठीक कह रही थी क्या? निपुणिका के होने से पहले छः वर्षों में न तो मंजरी का कभी सास के साथ झगड़ा हुआ था न ही पति से, पर अब सास, पति, स्कूल की अध्यापिका सबसे कभी न कभी मंजरी की खटपट हो ही जाती थी. यही नहीं घर में भी सब मंजरी की इस अतिरिक्त देखभाल के कारण निपुणिका को उसकी ही ज़िम्मेदारी समझने लगे थे. सास-ससुर और पति अक्सर लाड़ में उसे सिर पर बैठाते पर उसकी शरारतों पर मंजरी से ऐसे शिकायत करने लगते जैसे वह उनकी कुछ लगती ही न हो.
एक साप्ताह जब बुखार नहीं उतरा तो परीक्षणों से पता चला कि टायफाइड है. मंजरी बहुत ही कमज़ोर हो गई थी. सोमवार की सुबह उसके मन में तनाव था कि निपुणिका कैसे तैयार होगी पर कमज़ोरी के कारण वह उठ न सकी. उसने अधलेटे होकर पलकें मूंद लीं. थोड़ी देर बाद माथे पर कोमल स्पर्श से उसकी आंखें खुलीं तो निपुणिका को सामने तैयार खड़े देखकर आश्‍चर्यजनक मुस्कान आ गई.जो बच्ची अपनी शर्ट का एक बटन तक ख़ुद बंद नहीं करती थी वो एकदम फिट तैयार होकर खड़ी थी. पति निपुणिका को स्कूल बस में बिठाते हुए ऑफिस निकल जाते थे. दोनों तैयार होकर जाने लगे तो मंजरी दरवाज़ा बंद करने उठी. दरवाज़े के बाहर जाकर अचानक निपुणिका एक मिनट, एक मिनट … कहकर भीतर भाग गई. वापस आई तो मंजरी ने पूछा “क्या भूल गई थी बेटा?” “आपके बेड के पास पापा ने मेज पर सब कुछ रख दिया था पर पानी नहीं रखा था. मैंने देखा और सोचा था कि मैं बाद में रख दूंगी. उस समय मैं शू पॉलिश कर रही थी न!” निपुणिका अपनी भोली आवाज़ में बोलकर झटके से निकल गई पर मंजरी के मन में झंझावात छोड़ गई. इतने ध्यान से देखा इतनी छोटी बच्ची ने. स़िर्फ देखा ही नहीं कि पापा ने क्या-क्या रखा है, बल्कि याद भी रखा कि क्या और रखना है. उसकी पलकें भींग गईं. इस बीमारी में मंजरी ने देखा था कि निपुणिका अपने अस्त-व्यस्त अंदाज़ में ही सही, घर का काम करने का भरसक प्रयास कर रही थी. झाड़ू लगाने में, क्रोशिया से कुछ बनाने में और जितना बनाने को मिल जाए उतना खाना बनाने में उसकी विशेष रुचि रही है. ये मंजरी जानती थी. सालों से वो उसे तरह-तरह के कोर्स कराने में प्रयत्नरत रही, पर उसकी नैसर्गिक रुचियों और क्षमताओं की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया था. मंजरी की तबीयत अब ठीक हो गई थी. फाइनल चेकअप कराके हॉस्पिटल से लौटते समय कार में बैठे-बैठे ही उसने ‘मोस्ट केयरिंग डॉटर’ का सर्टिफिकेट बना लिया.
“क्या कर रही हो? बड़ी ख़ुश नज़र आ रही हो?” प्रीत के पूछने पर मंजरी का स्वर भी उसके चेहरे की तरह मुस्कुरा उठा, “आज मैंने एक सच को स्वीकार किया है और इस स्वीकार ने मुझे तनावमुक्त कर दिया है.”
“वो क्या?”
“मनोवैज्ञानिकों ने ठीक ही कहा है. हर व्यक्ति में कोई न कोई विलक्षण प्रतिभा होती है पर ये तो नहीं कहा कि जिन प्रतिभाओं को किसी मंच पर सराहा या पुरस्कृत किया जाता है, उनसे इतर कोई प्रतिभा ही नहीं है. जैसे गुड़हल के पौधे पर गुलाब नहीं उगाए जा सकते वैसे ही हर व्यक्तित्व को किसी कार्य विशेष में निपुण बनाना या ऐसे सांचे में ढालना संभव नहीं है जिसे दुनिया विशिष्ट मानती हो. संपूर्णता की ज़िद्द और मस्तमौलापन इंसान के गुण-अवगुण नहीं, बल्कि स्वभाव हैं इन्हें बदला नहीं जा सकता. हमारी परवरिश में कोई खोट नहीं है. हमारी बेटी एक व्यवहार-कुशल, संवेदनशील और ज़िंदादिल इंसान बन रही है. दुनिया एक दिन उसके व्यक्तित्व के इन्हीं गुणों के कारण उसे सराहेगी और प्यार करेगी.फ़िलहाल उसकी सराहना की भूख को तृप्त करने के लिए हम हैं न?” प्रीत को सर्टिफिकेट दिखाते हुए मंजरी के स्वर में संतोष था.
“ठीक कहती हो तुम. आज दुनिया को ऐसे इंसानों की ज़रूरत भी विशेषज्ञों से ज़्यादा है. कोल्ड ड्रिंक और स्नैक्स ले आता हूं मेरी बेटी को सर्टिफिकेट मिल रहा है, उसे सेलिब्रेट भी तो करना है.” प्रीत हंसकर बोले.
घर पहुंचने पर क्रोशिया का स्ट्रॉल/स्टोल जैसा कुछ और ‘हैप्पी रिकवरी’ का कार्ड देते हुए नोनू रुंआसी होकर बोली, “मम्मा, जैकेट नहीं बनी.”
“थैंक यू, माई वेरी-वेरी स्पेशल बेबी. पहली बार में इतनी सुंदर चीज़ बन गई. अगली बार कोशिश करोगी तो जैकेट भी बन जाएगी.” कहकर ‘मोस्ट केयरिंग डॉटर’ का सर्टिफिकेट देते हुए मंजरी ने बेटी को बांहों में समेट लिया.

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