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कहानी- स्वीट डिश (Short Story- Sweet Dish)
“कोई रिश्ता हमें कितना अच्छा लगेगा या कितना बुरा, वह हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण होगा, यह जानने के लिए ज़रूरी है कि हम खुले और साफ़ दिल से उस रिश्ते को स्वीकारें. जिस दिल में पहले से ही कोई पूर्वाग्रह पल रहा हो, वहां किसी सुमधुर रिश्ते का प्रवेश भला कैसे संभव है?”
“बड़ी नानी आ गई, बड़ी नानी आ गई.” का हल्ला मचते ही कुमुद पल्लू सिर पर लेकर सास का स्वागत करने दरवाज़े पर पहुंच गई. चरण स्पर्श का दौर समाप्त हुआ, तो विमलाजी के मुंह से पहले बोल ये फूटे, “चिंकी आई नहीं अभी तक?”
“उसकी ट्रेन लेट है, देर से आएगी. आप हाथ-मुंह धोकर फ्रेश हो जाइए. सभी आपका खाने पर इंतज़ार कर रहे हैं.” खाने पर भी चिंकी की ही बातें होती रहीं. चिंकी दादी की सबसे छोटी लाडली पोती है, तो निकिता और नीरज की दुलारी छोटी बहन. निकिता के दोनों बच्चे अपनी इकलौती मौसी की शादी की बात को लेकर काफ़ी उत्साहित थे.
“ममा, आपने चिंकी मौसी के लिए मौसाजी तो ढूंढ़ लिया. अब नीरज मामा के लिए मामीजी भी आप ही ढूंढ़ेंगी?”
“हां बहू, बच्चे सही कह रहे हैं. नीरज के लिए भी लड़की खोजकर दोनों भाई-बहन का एक ही मंडप में ब्याह रचा दे. तुझे भी तो अब आराम चाहिए.” विमलाजी ने कुमुद की ओर देखकर दिल की बात कही, तो उसने भी सहमति में गर्दन हिला दी, लेकिन चेहरा उसका गुमसुम ही बना रहा. नीरज खाना खाकर बच्चों को लेकर अपने कमरे में चला गया, तो विमलाजी से रहा नहीं गया.
“क्या बात है? तुम दोनों के चेहरों को देखकर तो लग ही नहीं रहा है कि चिंकी के रिश्ते की बात तय हो गई है.”
“दादी, दरअसल बात यह है कि पवन वैसे तो बहुत अच्छा लड़का है. फ़ोटोग्राफ़, बायोडाटा आदि देखकर दोनों परिवारवालों ने एक-दूसरे को पसंद भी कर लिया है. मैंने चिंकी और पवन को फेसबुक पर मिला भी दिया है, पर अब एक वजह से मुझे और मम्मी को यह रिश्ता खटाई में पड़ता नज़र आ रहा है. पवन संयुक्त परिवार से है. अपने परिवार के साथ इतना घुला-मिला हुआ है कि हमें नहीं लगता कि वह अपनी अलग गृहस्थी बसाएगा और चिंकी को जब यह बात पता चलेगी, तो वह इस शादी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होगी. आप तो जानती ही हैं, वह कितनी बिंदास और मनमौजी है. घर में कोई भी चीज़ आए, सबसे पहले उसे मिलनी चाहिए. यहां तक कि कोई मेहमान भी पहले उससे न मिले, तो उसका मूड उखड़ जाता है.”
“अब वह बच्ची नहीं है, बड़ी हो गई है. नौकरी करने लगी है.” विमलाजी ने टोका.
“और बड़े होने के साथ-साथ उसकी यह आज़ाद ख़यालात की प्रवृत्ति और भी बढ़ गई है दादी. तभी तो मेरे इतना कहने पर भी अलग कमरा लेकर रह रही है.”
“वह तो बेटी, वहां से उसका ऑफ़िस नज़दीक है इसलिए. तू बेकार ही इस बात का बुरा मान रही है.” कुमुद ने बात संभाली.
“जो भी हो मम्मी, मुझे नहीं लगता कि यह बात पता चलने पर चिंकी इस रिश्ते के लिए राज़ी होगी.” निकिता अभी भी आश्वस्त नहीं थी.
“मैं ऊपर बालकनी में जा रही हूं. चिंकी आ जाए, तो वहीं भेज देना.” विमलाजी यकायक उठकर सीढ़ियों की ओर बढ़ गईं, तो मां-बेटी आश्चर्यचकित हो उन्हें जाते देखती रह गईं.
“यह दादी को अचानक क्या हो गया?” निकिता के प्रश्न को अनसुना कर कुमुद गहरी सोच में डूब गई.
“हमें मांजी के सामने इस तरह संयुक्त परिवार के मुद्दे को नहीं उछालना चाहिए था निक्की. तू जानती तो है, तेरी दादी ने पूरा जीवन कितने बड़े परिवार को संभालते हुए गुज़ारा है. पूरे परिवार की धुरी थीं वे. वो तो तेरे पापा और चाचा की अलग-अलग शहरों में नौकरियां लग गईं, जिससे हम अलग-अलग रहने पर मजबूर हो गए.”
“वैसे भी आज के ज़माने में वह सब कैसे मुमकिन है मम्मी?”
“हालात के चलते बिखरना अलग बात है बेटी, लेकिन आधुनिकता और आज़ादी का दंभ भरते हुए अलग हो जाना थोड़ा अलग मुद्दा है. शायद तुम्हारी इन्हीं बातों से तुम्हारी दादी को ठेस लगी और वे उठकर चली गईं.”
“वे अपनी जगह सही हो सकती हैं मम्मी, लेकिन चिंकी को अच्छी तरह से जानते हुए मैं भी अपनी जगह ग़लत नहीं हूं, बल्कि मैं तो ख़ुद चाहती हूं कि चिंकी उस परिवार को अपना ले. मैं न केवल पवन, बल्कि उसके घरवालों से भी मिल चुकी हूं. सभी बहुत अच्छे लोग हैं. समस्या स़िर्फ चिंकी के दिमाग़ में बसे पूर्वाग्रह को तोड़ने की है.”
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“अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? ख़ैर, इस बारे में बाद में सोचेंगे. पहले मैं तेरी दादी को मनाकर आती हूं. वे अभी आईं और अभी हमने उनका मूड ख़राब कर दिया.” कुमुद सीढ़ियां फलांगते तुरंत विमलाजी के पास बालकनी में जा पहुंची.
विमलाजी आरामकुर्सी पर आंखें मूंदें विगत की यादों में खोई थीं. कुमुद की पदचाप से उनकी चेतना लौटी और उन्होंने आंखें खोल दीं. “आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैं क्षमा चाहती हूं. हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं था. मैं और निक्की तो स्वयं चाहते हैं कि चिंकी उस परिवार को अपना ले, पर आप तो चिंकी को जानती हैं न. उसे कौन समझाएगा?” कुमुद के चेहरे पर चिंता की लकीरें और भी गहरी हो उठी थीं.
“चिंकी आ जाए और तुम सबसे मिल ले, तो उसे मेरे पास भेज देना. मैं यहीं उसका इंतज़ार कर रही हूं.” अपनी बात समाप्त कर विमलाजी ने फिर से सिर टिकाकर आंखें मूंद लीं. सुखद अतीत के झरोखे से उन्हें बाहर निकाला दो ख़ूबसूरत बांहों ने, जिन्होंने न जाने कब चुपके से आकर उन्हें अपने आगोश में ले लिया.
“आ गई तू?” विमलाजी ने चिंकी को पीछे से खींचकर सामने रखी कुर्सी पर बिठा दिया और गौर से निहारने लगीं, तो चिंकी झेंप गई.
“ऐसे क्या देख रही हैं दादी?”
“देख रही हूं कल की नन्हीं-सी गुड़िया आज दुल्हन बनने जा रही है.”
“अभी वक़्त है दादी. कहीं छुपकर बैठे उस हमसफ़र को खोजकर लाने में अभी और वक़्त लगेगा.” चिंकी की बातों से विमलाजी को अंदाज़ा हो गया कि चिंकी को पवन के परिवार के बारे में बताया जा चुका है और इस बात को लेकर उसने अपनी सोच भी बदल ली है. क्या हो गया है आज की पीढ़ी को? कोई समझौता करने को तैयार ही नहीं. हर चीज़ उन्हें एकदम अपने मन-मुताबिक चाहिए. पल में सिलेक्ट,
पल में रिजेक्ट... मानो शादी न हुई गुड्डे-गुड़िया का खेल हो गया और कोई दुख या अफ़सोस भी नहीं.
“चिंकी, ले मैं तेरी थाली यहीं ले आई हूं. आराम से दादी से गप्पे मारते हुए खाना खा.” कुमुद ने चिंकी को थाली पकड़ाई, तो अपनी मनपसंद स्वीट डिश रसगुल्ला देखकर चिंकी चहक उठी. चिंकी खाना खाती रही और विमलाजी उससे इधर-उधर की, ऑफ़िस, कैंटीन, सहकर्मियों आदि की बातें करती रहीं.
“यह पालकवाली सब्ज़ी क्यों नहीं खा रही तू?”
“उं... यह मुझे पसंद नहीं है दादी.” चिंकी ने मुंह बनाते हुए कहा.
“तो क्या हुआ? बहुत पौष्टिक होता है पालक, फटाफट खा ले और यह रसगुल्ला तो तुझे बहुत पसंद है न, यह क्यों नहीं खा रही?”
“हूं... इसे तो मैंने अंत में खाने के लिए बचाकर रखा है. पहले फटाफट सारा खाना ख़त्म कर दूं, फिर लास्ट में मज़े ले-लेकर अपनी मनपसंद स्वीट डिश खाऊंगी.” मस्ती से गर्दन हिलाते हुए चिंकी ने कहा, तो उसके भोलेपन पर विमलाजी को ढेर सारा प्यार उमड़ आया.
“तेरी इस स्वीट डिश वाली बात से मुझे तेरे दादाजी की याद आ गई.”
“हाउ स्वीट एंड रोमांटिक दादी! दादाजी को भी रसगुल्ले पसंद थे क्या?” चिंकी थोड़ा पास खिसक आई. “बताओ न दादी.”
“अरे नहीं, वो बात नहीं है. तब हमारा संयुक्त परिवार था. एक-दूसरे की पसंद-नापसंद जानने-पूछने का होश ही कहां था? हर वक़्त एक संकोच घेरे रहता था. रोमांस की तो सोच भी नहीं सकते थे.”
“वही तो दादी. ऐसे में प्यार पनपना तो दूर रहा, जो है वो भी ख़त्म हो जाता है.” चिंकी थोड़ा जोश में आ गई थी, लेकिन दादी के अगले ही वाक्य ने उसके उत्साह पर पानी फेर दिया.
“बस, यहीं पर आज की पीढ़ी मात खा जाती है. खुल्लम-खुल्ला छेड़छाड़, आई लव यू कहना, किस करना. तुम लोग इन्हीं सब को प्यार समझते हो. प्यार की गहराई से तो तुम लोगों का दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं है... वैसे तुम्हारी भी ग़लती नहीं है. मैं भी पहले ऐसा ही कुछ समझती थी. तुम्हारे दादाजी जब ऑफ़िस से घर लौटते, तो बरामदे में ही बैठे अपने माता-पिता से पहले बतियाते. तब तक बड़े भाईसाहब के बच्चे ‘चाचा-चाचा’ करते उन्हें घेर लेते. वे कभी बच्चों को चॉकलेट-टॉफी पकड़ाते, तो कभी नन्हें मुन्नू को गोद में लेकर दुलारते, तब तक ननदजी अपने कॉलेज की बात बताने लगतीं. सबसे बतियाते हुए अंत में वे मुझ तक पहुंचते, तब तक मैं अपने कमरे में ग़ुस्से से गुड़मुड़ होती रहती. वे मुझसे प्यार भरी बातें करना चाहते, तो मैं मुंह फेर लेती या हां-हूं करके टरकाने लगती. वे मेरी मनःस्थिति समझ जाते.”
“नाराज़ हो मुझसे? मैं तुम्हारी नाराज़गी समझ सकता हूं. पर क्या करूं? सब के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते-निभाते इतना वक़्त लग ही जाता है.”
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मैं फिर भी मुंह फुलाए रहती.
“मैं तुम्हारा ग़ुस्सा समझता हूं. तुम सोचती होगी सबके प्रति ज़िम्मेदारी समझता हूं और तुम्हारे प्रति नहीं. सबके लिए वक़्त निकाल सकता हूं, तुम्हारे लिए नहीं, पर सच्चाई कुछ और है. मेरी ज़िंदगी रूपी थाली में तुम्हारा स्थान स्वीट डिश की तरह है. जल्दी-जल्दी पूरा खाना ख़त्म कर मैं अंत में आराम से इस स्वीट डिश का पूरा लुत्फ़ लेना चाहता हूं. तुम्हारे लिए मुझे वक़्त निकालने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मेरा पूरा वक़्त तुम्हारा है. उसमें से दूसरे कामों के लिए, दूसरे लोगों के लिए मुझे वक़्त निकालना होता है.”
“मैं अवाक् उन्हें देखती रह गई थी. मैं उनके लिए इतनी महत्वपूर्ण हूं, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी, तब से मुझे उनसे कभी कोई शिकायत नहीं रही. उनके अंत समय तक मैं उनके लिए स्वीट डिश ही बनी रही.” विमलाजी थोड़ी भावुक होने लगीं, तो चिंकी ने हास-परिहास से वातावरण को हल्का करना चाहा.
“समझ नहीं आता आपको शुगर की बीमारी कैसे हो गई? जबकि आप तो ख़ुद स्वीट डिश हैं.”
विमलाजी कुछ संभल चुकी थीं और उन्हें अपना मक़सद भी याद आ गया था. “चिंकी, यह ज़िंदगी बड़ी अजीब है. कोई भी इंसान सारी ज़िंदगी केवल स्वीट डिश खाकर नहीं गुज़ार सकता. शरीर के लिए आवश्यक सारे पोषक तत्व पाने के लिए उसे सब कुछ खाना पड़ता है. पसंद हो, चाहे न हो. जैसे अभी तुम्हें पालक की सब्ज़ी ज़बरन गले के नीचे उतारनी पड़ी. रिश्तों की माया भी बहुत कुछ ऐसी ही है. पसंद न होते हुए भी कुछ रिश्तों को निभाना हमारी मजबूरी बन जाती है. यह मजबूरी धीरे-धीरे आदत बनती चली जाती है, फिर हमें इसमें भी आनंद आने लगता है, जैसा कि मेरे संग हुआ. स्वीट डिश यानी तुम्हारे दादाजी का साथ पाने के लालच में मैं सारे रिश्ते बख़ूबी निभाती चली गई और धीरे-धीरे मुझे उन रिश्तों से भी प्यार होने लगा. मैं सबकी और सब मेरी ज़रूरत बनते चले गए.
मुझे एहसास होने लगा कि यदि मन में भाव अच्छे नहीं हैं, तो पकवान भी निरे बेस्वाद लगेंगे. यदि मुंह में पहले से ही कड़वाहट घुली हो, तो उसमें कितना भी स्वादिष्ट व्यंजन रख दो, उसका स्वाद कड़वा ही आएगा. कोई रिश्ता हमें कितना अच्छा लगेगा या कितना बुरा, वह हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण होगा, यह जानने के लिए ज़रूरी है कि हम खुले और साफ़ दिल से उस रिश्ते को स्वीकारें. जिस दिल में पहले से ही कोई पूर्वाग्रह पल रहा हो, वहां किसी सुमधुर रिश्ते का प्रवेश भला कैसे संभव है?” चिंकी के खाना खाते हाथ यकायक थम से गए. वह गहन सोच की मुद्रा में आ गई थी. विमलाजी ख़ुश थीं कि तीर निशाने पर लग गया था.
“अरे! तुम खाना खाते-खाते रुक क्यों गई? यह रसगुल्ला तो लो, जो तुम्हें इतना पसंद है और जिसके लालच में तुमने पूरा खाना ख़त्म किया है.”
“हूं... हां खाती हूं.” कहते हुए चिंकी ने गप से पूरा रसगुल्ला मुंह में रख लिया. रसगुल्ले के मीठे-मीठे स्वाद ने उसे झूमने पर मजबूर कर दिया. “वाउ! मज़ा आ गया. पूरा खाना खाने के बाद स्वीट डिश खाने का अपना ही आनंद है. वैसे दादी, आप मुझे जो समझाना चाह रही हैं, मैं बख़ूबी समझ रही हूं. दादाजी का प्यार पाने के लालच में आप सारे रिश्ते निभाती चली गईं और प्यार का असली आनंद आपको इसी में मिला.” चिंकी अब वाकई गंभीर हो उठी थी, क्योंकि यह उसकी ज़िंदगी से जुड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा था. पवन को वह पसंद करने लगी थी, लेकिन उसे पाने के लिए उसके पूरे परिवार को अपनाना होगा, यह विचार उसे परेशानी में डाल रहा था और इसीलिए वह अभी भी थोड़ा झिझक रही थी.
“मैं तुम्हें किसी भुलावे में नहीं रखना चाहती चिंकी. इसलिए झूठ नहीं बोलूंगी. यह राह इतनी आसान नहीं है. कई अप्रिय प्रसंग ऐसे आए, जिन्हें कड़वी दवा समझकर मुझे एक सांस में हलक से नीचे उतार लेना पड़ा, यह सोचकर कि चलो इससे जल्दी स्वस्थ हो जाऊंगी और फिर से एक ख़ुशहाल जीवन जीने लगूंगी और ऐसा हुआ भी.”
“कितना कुछ सहा है दादी आपने और कितना कुछ किया है आपने अपने परिवार को एक बनाए रखने के लिए. इतने परिश्रम का फल तो वैसे भी मीठा होना ही था और एक मैं हूं बिना कुछ किए ही मीठे फल पा लेना चाहती हूं. ऐसे में भला उसमें वह स्वाद कहां से आएगा?” चिंकी मुस्कुरा रही थी और उसकी मुस्कुराहट में उसके इरादों की चमक साफ़ नज़र आ रही थी.
“चिंकी, तुमने खाना ख़त्म कर लिया? देखो, मैं तुम्हारे लिए और रसगुल्ला
लाई हूं.” कहते हुए कुमुद ने चिंकी की प्लेट में एक और रसगुल्ला रख दिया. “आप भी एक लीजिए न मांजी?” कुमुद ने आग्रह किया.
“मैं मीठा कहां लेती हूं बहू?.. पर हां, चिंकी के राज़ी हो जाने की ख़ुशी में तेरा मुंह मीठा करा देती हूं.” कहते हुए विमलाजी ने कुमुद के मुंह में एक रसगुल्ला ठूंस ही दिया.
संगीता माथुर