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कहानी- तलाश (Short Story- Talaash)

आंखों में उमड़ते आंसु‌ओं को हथेली से पोंछते हुए सोचा, सभी तो तलाश में लगे हैं. किससे क्या कहे? तेल और कचौड़ी की गंध कमरे तक में आने लगी थी रसोई से उड़ते हुए. तिक्तता से उसने सोचा, अब प्लांटस की भी विदाई नहीं करनी. ना ही गर्म कपड़ों को धूप दिखानी है.

फ्लैट की लाइफ में बड़ी सुरक्षा है, झंझट नहीं, पर वह किससे कहे कि उसे कितना झंझट हो गया है और वह भी अपना ही पाला. किसने कहा था इतने सारे झाड़-झंखाड़ लगा लेने को. अंजली ने प्लांट की कड़ी परती धरती को गोड़ा, मिट्टी इधर, उत्तर उल्टी-पल्टी गमला कोने में सरका कर उठ खड़ी हुई. अभी कितना काम बाकी है. सभी प्लांट्स एक-एक कर विदा करने हैं. भले ही पंद्रह दिन का ही सही, पर बिना हवा-पानी के बंद कमरे में मर जाएंगे.

दो-तीन फ्रेंडस् से पूछ लिया है. सबने हां कह दी है- पिछली बार भी उन्होंने ही संभाले थे, अब आदत हो गई है उन्हें. बस उनके घर में जगह देख कर ही भिजवाने हैं. मिसेज सुब्रह्मणियम के घर में छोटे ही रह पाएंगे. सारा घर उनके अपने सामानों से ही अटा पड़ा है. फिर उनके अपने भी तो कम नहीं. यह दो बड़े मिसेज तनवीर की बालकनी में रह लेंगे और यह तीनों लटकने वाले मिसेज चौधरी के किचन की खूंटी पर शोभायमान होंगे कुछ दिन को.

बस दो दिन पहले से यह भेजने का काम शुरू करना है, तब तक तो उन्हें खाद-खुराक देनी है, उनसे तो निबटूं. सिंक में हाथ धोते हुए उसने हिसाब लगाया. बस दस दिन रह गए हैं जाने को, तभी कॉलबेल बज उठी. खट से काग़ज़ गिरने की आवाज़ आई. बाथरूम के दरवाज़े से झांक कर उसने मेन डोर की ओर देखा. पोस्टमैन था, बिना घंटी बजाए भाग जाता था चुपके से सरका कर, अंजली ने टोक-टोक कर आदत डलवाई. बीसियों बार घंटों बाद उधर जानें पर पत्रों का आना पता लगता था. बस अब हल्के से घंटी को प्रेस कर पत्र सरका वह नीचे उतरता चला जाता है. काफ़ी मोटा पुलिंदा आ गया है पत्रों का. आंचल से हाथ पोंछती हुई वह उठा लाई. कितनी डाक तो मेरी फ़ालतू होती है. शेयर और फार्मों के लंबे-लंबे लिफ़ाफ़े, न काम के न काज के, ना रद्दी में बिकने के, बस जगह ही घेर कर रखते हैं.

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एक बार संदीप ने शेयर मार्केट में जुआ खेला था. लोगों के वारे-न्यारे हो जाते हैं, पर संदीप की उलट हो गई, सब लगाया डूब गया. वह तो कहों बस दस-पंद्रह पर ही गुज़री, पर बस सीख मिल गई. अपनी तो मेहनत-मजूरी की रोटी भली. पर दस के पंद्रह के फेर में कितने शेयर दलालों से वास्ता पड़ा कि वे जब देखो तब ललचाते रहते हैं. लो यह चि‌ट्ठी आई है काम की नीले रंग का इनलैंड लिफ़ाफ़ों की भीड़ में अलग चमक रहा था. उलट-पलट कर देखा, छोटी दीदीजी की ही राइटिंग है. सुधा दीदी बहुत प्यार करती है इनसे, बड़ी जो ठहरीं. एक सांस में पत्र पढ़ गई.

अब लो यह क्या? आंख उठा कर घड़ी देखी हां, अभी संदीप अपने ऑफिस में ही होंगे. दो क्षण सोचती रही आ जाएं घर, तभी कहूं- नहीं देर हो जाएगी. अभी कह दूं? पूछ लें तो आज की ही डाक से जवाब निकल जाएगा. डायल घुमा कर उसने संदीप का नंबर मिलाया. ऑपरेटर संदीप के रूम को खटखटाती रही और अंजली की झल्लाहट सिर उठाने लगी. कोई ज़रूरी है. जब भी वह कोई प्रोग्राम बनाए तभी रोड़े ज़रूर आएंगे. पिछले पत्र में लिख चुकी थी कि बाबूजी की तबीयत यूं ही ख़राब रहती है और इस बार बच्चों की छुट्टियों में उधर उसका जाने का मन है, फिर भी उन्हें यही वक़्त मिलता है. साल में एक बार ही तो जा पाती है. उसका एक ही तो भाई है, सात साल पहले शादी हुई थी. प्यारी-सी दुल्हन है उसकी. सभी निहाल हो उसका लाड़चाव करते हैं. और उसने भी दो साल पहले मां के जाने के बाद बड़े करीने से संभाल लिया है. राखी पर बुला रही थी, पर संजू की परीक्षा थी तिमाही, मन मारकर रह गई. अब जाकर हिसाब बैठा है क्रिसमस की लंबी छुट्टियों में. १५ दिन तो घर की इस चकचक, भागादौड़ी से मुक्ति मिलेगी. जी भर कर बाबूजी का प्यार पाएगी. बदन के रोएं-रोएं को सुगबुगाती जाड़ों की अलस दोपहरी की धूप में आंगन में बैठ कर मज़े से ताजी-ताजी अलाव से भुनी मूंगफली तोड़ते खाती फिरेगी. कितना मां का रहना वहां अभी भी बना हुआ है. लगता है अभी मां की आवाज़ पड़ी, अभी वे इस कमरे से निकली उधर गई. सारे साल में इस एहसास को फिर जगाने की यह कितनी आतुरता से प्रतीक्षा कर रही है.

भाभी ने मां की गृहस्थी मज़े से संभाल ली है. बाबूजी अभी हैं बालों पर स्नेह से थपथपाता उनका लाडभरा स्पर्श, बचपन के वे दिन कितने जगा जाते हैं, कितनी याद कर रही थी. घर जल्दी-जल्दी हो आना, जब तक वे बने हैं उनका प्यार पा लेना फिर... नहीं... नहीं... इतना भी क्या कल्पना के घोड़े दौडाना, लगाम कसी भई. और सच में लगाम कसती हुई ऑपरेटर की आवाज़ गूंजी.

"मिसेज सिन्हा, साहब से बात कीजिए."

एक क्षण के अंतराल में खट हुआ और संदीप की आवाज़ आई, "हेलो अंजी! क्या‌ बात है, सब ठीक है? क्या कुछ ख़ास बात?"

एक क्षण रूक सांस लेकर अंजली ने कहा, "सुधा दीदीजी की चिट्ठी आई है. वह सब छुट्टियों में इधर आ रहे हैं." दो क्षण सन्नाटा रहा.

"तुमने उन्हें पहले नहीं लिखा था अपना प्रोग्राम?"

"लिखा तो था पर वे भुलक्कड़ जो ठहरीं, पत्र पढ़कर याद रखें तब न!"

"फिर अब?"

"अब क्या?" संदीप पर ही सारी ज़िम्मेदारी डालते हुए अंजली ने पूछा, दो क्षण मौन सधा रहा.

"अरे भाई यही कि तुम जा रही हो तो उन्हें मना करके लिख दो. तुम्हारा प्रोग्राम तो कब का पक्का है. टिकट आ चुके हैं, सब तैयारी हो गई है."

"अच्छा ठीक है."

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"अभी पत्र लिख दो. कहो तो तार दे दूं?"

"नहीं, तार ठीक नहीं रहेगा एक तो पता नहीं पहुंचे भी कि नहीं. फिर पता नहीं बुरा न मान जाएं जीजाजी. अभी पत्र लिख कर सब बात समझाकर लिख देती हूं.'

"ठीक है, अभी लिख कर मैन पोस्ट ऑफिस में डाल दो. अर्जेंट कर दो, जल्दी मिल जाएगा."

"अच्छा अभी जाती हूं."

फोन रख कर अंजली ने आचल से मुंह पोंछा. अब यह एक काम और बढ़ा, खैर ज़रूरी है. बाकी काम तो कभी भी पीछे होते रहेंगे, लौटते में बाज़ार से चार चीज़ें भी लेती आएगी. बस में कोने की सीट मिल गई. ठंडी-ठंडी हवा बदन को तरोताजा कर गई .कितनी उमस है बंबई में अब जाकर वे सर्दी के जाने-पहचाने दिन मिलेंगे घर पर. लिहाफ ओड़ कर आंच तापने में क्या मज़ा है, यह बात यहां बबईवाले क्या जानें. कैसे कोई भूल सकता है बचपन के गुज़रे मीठे दिन, शायद पहले कच्ची उम्र में ब्याह हो जाने पर ससुराल में ही होश आता था तो मायके की याद जल्दी भूल जाती होगी, पर बीस-बाइस साल जिस आंगन में खेला-कूदा, पढ़ा, उस आंगन का मोह इतनी जल्दी कैसे छूट सकता है भला. वह तो रच-बस गया है शरीर में.

मन में पति का आंगन भी मीठा लगता है, देवर-ननद भी अपने लगते हैं, पर अपने घर-आंगन की बात और ही ठहरी. आंगन के कोने में कच्चे में उसके हाथ का लगाया छोटा-सा पौधा कितना बड़ा हो गया है. जब भी जाती है, पुलक जाती है उसे बढ़ता देख कर और बच्चे हंसते हैं, "मम्मी का पहला बेटा' बताओ तो उसे कैसे इतनी देर तक छोड़ कर रहे. मन तो वहीं बार-बार दौड़ जाता है. इनका भी तो मन यहीं ज़्यादा रमता है. घर में बस सुधा दीदीजी ही एक हमजोली सी हैं, बाकी तो सभी बहुत ज़्यादा बड़े हैं. उन सबके सामने तो ये चुप बैठे सिर हिलाते रहते हैं- "जी भाई साहब, जी दीदीजी."

हम साथी तो अब जाकर इन्हें नितिन में मिला है. साले सलहज की खातिर में हो-हो हंसते हुए झटपट दिन हवा हो जाते हैं. चलते वक़्त पता लगता है, मायके का मोह सब में कितना कशिश वाला होता है. इस प्रोग्राम को बनाने में इनका भी कितना ज़ोर रहा था. अब सुधा दीदीजी को भी अच्छी सूझी और भी तो छुट्टियां आई-गईं, उनमें क्यों नहीं आ गईं? बस लंबी छट्टिट्टयों में हम कुछ प्रोग्राम बनाएंगे तभी उनका भी बनेगा.

चिट्ठी पोस्ट कर सब सामान ख़रीदते हुए वह खोया लेते लेते रूकी. चार दिन बाद लेने की सोची थी, पर पता नहीं तब इधर आना हो पाएगा कि नहीं. बनानी तो है ही, चार दिन पहले से सही ले ही डालें. सोचकर उसने खोया और मैदा ले लिए. भइया को उसकी हाथ की बनी गुझिया कितनी पसंद है. पिछले साल बार-बार कह रहा था. दिवाली पर जब गई थी कि मां की बनाई गुझिया याद आ रही है. ना सही दिवाली, क्यों यों ही नहीं खाई जा सकती. भला दिवाली, होली पर ही गुझिया बने ऐसा तो कोई क़ानून नहीं. कल नहीं तो परसों बना लेंगे. कई‌ काम मुंह फैलायें पड़े थे और वह उनमें जुट गई. पंद्रह दिन को ही जाना है, पर वहां इतनी तेज सर्दी और यहां नाम को भी नहीं. गर्म कपड़ों को धूप दिखानी है, सूट और शॉल को ड्राइक्लीन कराना है. एक काम है क्या? बीच-बीच में विचार सिर उठा लेता दीदीजी को वह पत्र तो मिल गया होगा न? डाक का भी कुछ भरोसा नहीं. सब तरह से टिकट लगा अर्जेंट लिख कर पोस्ट में डाला है. फोन की सुविधा है नहीं उनके यहां, नहीं तो झटपट तै हो जाता सब कुछ. फोन तो नितिन के भी नहीं है, पर बगल में सुविधा तो है.

नितिन को खस्ता कचौड़ी कितनी पसंद है उसके हाथ की. सफ़र के लिए थोडी मठरी और खस्ता बनानी है बस. उल्टे-सीधे तेलों से बनी कच्ची अधपकी रेल्वे स्टेशन से लेकर वह बच्चों को नहीं देती यह सब चीज़ें. ज़्यादा बना लेगी, मैदा अलग रख कर वह उड़द की पि‌ट्ठी भूनने लगी. चार दिन रह गए हैं बस. ज़रूरी कपड़े ड्राइक्लीन होकर आ गए हैं. बस अब सूटकेस लगाने है- परसों सब प्लांट विदा कर देगी. अच्छा है उनका हवा-पानी भी दूसरा सा हो जाएगा, सोचकर वह मन में मुस्कुरा दी. तभी फोन घनघना उठा.

आंच धीमी कर हाथ पोंछते हुए उसने रिसीवर उठाया.

फोन नितिन का था. "हेलो दीदी कैसी हो?"

"सब ठीक है नितिन! तुम सब कैसे हो? फोन क्यों किया. बाबूजी ठीक हैं न?" नितिन फोन ऐसे ही नहीं करता. जी धड़क उठा उसकी आवाज़ सुनकर. जब अम्मा की बीमारी के बारे में उसका फोन आया था, तब से फोन पर नितिन की आवाज़ से डर सा लगने लगा है. दिल घबरा उठता है.

"हां दीदी, बाबूजी बिल्कुल ठीक हैं. तुम्हें और सोनू, मोन व जीजाजी को प्यार और आशीर्वाद दे रहे है."

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"थैंक गॉड." राहत की सांस अंजली के भीतर तक गई शायद प्रोग्राम का और पक्कापन जानने को ही किया हो, पगला कहीं का. दीदी के आंचल में बंधा पहले हरदम कैसा सदा संग साथ रहता था. लगता है अब की चरम में ऊपर हो गए मिले, तो उतावला हो उठा है, "तो बात क्या है? कछ लाना है इधर से ख़ास?"

एक क्षण बाद नितिन का स्वर गूंजा, "दीदी एक मुश्किल आ गई है." कैसे कहे के पशोपेश में घिरा उसका स्वर एक क्षण फिर ठिठका, फिर एकदम जल्दी-जल्दी बतला गया.

"दीदी मंजू के बड़े भैया के बेटे का जन्मदिन २३ तारीख़ को है. वे लोग तभी उसका मुंडन भी रख रहे हैं, सो बहुत बुला रहे हैं. वर्षगांठ तो हर साल आती है, पर मुंडन तो नहीं होता. बहुत आग्रह कर रहे हैं. हो आए हम लोग." सन्नाटा. गहरा खिंच गया. दीदी है भी कि नहीं लाइन पर, "हेलो दीदी, हेलो..."

अंजली हिसाब लगा रही थी. २३ तारीख़ बीच छुट्टियों के दिन. जब तक वह पहुंचेगी, नितिन और मंजू जा चुकेंगे. फिर इतनी दूर जाकर वे कौन सा जल्दी लौट सकेंगे. मायके जाकर लौटना क्या इतना आसान होता है.

"हैलो दीदी..."

"हां नितिन, सोच रही थी यहां तो तैयारी काफ़ी कर चुकी थी. ख़ैर तुम अपना प्रोग्राम रखो, मुंडन तो हर साल नहीं होते. सब को प्यार कहना और बाबूजी को प्रणाम." और उसने खटाक से फोन रख दिया. आंखों में उमड़ते आंसु‌ओं को हथेली से पोंछते हुए सोचा, सभी तो तलाश में लगे हैं. किससे क्या कहे? तेल और कचौड़ी की गंध कमरे तक में आने लगी थी रसोई से उड़ते हुए. तिक्तता से उसने सोचा, अब प्लांटस की भी विदाई नहीं करनी. ना ही गर्म कपड़ों को धूप दिखानी है. सूटकेसों में बंद उन्हें वहीं सीलने दो.

- उषा भटनागर

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