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कहानी- तलाक़ की रेखा (Short Story- Talak Ki Rekha)

मैंने बत्ती जलाने का प्रयत्न भी नहीं किया, लेकिन यह घर है कि अपनी बातें बंद नहीं करता. इसकी दीवारें ज़ोरदार शब्दों में बोलतीं, तो मैं उतने ही ज़ोरदार शब्दों में उत्तर देता, पर इसकी दीवारें तो केवल धीमें स्वरों में फुसफुसाती हैं.

तलाक़ की बात आज पूरी तय हो चुकी थी. प्रातः ही दोनों बच्चों को मसूरी के स्कूल में भेज देना है. वह दोनों ख़ूब ख़ुश हैं कि प्रातः ही मसूरी जा रहे है, जहां उनके इतने सारे मित्र पहले ही चले गए हैं. उन बेचारों को क्या पता कि उन्हें मसूरी भेजने के निर्णय के साथ ही उनके माता-पिता भी अलग हो रहे है. उनका यह घर हमेशा के लिए छूट रहा है.
इस समय पत्नी भी ऊपर के कमरे में नहीं है. वह शायद नीचे कहीं अपना कुछ सामान ठीक कर रही होगी. सब सोच-विचार कर ही हम दोनों ने यह फ़ैसला किया है. दोनों बच्चे मसूरी में पढ़ेंगे और ख़र्च मैं भेजता रहूंगा. छुट्टियों में वे आधा समय मेरे पास रहेंगे और आधा समय मां के पास.
हम दोनों प्रातः ही घर छोड़ देंगे. मैं तो चला जाऊंगा विनय नगर में एक मित्र के घर, पेइंग गेस्ट की तरह और पत्नी चली जाएगी अपने स्कूल के क्वार्टर में, जहां वह साथ ही होस्टल की मेट्न का कार्य संभाल सके.
पत्नी को भी मैं आर्थिक सहायता देने का इच्छुक था, पर उसके स्वाभिमान को चोट पहुंचती. वैसे मेट्रन एवं अध्यापिका के नाते उसे इतना वेतन मिल जाता है, जो उसके लिए काफ़ी है. आज की रात इस छत के नीचे हमारे परिवार की अंतिम रात थी. मैं इस घर को रख सकता था, पर इसके साथ विवाहित जीवन के ग्यारह वर्षों की इतनी स्मृतियां जुड़ी हुई हैं कि इसे छोड़ देने का निर्णय करना होगा.
हम पति-पत्नी दोनों कोई छोटे बच्चे नहीं हैं और न ही भावुकतावश अलग होने का निश्चय किया है. तलाक़ की बात पहले भी एक-दो बार उठी. हम दोनों ने इन पहलुओं पर विचार किया है. एक ही टूटे हुए शीशे में मुंह देखते रहने की बजाय टुकड़ों में सूरत देखते रहना कम कष्टदायक है. पर वर्षों के साथ की बात याद करके हम अलग होने का साहस नहीं कर पाए. इस बार हमने पहले ही तय कर लिया था कि भावुकता के वश में होकर नहीं विचारेंगे. जब ऐसी बातें उठेंगी, यही सोचेंगे कि वह दिन कितने अच्छे थे, पर अब नहीं निभती है, तो ज़बरदस्ती किसी मुर्दे को घसीटने से क्या लाभ?

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दोनों एक-दूसरे से बेइंतहा प्रेम करते थे. लेकिन जिस तरह आईना पुराना होने पर धुंधला सा हो जाता है, उसी तरह शादी के ग्यारह वर्षों ने हमारे प्रेम के आईने को धुंधला कर दिया था. पहले कभी दो-चार महीने में आपस में झगड़ा हो
जाता था, तो एक-दूसरे से रूठ कर दोनों ही खाना छोड़ देते थे. लेकिन कभी हमारे झगड़ों से रात ख़राब नहीं होती थी. रात को हम अलग-अलग तरफ़ मुंह करके लेटते और अंत में मुझे या रेखा को हार मानकर एक-दूसरे के पास आ जाना पड़ता. लड़ाई के बाद यह संधि का हर क्षण इतना मज़ेदार होता था कि कभी-कभी उसका आनंद लेने के लिए रेखा से झगड़ा मोल लेने का जी चाहता था.
लेकिन फिर झगड़े जल्दी-जल्दी होने लगे. कभी मैंने साग-तरकारी में नमक ज़्यादा होने पर रेखा को जली-कटी सुना दी, तो कभी रेखा ने बाज़ार से कोई चीज़ ख़रीद कर न लाने पर मुझे आड़े हाथों लिया.
जब से दो जुड़वां बच्चे हुए थे, रेखा उनकी देखभाल मुझसे ज़्यादा करने लगी थी. कुछ दिन तो मैं यह सोच कर चुप रहा कि छोटे बच्चे हैं, उनको मां की देखभाल की पूरी-पूरी आवश्यकता है. लेकिन जब बच्चे बड़े होकर स्कूल जाने लगे, तब रेखा के प्रेम में वह पहले जैसी बात नहीं पाई. मुझे ऐसा लगा, रेखा का वह पहला प्रेम बनावटी था. शायद शादी उसने मुझसे सिर्फ़ संतानोत्पत्ति के लिए ही की थी या फिर मेरा उसका प्रेम गृहस्थी का बोझ संभाल नहीं सका था. कारण कुछ भी हो, आज हमने फ़ैसला कर लिया है कि अलग-अलग हो जाने में ही हमारी भलाई है.
ऐसा लगता है, अगर हम ज़्यादा दिनों साथ रहे, तो किसी दिन हमारा कोई भी मामूली झगड़ा बढ़ कर बड़ा भयंकर रूप धारण कर लेगा और उसी वक़्त हमें मनमुटाव के कारण शत्रुओं की तरह एक-दूसरे से अलग होना पड़ेगा. इससे कहीं अच्छा है कि हम दोस्तों की तरह राजी-ख़ुशी एक-दूसरे से अलग हो रहे हैं.
मैं कमरे में बैठा सोच रहा हूं और अंधेरा बढ़ रहा. मैंने बत्ती जलाने का प्रयत्न भी नहीं किया, लेकिन यह घर है कि अपनी बातें बंद नहीं करता. इसकी दीवारें ज़ोरदार शब्दों में बोलतीं, तो मैं उतने ही ज़ोरदार शब्दों में उत्तर देता, पर इसकी दीवारें तो केवल धीमे स्वरों में फुसफुसाती हैं.
मेरा मन कहता है कि घर तो केवल बेजान ईंटों और लकड़ी का एक भवन है, पर तब भी मकान ख़ामोश नहीं होता. मैं उठ कर चहलकदमी आरंभ कर देता हूं, शायद फुसफुसाहट बंद हो जाए. पर कमरे में मेरा और पत्नी रेखा की हंसी का स्वर गूंजता है. वैसा ही जैसा हमारे जुड़वां बच्चे होने पर उसका नाम सोचते-सोचते हंस पड़ने पर गूंजा था. मैं लपक कर दूसरे कमरे में चला जाता हूं. यहां चारपाई पर नन्हें बच्चे को हंसी का स्वर गूंज रहा है. उधर मुड़ता हूं, तो मेरी कुसी, जिस पर बैठकर न जाने मैंने पुस्तकों द्वारा किन-किन नगरों की सैर की है, कैसे-कैसे पात्रों के दुख-सुख में हिस्सा बंटाया है…

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यह क्या बेवकूफ़ी है, मेरा मन मुझको समझाता है, यह केवल एक घर है, बेजान ईंटों और लकड़ी का घर. यह कोई स्मृतियों का संग्रहालय नहीं, लेकिन घर भी मानो तो खिड़कियां मुझे यूं देखती हैं मानो, घर को आंखें हो.
मेरी बेवफ़ाई को ग्लानि एवं क्रोध से देख रही हैं. फूलों की सुगंध से कमरा महक उठा है, पर देखता हूं अपने नित्य के स्थान पर फूलों के गमले में मुरझाए हुए फूल झूल रहे हैं. इस कमरे में बैठ कर न जाने कितने गीत गुनगुनाए हैं. कभी बच्चो को बहलाने के लिए, कभी मेरी फ़रमाइशों को पूरा करने के लिए. क्या उनका संगीत इन दीवारों का रंग बदल कर उसके नीचे बंद किया जा सकता है? घर का क्या दोष? हम चारों की प्रतिदिन की बातें, एक-दूसरे को प्यार, क्रोध, एक साथ सुख और एक साथ तय की हुई मंज़िलों की छाप उनकी प्रतिध्वनि ही तो दोहरा रही हैं ये दीवारें.
स्मृतियां चारों ओर से घिरी जा रही हैं. जब विवाह के पश्चात हमने यह घर किराए पर लिया था, तो अगले दिन हम दोनों पति-पत्नी इसके हर कमरे में गए, आलिंगनबद्ध होकर कमरे की दीवारों को अपना साथी बनाया था. इसी घर में दो छोटे-छोटे बच्चों का प्रथम रूदन सुना था, उन्हें सुरक्षा प्रदान की थी. इसी घर की ओर हर सांझ लौटते समय मेरे रुके कदमों में तेजी आ आती थी.
भावुकता में आ कर मैं घर के हर कमरे में घूम आया और चारों ओर से घिरी आती स्मृतियों को भगाने के लिए मैंने सामने का द्वार खोल दिया. मन में यही बात थी कि रात्रि की नीरवता इन दीवारों की प्रतिध्वनियों को भी शांत कर देगी, पर मैं इसमें असफल रहा, क्योंकि द्वार पर पहुंचते ही रेखा ने साफ़-सुथरे द्वार पर एक ऐसी रेखा खींच दी थी और शरारत भरी नज़रों से कहा था, "इस घर में आज से रेखा का राज है. यह दरवाज़े से पता लग जाना चाहिए." और हर बार रंग करवाने के पश्चात् रेखा उस रेखा को भी ताज़ा कर देती थी.
मैं बाहर निकल आया, लेकिन सामने ही कंबख्त वह झाड़ी थी, जिसकी ओट में बैठकर हम चांदनी रातों में चांद निकलने की प्रतीक्षा में घास पर बैठे रहते थे. मैं आगे बढ़ गया. उधर शायद ऐसी कोई स्मृति न हो, पर एक ठंडी हवा के झोंके ने फौरन याद दिला दिया कि पहले-पहल जब हम दोनों उघर गए थे और ठंडा झोका आया, तो रेखा मुझसे लिपट गई थी यह कह कर कि, "मैं तो कोट पहन कर भी नहीं आई इतनी ठंड होगी इधर, यह पता न था." मैने हंस कर कहा था, "अगर कोट होता, तो मेरे साथ कौन लिपटता?" और वह लजाकर और भी सिमट कर पास आ गई थी.
मैं अंधेरे में आगे बढ़ गया. हरी घास पर होता हुआ पत्थरों की ओर जहां इतना अंधेरा था कि कुछ नज़र नहीं आ रहा था. ऊपर तारों की झिलमिलाहट आंख-मिचीनी का खेल खेल रही थी. मैं चुपचाप खड़ा हो गया, और तब मैंने उसे देखा.
वह वहां अपने प्रिय पत्थर पर बैठी हुई थी, चुपचाप, शांत उसने आने की आहट भी नहीं सुनी थी. मुझे संदेह हुआ कि शायद वह अंधेरे का ही खेल है या मुझे कोई बैठा हुआ लग रहा है. पर इतने में बादल कुछ छूट गए, पर पूरे नहीं उनमें से छन कर आते प्रकाश में उसका शरीर कुछ-कुछ दिखने लगा. उसके सुनहरे बालों पर चांदनी की लहरे खेलने लगी. मैं तो समझा था वह अंदर अपना सामान ठीक कर रही होगी, पर याद आया कि सब कमरों में तो मैं घूम आया था. पर वह वहां कहीं न थी.
मैं कुछ बोला नहीं, और न ही लौट पाया. में धरि से आगे बढ़ गया और उसके पास बैठते हुए अपना हाथ उसके हाथों में दे दिया. क्या इन दीवारों की प्रतिध्वनियों ने मुझे इस ओर भेजा था? हम दोनों चुप बैठे रहे और मैं सोचता रहा कि वह कौन सी शक्ति थी, जिसने हम दोनों को सुनसान नीरव रात्रि में यहां एक स्थान पर भेज दिया.
उसने बताया, "मुझे रुलाई आ रही थी मेरा गला घुटा जा रहा था और मैं सोच रही थी कि प्रातः हम अलग हो जाएंगे. अपनी-अपनी राहों पर चल देंगे, फिर जीवन में कभी मिलन हो या नहीं अगर न मिले तो मैं यह तुम्हे कब कह पाऊंगी कि मैं तुम्हें बहुत प्यार करती थी."
"चुप रहो." मैंने उसके बालों पर हाथ फेरते हुए कहा, "अब उसकी आवश्यकता नहीं रहेगी."
"नहीं रहेगी? सच कहते हो तुम?" कह कर वह मेरे पास आ गई, पर तब ही उसे कुछ याद आया. बोली, "कितनी ठंड है बाहर और तुमने कोट भी नहीं पहना."
मैं बोला, "अगर कोट पहनता तो तुम्हारे इतने पास न आता." और हम दोनों ठठाकर हंस पड़े.
इतने में दोनों उठे और हाथ में हाथ थामे दौड़ पड़े घर की ओर. सबसे पहले उन सब काग़ज़ों को फाड़ने, जिन पर हस्ताक्षर करवाने के लिए सुबह ही हम दोनों के वकीलों को आना था. पर रास्ते में दरवाज़ा पड़ गया और रेखा ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींच लिया और दरवाज़े पर खींची हुई रेखा को अपने नाख़ून से और भी गहरा कर दिया.

- ब्रह्म देव

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