“सर्वप्रथम तो मैं आप सबकी बहुत आभारी हूं कि आप सबने अपने क़ीमती समय में से मेरे लिए वक़्त निकाला. इस आयोजन को लेकर सबमें भ्रम की स्थिति व्याप्त है, पर मैं सही बात आप लोगों से कहना चाहती हूं. आज न तो मेरा जन्मदिन है और न ही किसी भवन का उद्घाटन और न ही मेरी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन- मेरा जो कुछ भी है, वो तो सब आप लोगों का ही है. अब मेरे लिए मानवता से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है, लेकिन कुछ भूली-बिसरी यादों ने मेरे जीवन में उथल-पुथल मचा दी है, जिसके कारण मुझे बहुत ही वेदना हो रही है. आज इस वेदना का मैं अंत कर रही हूं, जिसके साक्षी आप सब आज बनेंगे…"
"हैलो, नमस्ते शर्माजी, अरुणा बोल रही हूं. कल के प्रोग्राम में आपको आना है. बस यही याद दिलाने के लिए फ़ोन किया था. अच्छा, तो कल मुलाक़ात होगी. नमस्ते.” फोन रखते ही उसने कहा.
“रमा, मैंने सबको कल आने का रिमाइंडर दे दिया है. मुझे नहीं लगता कोई छूटा होगा. एक बार लिस्ट देखकर तुम भी तसल्ली कर लो.”
“नहीं, कोई भी नहीं बचा. सबको निमंत्रण दे दिए गए हैं. पति एवं बेटे को तो मैंने ख़ुद ही फोन कर दिया था.” रमादेवी ने जवाब दिया.
पूरे शहर में चर्चा गरम थी कि रमादेवी एक बहुत बड़ा आयोजन कर रही हैं. एक बड़े पार्क में कार्यक्रम रखा है. और तो और पूरे शहर को इसमें बुलाया है. किस कारण से यह आयोजन हो रहा है, इसे कोई नहीं जानता. ख़ास बात तो यह है कि वो पितृपक्ष में इतना बड़ा आयोजन कर रही हैं. वैसे तो इन दिनों कुछ करना परंपरा से परे है, पर बांसठ वर्षीया रमादेवी जो शहर की एक जानी-मानी समाज सेविका हैं और सब लोग जिन्हें ममतामयी मां के नाम से पुकारते हैं, जिन्होंने अपनी जीवन संध्या में न जाने कितने ही अनाथ बच्चों और महिलाओं को नवजीवन प्रदान किया है, उनके लिए तो मानव की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है. तो फिर दिन एवं माह का क्या महत्व?
कोई कहता, ‘लगता है रमादेवी कोई धार्मिक आयोजन कर रही हैं.’ तो कोई कहता, ‘शायद कोई नया स्कूल या अनाथालय का शिलान्यास हो रहा होगा.’
जितने मुंह उतनी ही तरह की बातें.
छोटे-बड़े, बच्चे-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, सभी को आमंत्रण दिया है रमादेवी ने. दोपहर दो बजे से देर रात तक भोजन की व्यवस्था. आख़िर है क्या? चलो चल चलकर पता करें. वैसे भी मां ने बुलाया है, जाना तो पड़ेगा ही.
अरुणा पिछले पांच दिनों से रमादेवी की मदद कर रही है. वो रमादेवी की बचपन की सखी है. स्कूली दिनों की मित्रता आज तक कायम है दोनों के बीच. तभी तो अपने सारे कामकाज छोड़कर वो अपनी सहेली के कामों में परिवार सहित लगी हुई है.
“रमा, काफ़ी रात हो गई है. अब मैं चलती हूं. ह़फ़्तेभर की परेड का कल अच्छे से समापन हो जाए, तो मन को चैन मिले. तुम भी थोड़ी देर आराम कर लो. कल तो सारा दिन बहुत व्यस्त रहोगी. अजय भी टेंट की व्यवस्था देखने गए हैं. कल वो सुबह जल्दी आयोजन स्थल पर पहुंचकर भोजन बनवाने की व्यवस्था संभाल लेंगे. नीरज और सुनंदा अतिथियों का स्वागत करने के लिए मुख्यद्वार पर मौजूद रहेंगे. कल ठीक सात बजे मैं आ जाऊंगी.” इतना कहकर अरुणा चली गई.
धीमे कदमों से जाकर जैसे-तैसे रमादेवी ने दरवाज़ा बंद किया और ड्रॉइंगरूम में बिछे कालीन पर ही लेट गई. आंखों से नींद कोसों दूर थी. बीते दिनों की यादें मन में हिलोरे लेने लगीं. बरसों पुरानी स्मृतियां फिर से सजीव हो उठीं.
“रमा ओ रमा… अरी सुन तो. चल जरा मौसी के साथ गेहूं तो बिनवा.” मां अपनी लाडली को हज़ार आवाज़ें लगाती, पर उसके कानों पर जूं तक न रेंगती. वो तो कभी छुपा-छुपी खेलने में मगन रहती, तो कभी गुड़िया का ब्याह रचाने में. मां पहले तो ग़ुस्सा करती, पर बाद में सोचती लाडो कितने दिन और रहेगी, इसलिए जब तक घर में है, हंस-खेल ले, बाद में तो घर-गृहस्थी के चूल्हा-चौकी में फंसना ही है.
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एक दिन वो भी आ गया जब रमा का ब्याह पक्का हो गया. संपन्न परिवार था. उनका इकलौता बेटा था शशिभूषण. उसका ख़ुद का व्यवसाय था और मकान भी… वो रमा से दस साल बड़ा था, पर चूंकि घर-बार अच्छा था तो उम्र से क्या फ़र्क़ पड़ता- यही सोचकर रमा के पिता ने हां कर दी. रमा की गोद भरायी की रस्म में महंगे-महंगे ज़री के कपड़े और भारी सोने के गहने चढ़ाए थे उसकी होनेवाली सास ने, जिसे देखकर सत्रह साल की रमा तो ख़ुशी से फूली नहीं समाई थी. सारे मोहल्ले की औरतों ने देखे थे उसके ज़ेवर-कपड़े.
ढोलक की थाप पर सखियों ने बन्नो को सुखी रहने और पति का प्यार पाने की हज़ारों बधाइयां दी थीं. अरुणा तो बड़े ज़ोर-शोर से नाची थी अपनी प्यारी सहेली की शादी में. सात फेरों के बंधन में बंधते ही मायके से नाता टूट गया. ससुराल में कदम रखते ही पति के असली स्वभाव के दर्शन हो गए रमा को. शशिभूषण बहुत ही क्रोधी और रंगीन तबीयत का इंसान था. रमा को उसने कभी पत्नी का दर्ज़ा नहीं दिया, बस अपनी वासना की पूर्ति करने का एक साधन मात्र समझा.
सास-ससुर बहुत अच्छे थे. रमा को आस थी कि एक दिन पति सुधर जाएंगे. रमा रात-दिन पति और सास-ससुर की सेवा-टहल करती. कभी किसी काम को करने में यदि क्षणभर की भी देर हो जाती, तो शशिभूषण उस पर हाथ उठाने से भी नहीं चूकता. पर सास-ससुर के स्नेह के कारण वो चुपचाप सब कुछ सहन करती.
‘पति सेवा परमोधर्म’ में विश्वास करनेवाली रमा पति की दासी बनकर रह गई. रमा के शांत रहने से पति के अंदर का अहम बढ़ता ही चला गया. वह बात-बात पर रमा को गंवार, ज़ाहिल, अनपढ़ जैसे शब्दों से सबके सामने नवाजता. अंदर-ही-अंदर घुटकर रह जाती बेचारी रमा, पर अपने मन की व्यथा किससे कहे. एक साल बाद ही उसकी गोद में दिनेश आ गया. रमा को लगा शायद बेटे के बाद पति का स्वभाव बदल जाए, पर यह सोच भी निरर्थक साबित हुई.
रमा के जीवन में दुख के बादल गहराने लगे. जब तक सास-ससुर जीवित थे, रमा अपना दुखड़ा उनके आगे रो लिया करती थी, पर एक दिन सड़क दुर्घटना में वो दोनों भी दिवंगत हो गए. उसके बाद से तो रमा का जीवन मानो नारकीय बन गया. पर रमा मिट्टी की माधो बनकर सब कुछ सहती रही. कभी उसने प्रतिकार नहीं किया. पति परमेश्वर का ही तो रूप है. मेरे भाग्य में शायद यही लिखा था, रमा अपने मन को समझाती. ईश्वर के प्रति उसकी आस्था की डोर मज़बूत होती जा रही थी. दिनेश तो उसका अपना ख़ून है, वो ज़रूर उसे समझेगा. अपनी मां के सारे दुख-तकलीफ़ हर लेगा. बेटे से उसके मन में एक आशा बंध गई थी.
समय बीतता जा रहा था. सरल हदया रमा के दुख कम होने की बजाय और बढ़ने लगे. इकलौते सुपुत्र को तो आख़िर पिता की विलासिता में भागीदार बनना था, दुर्बल कायावाली मां से उसे मिल ही क्या सकता था, इसलिए पिता को ही अपना सब कुछ माना था दिनेश ने.
रमा को जो घर किले की भांति मज़बूत प्रतीत होता था, अब वो घर रेत के ढेर की भांति फिसलने लगा था. उस पर अब छल-कपटभरे वार होने लगे. अंग्रेज़ी स्कूल की महंगी शिक्षा और ऐशोआराम के महंगे साधनों ने दिनेश के जीवन को बदलकर रख दिया. अपने पिता की भांति वो भी बाहरी चकाचौंध में अंधा हो गया. बेबस स्त्री दंभी पुरुषों से हारने लगी. परायी स्त्रियों में सुख तलाशता शशिभूषण एक दिन उससे दासी का उपेक्षित स्थान तक छीन लेगा, इसकी कल्पना तो रमा ने कभी सपने में भी नहीं की थी.
एक दिन शशिभूषण जब घर लौटा तो साथ में तन पर नाममात्र के वस्त्र पहने एक काया भी साथ लाया, जिसे देखते ही रमा के पैरों तले ज़मीन खिसक गई. रोने के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं था. दिनेश, उसकी अपनी कोख का जाया भी उसका अपना नहीं था. पिता के साथ-साथ वो भी उसके साथ हंस-हंसकर बातें करता और मां को ताने देता.
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अपने कमरे में जाकर वो भगवान के सामने चीख उठती- “हे प्रभु, हे विधाता, तू इतना कठोर न बन. मेरी इतनी परीक्षा तो न ले कि मैं अपने प्राण ही तेरे चरणों में अर्पण कर दूं. एक बेटे का सहारा बचा था, वो भी अब छीन चुका है. जगतपिता, सबका पालनहार है, मेरी भी परेशानियों और दुखों का निवारण कर दे.”
जब घर में पति और बेटे के ताने हृदय को छलनी कर देते, तो रमा मंदिर चली जाती. एक दिन जब वो मंदिर गई, तो वहां उसे अपनी प्रिय सहेली अरुणा मिल गई. अरुणा ने जब अपनी सखी की दशा देखी, तो उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली.
सैंतीस साल की रमा दुख और कष्टों को सहते-सहते पचास साल की दिखने लगी थी. रमा का हाथ पकड़कर अरुणा उसे अपने घर ले गई. घर में उसके पति अजय, उसकी सास शारदा देवी, बेटा नीरज और बेटी सुनंदा थी. बच्चे अपनी रमा मौसी को देखकर बहुत ख़ुश हुए, क्योंकि उनकी मां अक्सर रमा के बारे में बातें किया करती थी. शारदा देवी बहुत ही अच्छी महिला थीं, उन्होंने रमा को अपनी बेटी बना लिया. अजय निजी कंपनी में मैनेजर थे और अरुणा टीचर थी. अरुणा ने रमा को बताया कि उसकी शादी होने के एक साल बाद उसकी भी शादी हो गई. उस समय उसने रमा को शादी में आने के लिए तीन-चार पत्र भी लिखे थे, शादी के दिन तक उसने अपनी सहेली के आने की बाट जोही थी, पर सब व्यर्थ. रमा किस तरह बताती कि जब उसने अरुणा की शादी में जाने की अनुमति शशिभूषण से मांगी थी तो उसे कितनी गालियां और कितनी मार खानी पड़ी थी.
शादी के बाद अरुणा ने पढ़ाई ज़ारी रखी, इसमें शारदा देवी ने उसकी बहुत सहायता की, जिसके कारण आज वो स्कूल में टीचर है. यहां-वहां की बातें करके रमा घर वापस लौटने लगी, तो अरुणा ख़ुद उसे स्कूटर से छोड़ने आई. रमा के पति और बेटे के रंग-ढंग को देखकर वो सारा माजरा समझ गई.
एक दिन शशिभूषण ने अपनी आधुनिका प्रेयसी के कहने पर रमा को बाहर फेंक दिया जैसे कि वो घर का कचरा हो. रमा बहुत गिड़गिड़ायी कि उसे एक कोने में पड़े रहने दो, पर उसकी बातों का उसके पति पर कोई असर नहीं हुआ. उस समय जब रमा को घसीटा जा रहा था, दिनेश आराम से डाइनिंग टेबल पर नाश्ते का लुत्फ़ उठा रहा था. उसने एक बार भी मां की ओर नहीं देखा. गेट से टकराकर रमा का माथा लहूलुहान हो गया. मैले-कुचैले उसके वस्त्र जगह-जगह से फट गए. उसी हालत में वो अरुणा के घर पहुंची. उसकी दशा को देखकर शारदा देवी घबरा गईं. उन्होंने फ़ौरन अपने बेटे-बहू के ऑफिस में फोन किया और तुरंत घर आने को कहा. अरुणा एवं अजय तुरंत आए. रमा की दशा देखकर दोनों को भी बहुत दुख पहुंचा. अजय ने डॉक्टर को बुलाया और रमा की मरहम-पट्टी करवाई. रोते हुए रमा ने सारी घटना बयान की. अरुणा और अजय ने पुलिस में शिकायत करने को कहा, तो रमा ने भगवान पर सब छोड़ने की बात कहकर मना कर दिया. शारदा देवी ने रमा को बेटी बनाकर घर में रख लिया.
रमा बहुत ही स्वाभिमानी थी, वो अपना ख़र्च ख़ुद उठाना चाहती थी. हालांकि रमा ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर वो गृहकार्यों में बहुत कुशल थी. उसकी प्रतिभा को देखकर शारदा देवी ने टिफिन सर्विस खोलने का प्रस्ताव रखा. अजय और अरुणा ने ऑर्डर दिलाने में मदद की, तो नीरज और सुनंदा ने कॉलोनी में प्रचार किया. शारदा देवी सब्ज़ी काटने में सहायता कर देती थीं. धीरे-धीरे काम बढ़ता ही चला गया. एक साल में रमा के पास दो सौ लोगों के टिफिन के ऑर्डर आ चुके थे. अब उसकी मदद के लिए तीन-चार ज़रूरतमंद महिलाओं को रखा गया. जैसे-जैसे काम बढ़ता गया, और भी महिलाओं को रोज़गार दिया रमा ने.
दो साल बाद जब घर छोटा पड़ने लगा, तो पड़ोस के दो कमरों में काम को स्थानांतरित किया गया. बीते तीन सालों में एक बार भी न तो वो पति और बेटे से मिलने गई और न ही कभी उन लोगों ने उसकी सुध ली. शारदा देवी ने उसे मां की कमी महसूस नहीं होने दी, तो अजय ने अपनी छोटी बहन के समान दुलार किया, बच्चे तो अपनी बुआ के फैन थे.
दीदी से कब रमा अम्माजी बन गई, उसे पता ही नहीं चला.
उन्होंने कई महिलाओं को रोज़गार दिया. अरुणा एक बहन और सखी की भांति उसकी पथप्रदर्शक बन गई. रमा के सरल व्यवहार के सभी लोग कायल थे. जब भी किसी को उसकी सहायता की ज़रूरत होती, तो वो फ़ौरन आगे बढ़कर मदद करती. अपनी तरह दुखी महिलाओं के दुख-दर्द को दूर करने के साथ वो उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में भी पूरी मदद देती. पचास साल की होते-होते उसका स्वयं का मकान भी बन गया, जिसका नाम उसने शारदा देवी के नाम पर ‘मां शारदा निवास’, रखा था. जिस तरह शारदा देवी इंसानियत के धर्म को मानती थीं, उसी तरह रमा भी मानवता के धर्म को ही सर्वोपरी समझती थीं. यही कारण था कि उसके दरवाज़े से कोई भी खाली हाथ वापस न लौटता.
लावारिस बच्चों के रहने और पढ़ाई के लिए उसने अरुणा की मदद से एक बालघर की स्थापना की, जिसमें अनाथ बच्चों को आश्रय दिया गया. रमा का आशीर्वाद पाकर सब ख़शी-ख़ुशी लौटते. रमा ने दूसरों के जीवन में रंग भरने का काम शुरू किया, जिससे उसकी दुनिया भी सुनहरी आभा से भर गई. संघर्ष और पीड़ा का कोई धर्म, कोई मजहब नहीं होता, क्योंकि वो साझी होती हैं. एक कम पढ़ी-लिखी स्त्री ने अपने जीवन की हर क्षण मिटती संजीवनी से दूसरों के जीवन में नवप्रकाश की किरणों का मार्ग खोल दिया. उनके मानवता के प्रति समर्पण के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, जिसकी राशि से रमा ने गरीब बच्चों के लिए हायर सेकेंडरी स्कूल की स्थापना की, जिसमें गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी.
एक दिन अजय ने रमा को ख़बर दी कि उसके बेटे की शादी हो चुकी है. सुनकर रमा को थोड़ा सदमा तो लगा, क्योंकि वो मां थी और हर मां की तरह अपने बेटे के सिर पर सजे सेहरे में बेटे के मस्तक को चूमना चाहती है. पर दूसरे ही क्षण वो एकदम सामान्य हो गई. अब उसका परिवार बहुत विस्तृत हो चुका था, जिसके हर सदस्य का ध्यान रखना उसका पहला कर्त्तव्य था. कुछ दिनों के बाद जब नीरज के विवाह के प्रस्ताव आए तो नीरज ने लड़की पसंद करने का हक़ अपनी बुआ को दिया. उस समय रमा को लगा कि केवल जन्म देने से ही रिश्ते नहीं बनते, बल्कि वो प्यार एवं स्नेह से बनते हैं. उस दिन से उसके हृदय में जो दिनेश की याद थी, वो भी हमेशा के लिए मिट गई. एक सुंदर-सुशील कन्या से नीरज का विवाह बड़ी धूमधाम से किया था रमा ने.
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रमा ने अपना सारा धन ज़रूरतमंदों पर ख़र्च किया. वो ख़ुद तो खादी के सादे वस्त्र ही पहनती थी. कभी रुपयों की आवश्यकता उसे महसूस ही नहीं हुई. एक दिन रमा को पता चला कि उसकी प्रतिष्ठा का अनुचित फ़ायदा उसके पति और बेटे द्वारा उठाया जा रहा है. काम करवाने के नाम पर वो दोनों लोगों से धन ऐंठ रहे थे. बीस वर्षों से उसने जो ईमानदारी का परचम लहराया था, आज उस पर उसके पति-बेटे ने कालिमा लगा दी थी. यह सब वो कतई बर्दाश्त नहीं करेगी. जिन्होंने उसे मझधार में अकेले थपेड़े खाने के लिए छोड़ दिया और कभी मुड़कर भी नहीं देखा, उन्हें आज उसके नाम की आवश्यकता क्यों आ पड़ी.
नहीं, अब मैं और सहन नहीं करूंगी, जिन लोगों से मेरा कोई रिश्ता ही नहीं है, उन्हें मैं आगे नहीं बढ़ने दूंगी. मन-ही-मन रमा देवी ने निश्चय किया.
रातभर रमा देवी अनवरत ध्यान करती रहीं. इस संसार का विधाता उन्हें इस परेशानी से निपटने का कोई-न-कोई मार्ग अवश्य बताएगा. पांच घंटों के पश्चात् जब रमा देवी ने अपनी आंखें खोलीं, तो उनकी वृद्ध आंखें चमक रही थीं. उन्हें अपनी परेशानी का हल मिल गया था. अब जब तक वो जीवित हैं, कमज़ोर नहीं पड़ेंगी. प्यास लगने के कारण जब गला बुरी तरह सूखने लगा, तो रमा देवी की नींद खुल गई. घड़ी की ओर देखा तो सुबह के पांच बज रहे थे. नित्य की भांति उन्होंने उठकर पौधों को पानी दिया, फिर स्नान करके पूजा-अर्चना करने चली गईं. फिर बालघर जाकर बच्चों को देखा. बच्चों को कार्यक्रम में आने का कहकर घर लौट आईं. सात बज चुके थे और अरुणा उनका इंतज़ार कर रही थी.
दोनों ने मिलकर कार्यक्रम पर चर्चा की. फिर भविष्य की योजनाओं पर विचार-विमर्श हुआ. रमा देवी अपनी वसीयत करना चाहती थीं, तो अरुणा ने अच्छे वकील से सलाह लेने को कहा. कुछ देर बाद उन्होंने अरुणा को आयोजन स्थल पर कार्यों का निरीक्षण करने के लिए भेज दिया. ठीक साढ़े दस बजे रमा देवी पार्क में जा पहुंची. उनको देखते ही सारे लोग खड़े होकर उनका अभिवादन करने लगे. वो भी सबका हालचाल पूछ रही थीं. श्वेत वस्त्रों में रमा देवी का मुख-मंडल ईश्वरीय आभा से आलोकित हो रहा था.
अरुणा ने पूछा, “ये श्वेत परिधान क्यों?” रमा देवी उत्तर देने ही वाली थीं कि इतने में पंडितजी भी आ गए. आयोजन स्थल पर एक मंच भी बना हुआ था, जिस पर हवन कुण्ड बना हुआ था. रमा देवी ने पंडितजी का हाथ जोड़कर अभिवादन किया और मंच पर जाने की प्रार्थना की. पंडितजी ने जाकर अपना स्थान ग्रहण कर लिया.
शशिभूषण और दिनेश भी आकर एक जगह बैठ गए. पंडितजी जब पूजा आरंभ करने लगे, तो रमा देवी अचानक खड़ी हो गईं और उन्होंने अपनी बात कहनी शुरू की, “सर्वप्रथम तो मैं आप सबकी बहुत आभारी हूं कि आप सबने अपने क़ीमती समय में से मेरे लिए वक़्त निकाला. इस आयोजन को लेकर सबमें भ्रम की स्थिति व्याप्त है, पर मैं सही बात आप लोगों से कहना चाहती हूं. आज न तो मेरा जन्मदिन है और न ही किसी भवन का उद्घाटन और न ही मेरी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन- मेरा जो कुछ भी है, वो तो सब आप लोगों का ही है. अब मेरे लिए मानवता से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है, लेकिन कुछ भूली-बिसरी यादों ने मेरे जीवन में उथल-पुथल मचा दी है, जिसके कारण मुझे बहुत ही वेदना हो रही है. आज इस वेदना का मैं अंत कर रही हूं, जिसके साक्षी आप सब आज बनेंगे. ऐसे रिश्तों का विसर्जन करने के लिए पितृपक्ष से अच्छा अवसर कहां हो सकता है. आज मैं अपने पति और बेटे के रिश्ते का तर्पण करती हूं.” इतना कहकर रमा देवी पूजा में भाग लेने लगीं और उपस्थित जनसमुदाय उनकी प्रशंसा करने लगा.
जैसे ही पूजा समाप्त हुई, सब लोग भोजन का आनंद लेने लगे, सिवाए दो लोगों के जो पैर पीटते हुए और रमा देवी को कोसते हुए आयोजन स्थल से बाहर चले गए. आज रमा देवी बेमानी रिश्तों के बोझ से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पा चुकी थीं. उनकी आज़ादी के क्षणों में उनकी ख़ुशी बांटने के लिए अरुणा उनके साथ थी.
- दीपाली शुक्ला
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