“... मुझे यही सही लगा कि आपके जन्मदिन के अवसर पर आपको अपना परिवार तोहफे के रूप में लौटाऊं. मैं भइया-भाभी को साथ ले आई. अब यही हमारे माता-पिता हैं. घर के बड़े हैं. इनके आशीर्वाद के बिना हमारा परिवार और हमारा प्यार अधूरा है. आगे आप जैसा ठीक समझें.”“नम्रता, सच में तुम मेरी सच्ची जीवनसंगिनी हो. मुझे इससे अनमोल तोहफ़ा मिल ही नहीं सकता था. मैं स़िर्फ तुमसे प्यार ही नहीं करता अब, बल्कि बेहद सम्मान भी करता हूं.”
दिल्ली की ओर उड़ान भर रहा विमान शीघ्र ही आकाश की ऊंचाइयों में समाने लगा. नम्रता उस उड़ान की विमान परिचारिका थी. विमान में दो यात्री ऐसे भी थे, जिनके बारे में ख़ास हिदायतें नम्रता को दी गई थीं. ये थे चार साल की गुड्डी और सात साल का दीपू. ये दोनों मुंबई के एक स्कूल में पढ़ते थे और उसी स्कूल के छात्रावास में रहते थे. वहां की वार्डन ने ख़ासतौर पर बच्चों को संभालने के लिए कहा था.
नम्रता अन्य यात्रियों की सुख-सुविधाएं पूछने के बाद बच्चों के पास ही आकर बैठ जाती और उनसे बातें करने लगती. वह सोच रही थी कि इतने छोटे बच्चों को माता-पिता छात्रावास में कैसे डाल देते हैं? जब उससे रहा नहीं गया, तो उसने पूछ ही लिया, “दीपू, तुम्हारे माता-पिता दिल्ली में हैं?”
दीपू ने अपनी बड़ी-बड़ी मासूम आंखों से नम्रता की ओर देखकर कहा, “ हां, मेरे पिताजी दिल्ली में हैं और वे कहते हैं कि मां चंदामामा के पास गई हैं. जब हम पढ़कर बड़े हो जाएंगे, तो मां बड़ी ख़ुश होंगी और वापस आ जाएंगी.”
नम्रता को बच्चों की मासूमियत पर प्यार आ गया. दिल्ली पहुंचने पर नम्रता दीपू और गुड्डी के साथ उनके पिता का इंतज़ार कर रही थी. शाम ढल रही थी, तो नम्रता ने कहा, “दीपू, तुम्हें घर का पता मालूम है?”
दीपू ने जेब से झट से कार्ड निकालकर नम्रता को दे दिया. पता पढ़कर नम्रता बोली, “मेरा घर भी उसी रास्ते पर है, मैं तुम्हें घर छोड़कर आगे चली जाऊंगी.”
नम्रता की टैक्सी एक विशाल कोठी के आगे जाकर खड़ी हो गई. नौकर ने दौड़कर गेट खोला और नम्रता से बोला, “साहब बच्चों को लेने ही गए हैं, वो अभी आते ही होंगे.”
नम्रता ने जब बैठक में क़दम रखा, तो भव्य साज-सज्जा को देखकर वह खो सी गई. तभी बच्चों की आवाज़ ने उसे चौंका दिया, “पापा आ गए... पापा आ गए...” नम्रता उठकर खड़ी हो गई. तभी 28-29 साल के आकर्षक व्यक्ति ने बैठक में प्रवेश किया. नम्रता ने मुस्कुराकर हाथ जोड़ दिए.
उस व्यक्ति ने धीमे स्वर में कहा, “मुझे अशोक कहते हैं. दरअसल, रास्ते में जुलूस जा रहा था, इसलिए मुझे आने में देर हो गई. आपको कष्ट तो हुआ होगा.”
“नहीं-नहीं...” नम्रता ने सकुचाकर कहा और उसके गोरे कपोल गुलाबी हो गए. अशोक उसकी सुंदरता पर मुग्ध होकर निहारता रहा.
चंद क्षणों के बाद नम्रता ने कहा, “मेरी टैक्सी बाहर खड़ी है, मैं अब जाती हूं.”
बच्चों ने नम्रता का हाथ पकड़कर कहा, “फिर आओगी न दीदी?” नम्रता ने हंसकर कहा, “हां, ज़रूर आऊंगी.”
रास्ते में नम्रता अशोक के आकर्षक व्यक्तित्व के बारे में ही सोच रही थी. उधर अशोक बच्चों को पाकर बहुत ख़ुश थे. एक दिन अशोक एक दुकान से निकल रहे थे, तो अचानक उनकी नम्रता से भेंट हो गई. बच्चों ने तो दीदी-दीदी कहकर उसे घेर लिया. अशोक के बहुत आग्रह करने पर उसने दोपहर का भोजन उनके साथ ही किया.
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अब अक्सर अशोक और नम्रता की बात होने लगी थी. अशोक ने नम्रता को गुड्डी के जन्मदिन पर बुलाया. नम्रता सुबह से ही जन्मदिन की तैयारी कर रही थी. एक बात उसे हैरान कर रही थी कि पूरे घर में उसे कहीं भी अशोक की पत्नी की कोई तस्वीर नहीं दिखी.
धीरे-धीरे नम्रता और अशोक की मुलाकातें बढ़ने लगीं. दोनों को जीवन में मुहब्बत का एहसास होने लगा. अशोक के कोरे मन पर एक हसीन तस्वीर बन गई थी और आंखों में सपने पलने लगे थे. एक अजीब बात नम्रता ने यह महसूस की कि अशोक उससे कुछ कहना चाहते थे, पर कह नहीं पाते.
नम्रता ने सोचा क्यों न वो ख़ुद ही अशोक से उनकी उलझन के बारे में पूछ ले, “अशोक, मुझे अधिकार तो नहीं, पर कोई तो बात है, जो आपको परेशान किए रहती है. आपने अपने बारे में तो कुछ नहीं बताया... यानी अपनी पत्नी के बारे में?”
“आपने पूछा नहीं, तो मैंने बताया नहीं. लेकिन समय आने पर ज़रूर बताऊंगा नम्रता. अभी तो यही कह पाऊंगा कि इन बिन मां के बच्चों का सब कुछ मैं ही हूं.”
इस बीच अशोक यह महसूस कर रहे थे कि अब नम्रता के बिना जीना उनके लिए मुश्किल था. उन्होंने नम्रता से अपने मन की बात कहने की ठान ली, “नम्रता क्या तुम मुझे अपना जीवनसाथी बनाना पसंद करोगी? वैसे तो मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूं, क्योंकि मेरे दो बच्चे हैं. बहुत-सी लड़कियां आई थीं शादी का प्रस्ताव लेकर... मगर बच्चे देखकर लौट गईं. पर बच्चे तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. इसलिए पूछने का साहस कर सका. वैसे कोई ज़बर्दस्ती नहीं है.”
“नहीं... नहीं.. अशोक. यह बात नहीं है. ये दोनों तो बहुत प्यारे बच्चे हैं, पर फिर भी मुझे अपने परिवारवालों से पूछना ही पड़ेगा.”
“हां नम्रता, मैं तुम्हें सोचने का पूरा मौक़ा दूंगा. ऐसी कोई जल्दी भी नहीं है. वैसे भी इस बीच मुझे काम के सिलसिले में आगरा जाना है. वहां दो-चार दिन लग जाएंगे. क्या तुम तब तक बच्चों का ख़्याल रखोगी प्लीज़?”
“हां, क्यों नहीं.” कहकर नम्रता विदा लेकर चली गई. नम्रता अशोक के घर रोज़ आती और घंटों बच्चों के साथ रहती. अशोक को आगरा गए आठ दिन हो गए थे. नम्रता अशोक को फोन करने के बारे में सोच ही रही थी कि तभी अशोक की गाड़ी आ गई. आवाज़ सुनकर नम्रता संभलकर बैठ गई.
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“पापा आ गए...” कहते हुए दीपू और गुड्डी बाहर भाग गए. अशोक ने कमरे में प्रवेश किया, तो नम्रता को देखकर बहुत ख़ुश हुआ. नम्रता की आंखें शर्म से झुक गई और चेहरा सुर्ख़ हो गया. अशोक ने मुस्कुराते हुए पूछा, “इसका मतलब मैं ‘हां’ में लूं या ‘ना’ में?”
नम्रता ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया और ‘हां’ में गर्दन हिला दी.
“यह हुई न बात.” कहकर अशोक ने दीपू और गुड्डी को दोनों हाथों से उठा लिया. उसी व़क्त रामू मिठाई की प्लेट लेकर आ गया.
कुछ दिनों बाद ही अशोक की कोठी दुल्हन की तरह सजी हुई थी. नम्रता शादी के जोड़े में बहुत हसीन लग रही थी. शादी भी धूमधाम से हो गई.
अशोक अपने कमरे में गए, जहां नम्रता सजी हुई सेज पर बैठी हुई थी. दोनों बच्चे उसके पास बैठे थे. वह प्यार से उन्हें समझा रही थी, “बेटे, अब मुझे मम्मी कहना.”
अशोक ने बच्चों को प्यार करते हुए कहा, “बेटे, मम्मी ठीक कह रही हैं.”
नम्रता अशोक को देखकर शरमा गई. थोड़ी देर बाद अशोक बोला, “बच्चों रात बहुत हो गई. अब आप लोग जाकर सो जाओ.” बच्चे उन दोनों को प्यार करके चले गए.
रात के क़रीब तीन बजे अशोक के कमरे की खिड़की पर कोई ठक-ठक कर रहा था. वह झटके से उठ बैठा. नम्रता गहरी नींद में सो रही थी. अशोक ने खिड़की के पास एक साया देखा और धीरे-से दरवाज़ा खोला. फिर वह उस साये के पीछे-पीछे चल पड़ा. साया भागकर अंधेरे में बगीचे के पास खड़ा हो गया. अशोक ने भागकर उसे पकड़ लिया और ग़ुस्से में बोला, “तुम यहां क्यों आए हो?”
“अशोक, मैं 20 तारी़ख़ को जेल से छूटा हूं.”
“कौन-सा बड़ा काम करके आए हो.”
“ऐसा मत कहो, अशोक. मुझे माफ़ कर दो... मुझे मेरे बच्चों से मिला दो.”
“नहीं, मैं तुम्हें बच्चों से नहीं मिलने दूंगा. क्या बच्चों की भी ज़िंदगी बर्बाद करना चाहते हो?”
“अशोक, मेरे भाई... एक बार उनसे मिला दो. मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं.”
“तुम चले जाओ यहां से. इसी में सबकी भलाई है. तुम मेरे माता-पिता के हत्यारे हो. मैं तुम्हारी शक्ल तक नहीं देखना चाहता.”
“अशोक, क्या मां-पिताजी चल बसे? यह क्या अनर्थ हो गया.” कहकर वह साया फूट-फूटकर रोने लगा.
अशोक को उस पर दया आ गई, तो वह उसे उठाकर बोला, “भैया, मेरी आज ही शादी हुई है. भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं. वह क्या सोचेगी, उसे तो कुछ मालूम नहीं है.”
उसी समय कुछ आहट हुई, तो आलोक भाग गया. अशोक का नौकर रामू भागता हुआ वहां पहुंचा. “कौन था साहब, मुझे कुछ आहट-सी सुनाई पड़ी थी.”
अशोक ने उसे कड़ी हिदायत दी. “सतर्क रहना, कोई चोर था शायद.”
जब अशोक कमरे में पहुंचा, तो नम्रता बहुत डरी हुई थी. “मुझे अकेला छोड़कर आप कहां चले गए थे? और बाहर कोई था न? मैंने खिड़की से देखा था. आप अकेले बाहर क्यों गए? अगर कुछ हो जाता तो...” नम्रता की आंखों से आंसू बहने लगे.
अशोक ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा, “अरे, मैं तो यहीं था. कोई चोर था शायद.”
“अशोक, आप मुझसे कुछ छिपा रहे हो? मैंने आपको किसी से बातें करते हुए देखा है. अगर वह सचमुच चोर होता, तो आप इस तरह से बातें नहीं करते. मैंने सात फेरे लिए हैं आपके साथ. क्या अब भी मुझे अपना हमराज़ नहीं बनाएंगे आप?”
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“नहीं नम्रता, अब मैं तुमसे कुछ नहीं छिपाऊंगा. तुमने बिना किसी स्वार्थ के मुझसे प्यार किया और अब तुम मेरी जीवनसंगिनी हो. नम्रता, बाहर जिस व्यक्ति से मैं बात कर रहा था, वो मेरा बड़ा भाई आलोक है. दरअसल, वो बुरी संगत में पड़कर नशे के आदी हो चुके थे. मां-पिताजी ने यह सोचकर उनकी शादी करवाई कि शायद उनमें सुधार आ जाए, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ. ये दोनों बच्चे मेरे भाई आलोक के ही हैं. मेरी भाभी रजनी भी इनकी आदतों की वजह से मानसिक रूप से बीमार हो गई थीं. मैं उन्हीं से मिलने आगरा जाता था. आलोक भइया को ड्रग्स की तस्करी के इल्ज़ाम में सज़ा हो गई थी और इसी सदमे में मां-पिताजी भी गुज़र गए. बस, यही है मेरी सच्चाई. मुझे लगा न जाने तुम क्या सोचोगी मेरे परिवार के बारे में. एक ड्रग एडिक्ट और ड्रग डीलर का भाई, एक अपराधी का भाई हूं मैं. मुझे डर लगा रहता था कि कहीं मेरे परिवार की सच्चाई जानकर तुम मुझसे दूर न हो जाओ, इसलिए एक झिझक थी. आलोक भइया जेल से छूट गए हैं, लेकिन मैं तुमसे वादा करता हूं कि उनका साया तुम पर और अपने बच्चों पर नहीं पड़ने दूंगा.”
“अशोक, आप अकेले ही इतना सब सहते रहे. मुझे इस क़ाबिल भी नहीं समझा कि आपके दर्द को बांट सकूं? क्या मैं इतनी नासमझ हूं, जो आपके भाई के किए की सज़ा अपने प्यार को देती? ख़ैर, जो हो गया, उसे भूल जाइए. आपकी भाभी अब कैसी हैं?” नम्रता ने पूछा.
“वो अब पहले से बेहतर हैं.”
“अशोक, रात बहुत हो गई, अब सो जाइए. हम कल बात करेंगे. वैसे भी कल आपका जन्मदिन है. मैं आपको ख़ास तोहफ़ा देना चाहती हूं. जल्दी उठकर मंदिर जाऊंगी और अपने परिवार की सलामती की दुआ मांगूंगी. कोई बुरा साया हमारे बच्चों पर नहीं पड़ेगा.” यह कहकर नम्रता और अशोक सो गए.
सुबह होते ही अशोक ने देखा कि नम्रता और बच्चे घर पर नहीं हैं. उसे याद आया कि वो मंदिर जानेवाली थी. शायद बच्चों को भी ले गई होगी. लेकिन दोपहर हो गई और फिर शाम होने लगी, तो अशोक का मन आशंकित हो उठा. कई तरह के विचार उसके मन में आने लगे. नम्रता का फोन भी नहीं लग रहा था. वो घबरा गया कि कहीं आलोक भइया ने तो कोई चाल नहीं चली.
शाम के 7 बज चुके थे. अशोक का मोबाइल बजा... अंजान नंबर से उसे एक फोन आया... ‘अगर अपने परिवार की सलामती चाहते हो, तो ठीक 8 बजे होटल सिटी पैलेस पहुंच जाना.’
अशोक ने बिना देर किए, गाड़ी निकाली और निकल पड़ा. होटल पहुंचते ही उसे वेटर ने एक चिट दी, जिस पर आगे बढ़ने के निर्देश लिखे थे. निर्देशों के अनुसार अशोक एक बड़े-से हॉल में पहुंचे, तो वहां अंधेरा था. जैसे ही अशोक ने नम्रता, गुड्डी, दीपू पुकारा तो मद्धिम रोशनी के साथ फूलों की बरसात होने लगी और ‘हैप्पी बर्थडे’ की आवाज़ से हॉल गूंज उठा. अशोक ने देखा, तो हैरान था. सामने उनके भइया-भाभी, गुड्डी, दीपू और नम्रता थी. इससे पहले कि अशोक कुछ पूछते, नम्रता ने ख़ुद ही कहना शुरू कर दिया, “अशोक, मुझे माफ़ करना कि आपसे बिना पूछे ही मैंने अकेले यह निर्णय ले लिया. लेकिन मैं रजनी भाभी से मिली और वहीं मुझे आलोक भइया भी मिले. भइया की आंखों में पछतावा साफ़ झलक रहा था. वो हालात के हाथों उस दलदल में फंस गए थे. अपनी पत्नी और बच्चों के लिए तड़प रहे थे. अपने भाई और अपने माता-पिता के प्यार को मिस कर रहे थे. अपने माता-पिता की मौत के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार मानकर फूट-फूटकर रो रहे थे. मुझे यही सही लगा कि आपके जन्मदिन के अवसर पर आपको अपना परिवार तोहफे के रूप में लौटाऊं. मैं भइया-भाभी को साथ ले आई. अब यही हमारे माता-पिता हैं. घर के बड़े हैं. इनके आशीर्वाद के बिना हमारा परिवार और हमारा प्यार अधूरा है. आगे आप जैसा ठीक समझें.”
“नम्रता, सच में तुम मेरी सच्ची जीवनसंगिनी हो. मुझे इससे अनमोल तोहफ़ा मिल ही नहीं सकता था. मैं स़िर्फ तुमसे प्यार ही नहीं करता अब, बल्कि बेहद सम्मान भी करता हूं.”
इसी बीच हंसी-ख़ुशी में आलोक और रजनी भी अपने प्यार को आंखों ही आंखों में फिर से तलाश रहे थे और दोनों बच्चे सबके बीच बेहद ख़ुश थे.
उषा किरन तलवार
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