दर्पण धुंधलाया हुआ हो या चिटका हुआ, दोनों में बड़ा फ़र्क है. समानता है तो एक ही, एक में प्रतिबिंब संपूर्ण होते हुए भी धुंधला जाता है और दूसरे में टुकड़ों में बंट जाता है, लेकिन दोनों ही स्थितियों में वेदना एक जैसी होती है.
कभी-कभी मन की गति इस प्रकार हो जाती है, जो न जीने देती है न मरने. एक अजीब से मानसिक द्वंद्व में घिरा व्यक्ति जाने कितनी असहनीय पीड़ा झेलता है. पीड़ा के नाम से मैं अक्सर हंस दिया करती थी. मुझे लगता था पीड़ा स्वयं कहीं नहीं है, व्यक्ति ने स्वयं को दुखी प्रकट करने के लिए महज़ एक मुखौटा लगाया है. दुख का संबंध मन की भावना से है. लोग चाहें तो दुख में सुख भी ढूंढ़ सकते हैं, पर कुछ भाग्यहीन सुख को भी दुख समझ रोते रहते हैं.
कहते है कलम भी तभी चला करती है, जब दुख दिल की परतों में धंस जाया करता है. मुझे ऐसे दुख का कोई अनुभव नहीं है. मुझे स्वयं नहीं पता, कब किन क्षणों में कैसे कलम पकड़ लेती हूं और अक्षर कैसे अपने आप निकल पड़ते हैं. अक्षरों के समूह को पृष्ठों पर अंकित देखकर मैं स्वयं चकित रह जाती हूं.
अभी कल की ही तो बात है, जाने कैसे मेरे हाथ से दर्पण छूट गया. एक हल्की सी आवाज़ हुई. शायद दूर से किसी को सुनाई भी न पड़ती. मैंने दर्पण को पलट कर देखा, अनगिनत टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें पड़ गई थीं. दर्पण टूट गया था. काफ़ी देर तक मैं उस टूटे दर्पण में अपना चेहरा देखने का प्रयास करती रही थी, पर किरचों में प्रतिबिम्ब भी किर्च ही बन जाया करते हैं, इसका मुझे पहली बार एहसास हुआ था. जाने क्यों उस चिटके हुए दर्पण को मैं उठाकर फेंक न सकी, बल्कि नन्हीं-नन्हीं किरचों को भी उसी में सहेज कर एक तरफ़ रख दिया.
दर्पण धुंधलाया हुआ हो या चिटका हुआ, दोनों में बड़ा फ़र्क है. समानता है तो एक ही, एक में प्रतिबिम्ब संपूर्ण होते हुए भी धुंधला जाता है और दूसरे में टुकड़ों में बंट जाता है, लेकिन दोनों ही स्थितियों में वेदना एक जैसी होती है. अभी दर्पण की टूटन में दर्शन खोज रही थी कि तभी पोस्ट मैन की आवाज़ सुन कर बाहर दौड़ी. पोस्ट मैन एक पोस्टकार्ड मेरे हाथ में थमा कर चला गया.
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मैं सरसरी नज़र से ख़त में लिखी इबारत बांचने लगी. ख़त बड़े भैया ने लिखा था. मां ने लिखवाया था. ख़त में तो यही लिखा था, पर क्या पता भैया ने अपनी बात को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए मां का उल्लेख कर दिया था. ख़त की इबारत मैं ज्यों-ज्यों पढ़ती जा रही थी, मेरा व्यक्तित्व वैसे-वैसे ही टूट-टूट कर किर्च-किर्च होता जा रहा था. मैंने भावावेश में पूरी चिट्ठी को मुट्ठी में ज़ोर से भींच लिया. मैं जैसे अपने पूरे व्यक्तित्व का निचोड़ अपनी मुट्ठी में पूरी जिजीविषा से भर लेना चाहती थी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. मात्र ख़त मुड़ा-मुड़ा होकर रह गया. हथेलियां पसीज उठीं. एक हल्के-से चटाख की आवाज़ हुई, जिसे दर्पण की तरह केवल मैंने महसूस किया और फिर ढेरों किर्चे मेरे दिल में घुसकर लहूलुहान करने लगीं.
मां और भैया मेरे बारे में इतना ग़लत सोच सकते हैं, मुझे जैसे अभी भी यक़ीन नहीं हो रहा था. ढलती उम्र में भी क्या नारी-पुरुष संबंध को एक ही दृष्टि से देखा जाता है? क्या सिर्फ़ नारी पुरुष का एक ही संबंध है? जो बात कभी मेरे मस्तिष्क में न आई, वह मेरे ही सम्बन्धियों ने क्यों कर सोच ली? मेरे अपने कहे जाने वाले खून के रिश्ते... उफ़... क्या कहूं मां को? क्या भैया के लिए कहूं? राजीव सुनेंगे, तो क्या सोचेंगे? श्रीकांत के सामने कैसे नज़रें उठा पाऊंगी? जब मेरे रिश्तेदारों का यह हाल है, तब अन्य लोग क्या सोचेंगे? जाने कितने सवाल मेरे मन का मंथन करने लगे?

राजीव ने मेरे साहित्यिक पथ को अपने उत्साहवर्धक शब्दों से और भी सुगम कर दिया है. जब कभी मैं निराश हो थक जाती हूं, उन्हीं के शब्द मुझे साहित्यिक ऊर्जा देते हैं.
"रत्ना, तुम्हारी सफलता मेरी सफलता है. जब लोग तुम्हारी कहानी पढ़कर सराहते हैं तो मेरा सिर गर्व से तन जाता है." और उन क्षणों में मैं निराशा से उत्पन्न क्षोभ को आंसू का रूप देकर राजीव की छाती पर सिर रख बहा देती हूं. राजीव की उंगलियां बालों में घूमती हुई मुझे आश्वस्त करती रहती हैं. ऐसे समय में मुझे लगता है, मेरी भंवर में फंसी किश्ती को एक मज़बूत सहारा मिल गया है. अब किश्ती मझधार में नहीं भटकेगी.
मन का गुबार निकल जाने पर स्वयं राजीव चाय बनाकर पेश करेंगे, "लो रत्ना, थोड़ा फ्रेश हो लो." और फिर मैगज़ीन उठाकर किसी लेख की तारीफ़ करेंगे, किसी कहानी की कमियां निकालेंगे या किसी ग़ज़ल का कोई ख़ूबसूरत शेर सुनाएंगे. बस, मन की बदली बरस कर साफ़ हो जाती है. उत्साह की किरणें फिर उगते सूरज सा चेहरे पर उभर आती है, जिन्हें राजीव बढ़कर चूम लेते हैं, "शाबाश रत्ना, शाबाश, अब ठीक है."
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शुरू-शुरू में मुझे बाहर निकलने या किसी पुरुष लेखक से बात करने में बड़ी हिचक होती. राजीव मुझे सहारा देते. ऐसे समय स्वयं उपस्थित रह कर मेरा मनोबल बढ़ाते. खाली समय में साहित्य को लेकर एक निरर्थक सी बहस छेड़ देते. इस रूप में वे मुझे बहस करना सिखा रहे थे, मेरा आत्मविश्वास झकझोर रहे थे.
राजीव के साहचर्य में मुझे अपनी मंज़िल बेहद आसान लग रही थी. मेरे जीवन का एकाकीपन साहित्य के अगाध पयोधि में डूब कर रसमय हो गया था. घर में किताबें और मैगज़ीन का ढेर लगा रहता. स्वयं राजीव कोई अच्छी सी किताब बाज़ार में देखते तो उठा लाते. मैं स्वयं उनकी इस आदत पर खीज पड़ती, "इतना ख़र्चा करोगे तो कैसे चलेगा?"
मेरे इस उलाहने का जवाब उनके पास बहुत अच्छी तरह मौजूद था, "रत्ना, लेखक के लिए अध्ययन, मनन और चिन्तन भी उतना ही आवश्यक है, जितनी एकाग्रता."
मैं आश्चर्य से राजीव को देखती रहती. मेरी प्रश्न भरी दृष्टि को वे फ़ौरन भांप लेते.
"तुम नहीं समझती, मैं समझता हूं. यह ठीक है रत्ना कि मुझे साहित्य का इतना ज्ञान नहीं है. मैंने विज्ञान पढ़ा है, पर इतना तो मैं जानता हूं कि जिस काम को किया जाए, उसे पूरी लगन, निष्ठा और समर्पण से किया जाए, तभी सफलता मिलती है."
जब सफलता का यह रहस्य ज्ञान मैंने उनके मुंह से सुना, मुझे मेरे पति किसी विद्वान पुरुष से कम न लगे. मेरे स्नेह में श्रद्धा भी जाने कब आकर मिल गई, पता ही न चला..
मैं जब भी कलम लेकर बैठ जाती, राजीव कभी बीच में न टोकते, चाहे कितना भी आवश्यक कार्य हो. हालांकि मेरा प्रयास यही रहता कि मेरे लेखन से राजीव को कोई नुक़सान न हो. एक-दूसरे के लिए त्याग-समर्पण का भाव लिए मैं धीरे-धीरे सीढ़ियां लांघ रही थी. एक पहचान सी बनाती जा रही थी. साहित्यिक मित्रों का दायरा भी बढ़ रहा था. राजीव घर होते तो साहित्यिक वार्तालाप में हिस्सा लेते, वरना मैं अकेले ही सब सम्भालने लगी थी.
मेरा उद्देश्य केवल आगे और आगे बढ़ना था. लक्ष्य अभी बहुत दूर था. स्वयं को स्थापित करने के लिए हाथ-पांव मार रही थी. अपने ही आत्मविश्वास के बल पर यहां तक पहुंच पाई थी. किसी को खुशामद करना या मक्खनबाज़ी करना मेरे स्वभाव में न था. कलम में ताक़त होगी और शब्दों में सम्मोहन होगा, तो सभी को आवाज़ सुननी पड़ेगी.
रचनाएं छपे या न छपें, पारिश्रमिक मिले या न मिले, मुझे इसकी परवाह नहीं थी. राजीव इतना कमा लेते थे कि दो वक़्त की रोटी के साथ साहित्य साधना भी आराम से चल रही थी. ज़रूरी नहीं था कि साहित्यिक गोष्ठी में राजीव भी साथ चलते. शुरू-शुरू में मैं राजीव को लेकर ही चलती थी, पर अब राजीव के पास समय होता तो चलते. राजीव मेरी राह में कहीं भी बाधक नहीं थे. किसी प्रकार का शक-शुबहा हमारे बीच न था. शुरू-शुरू में मेरी झिझक को भी राजीव ने तोड़ा.
"रत्ना, यह समाज स्त्री-पुरुष दोनों से मिलकर बना है. हम जो भी कार्य करते हैं, उससे दोनों ही प्रभावित होते हैं, कौन कम, कौन ज़्यादा, यह विषय उनका अपना है. स्त्री-पुरुष संबंध केवल एक ही संबंध नहीं है. वे मित्र है, आलोचक है, समीक्षक हैं, पाठक हैं, प्रशंसक हैं. इन्हें अपनी यात्रा में सहभागी बनाए बिना आगे नहीं बढ़ सकती."
'कितना खुला और विशाल दिल है राजीव का...' मैं मन ही मन सोचती. औरत तो बहुत जल्दी ईर्ष्यालु हो जाती है.
राजीव समझाते, "समाज में किसी भी काम को करने से पहले स्वयं को तौलना चाहिए. अपना धरातल देखना चाहिए. फिर धीरे-धीरे पांव बढ़ाने चाहिए. सबसे बड़ी बात मन के साथ-साथ बुद्धि भी खोलकर रखनी चाहिए. बिना सोचे-समझे किसी पर कीचड़ उछालने वाले तुच्छ मनोवृत्ति के होते हैं. किसी के साथ दो-चार क्षण बोलने या नमस्कार कर लेने से कोई संबंध नहीं बन जाया करते. फिर अपनी राह पर चलने वाले कुत्तों के भौंकने की परवाह नहीं करते."
राजीव मेरे पति के साथ-साथ मेरे शिक्षक, मेरे मार्गदर्शक सभी बन जाते. मैं निश्चिन्त होकर आगे बढ़ रही थी. पीछे लौटकर देखने की फ़ुर्सत मुझे नहीं थी.
मेरी रचनाओं में अक्सर गांव की माटी की ख़ुशबू होती. गांव का वातावरण होता. कच्ची-पक्की धूल उड़ाती या कीचड़ भरी गलियां, गांव के लोकगीत, मल्हार, ठप्पे, कोयल कूक से लेकर ढोर डेंगर हांकने और उपले पाथने के साथ-साथ अल्पायु में विवाह की चर्चा भी रहती है. मैंने गांव को बहुत क़रीब से देखा और जिया है. कलम पकड़ती कि मेरे मन-प्राण में बसी गांव की अमराइयां मुझे पुकारने लगती.
श्रीकांत लेखक के साथ-साथ मेरे पाठक, प्रशंसक व आलोचक भी थे. गांव देखने की लालसा उनमें भरती जा रही थी. उन्होंने कहा भी, "रत्ना जी, एक बार अपने गांव ले चलिए, हम भी एक झलक देख लें. शायद गांव हमारी कलम में भी उभर आए."
इत्तेफ़ाक की बात.. दिल्ली से साहित्यिक गोष्ठी का निमंत्रण दोनों को मिला. रास्ते में गांव पड़ता था. मन ही मन सोचा, 'चलो सबसे मिल भी लूंगी, उधर श्रीकांत की भी इच्छा पूरी हो जाएगी.'
जिस उत्साह से मैं श्रीकांत को लेकर घर पहुंची, सभी से उसका परिचय कराया, इतनी आत्मीयता से किसी ने भी नहीं लिया. मुझे स्वयं अटपटा सा लग रहा था. मैं सोच रही थी कि श्रीकांत सभी के लिए अजनबी है. इसी से सहज नहीं हो पा रहे हैं. मैंने श्रीकांत को पूरा गांव दिखाया. खेत, खलिहान, अमराइयां सभी कुछ.
अगले दिन मैं दिल्ली चली गई.
एक दिन दिल्ली रुक कर घर लौट आई. श्रीकांत वहीं किसी काम से रुक गए. राजीव ने बड़े उत्साह से सारी गतिविधियां सुनी. वहां से लौटे दो दिन हो गए थे, तभी यह ख़त मेरी समस्त आशाओं पर पानी फेरता आ पहुंचा, भैया ने लिखा था-
रत्ना, मां लिखा रही है, तुम स्वयं समझदार हो. अपनी साहित्यिक यात्रा को अपने तक सीमित रखो. हमें अजनबियों का परिचय देने में परेशानी होती है. वे चाहे तुम्हारे लिए कुछ भी हों.
'अजनबी' और 'कुछ' किसी कांटें की तरह दिल में गड़ रहे थे. मां ने क्या सोचकर लिखा दिया है, नहीं पता. कब तक पत्र हाथ में थामे खड़ी रही, कब राजीव आए, कब उन्होंने पत्र लेकर पढ़ा, मुझे कुछ मालूम नहीं, पर जब आहिस्ते से उन्होंने कंधे थपथपाए, तब मुझे एहसास हुआ. मैं भरभरा कर गिरने वाली थी कि राजीव ने बांहों में थामकर मुझे रोक लिया. मेरी आंखों में झांकते हुए बोले, "इधर मेरी तरफ़ देखो रत्ना."
मैंने राजीव की आंखों में झांका. मेरा पूरा प्रतिबिम्ब वहां था, पल भर में मेरे दिल पर छाई धुंध छंट गई. मेरा दर्पण तो राजीव है. यह दर्पण कभी नहीं टूट सकता. मैंने आहिस्ते से कॉर्नर पर रखे टूटे दर्पण को उठाकर कूड़ेदान में डाल दिया. मुझे राजीव के कहे शब्द याद आने लगे, "भौंकने वाले कुत्तों पर राहगीर ध्यान नहीं देते." मैंने देखा, राजीव पत्र की चिंदी-चिंदी कर कूड़ेदान में डाल रहे थे.
- सुधा गोयल

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