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कहानी- टूटे खिलौने (Short Story- Toote Khilone)

इतना सुनते ही उसका हाथ फिसला और वायलिन का तार टूट गया. उसके बाद वायलिन बजना बंद हो गया. ऐसी कितनी ही घटनाएं भरी पड़ी हैं ज़िंदगी के सुरों के बिखरने की, फिर भी वह सही सलामत है. भला खिलौनों के टूटने से कहीं आदमी टूटता है. खिलौने तो बस जज़्बात भर होते हैं और आदमी को जीने के लिए भावनाओं से अधिक ज़रूरत प्रैक्टिकल बनने की होती है. ज़ज़्बात का बिखरना भी कहीं दिखाई देता है? वह तो एक अंदरूनी प्रक्रिया है. Kahani उसने कुर्सी का हत्था पकड़कर ख़ुद को संभाला. ऐसे लग रहा था कि चक्कर खाकर गिर पड़ेगा. आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था. तभी भीतर से ज़ोर का अट्टहास सुनाई पड़ा, जैसे कोई कह रहा हो- बस, लड़ चुके अपने आप से? वह जवाब देना चाहता था उन बहुत से सवालों का, जो सालों से उसे घेरे हुए थे, लेकिन उसे लगा कहने के लिए व़क़्त कम है. फिर वह कहे किससे? काश! कोई उसकी बात भी सुनता. दर्द बढ़ रहा था कि तभी लगा कोई उससे कह रहा हो- बस, इतनी जल्दी हार मान गए. उसने आंखें फैलाकर और भीतर झांकने की कोशिश की, अरे यह तो उसके खिलौने की सेना के टैंक का सिपाही था. दर्द में भी वह मुस्कुरा दिया. ‘हां दोस्त, तुम्हें तो मैं बचपन से जानता हूं और सचमुच तुम बहुत बहादुर हो.’ सिपाही बोला, ‘तुम्हें याद है मेरे हाथ टूटे हुए हैं और फिर भी मैंने हार नहीं मानी, जबकि तुम हो कि सब कुछ सही सलामत होते हुए भी टूट रहे हो. देखो, शरीर से टूटा आदमी नहीं हारता. हां, जिस दिन तुम दिल से टूट जाओगे, उस दिन सचमुच हार जाओगे. यह हार ज़िंदगी के जंग की हार होगी. उठो, तुम्हें अपनी बात कहने और अपना पक्ष रखने के लिए अभी और जीना है.’ उसे लगा दिल का दर्द कम हो रहा है. कोई है जो उसे कह रहा है ज़िंदगी में इतनी जल्दी हार नहीं मानते. उसकी आंखों से झर-झर आंसू बह निकले. उसने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, गहरा अंधेरा था. बस बरामदे में नाइट बल्ब टिमटिमा रहा था. उसे अपना खिलौनेवाला सिपाही याद आया. बहुत प्यार करता था वह अपने इस सिपाही से. हर समय हाथ में दबाए पूरे घर में दौड़ता रहता और रात में सोता तो सिरहाने रखकर. उसे लगता जब तक यह सिपाही उसके साथ है, तब तक कोई उसे नहीं हरा सकता. एक दिन छोटे भाई ने खेल-खेल में सिपाही को दीवार पर दे मारा. सिपाही के हाथ टूट गए. भाई जीतना चाहता था और सिपाही की बांह तोड़कर वह ख़ुद को विजयी समझ रहा था. तब उसने रोते हुए भाई की शिकायत पापा से की तो वे बोले, ‘आपस में समझ लो. छोटा भाई है. उसे उत्पात करने का अधिकार है. हां, तुम बड़े हो, उसे क्षमा कर दो.’ भाई को रोते देख वह बोला, ‘भैया, आप भी मेरा खिलौना तोड़ दो, बात बराबर हो जाएगी.’ और वह बोला, ‘कोई बात नहीं भाई, मैं इसके हाथ जोड़ दूंगा, पर तुम्हारा खिलौना नहीं तोड़ूंगा. भला तुम्हारे खिलौने तोड़ने से मेरे सिपाही का हाथ थोड़ी जुड़ जाएगा. तुमने अपने कोर्स की क़िताब में वह कहानी नहीं पढ़ी, जिसमें राजा ने तीर से घायल हंस उस राजकुमार को दिया, जिसने उसे चोट लगने पर बचाया था. उसे नहीं, जिसने उसे तीर मारकर धरती पर गिराया था. जानते हो क्यों? क्योंकि मारनेवाले से बचानेवाले का अधिकार ज़्यादा होता है.’ आह! फिर एक टीस उठी. बड़े होने पर भाई को मकान चाहिए था और उसने रिश्तों को खिलौने की तरह ही तोड़ दिया. अजीब-सी बात है... उसके साथ वह तो सदैव ही सही रास्ते पर चलता है, नीति का ध्यान रखता है और सब के सब उसी से नाराज़ हो जाते हैं. और एक दिन दिल की दीवार पर भावनाओं का ख़ून बिखर जाता है. वह सिर से पांव तक लहूलुहान हो उठता है और फिर ऐसे ही कभी कोई सिपाही, तो कभी वायलिन उसे जीने की ताक़त दे देता है. यह भी पढ़ेनवरात्रि 2019: जानें शरद नवरात्रि कलश/घट स्थापना का शुभ मुहूर्त और पूजन विधि (Shardiya Navratri 2019: Date-Time-Kalash Sthapana Muhurat-Puja Vidhi-Colours) वायलिन का ध्यान आते ही एक पुरानी बात याद करके उसे हंसी आ गई. उस दिन वह ख़ुशी बांटने के लिए घर में वायलिन बजा रहा था कि भीतर से आवाज़ आई, ‘प्लीज़, यह बाजा मत बजाया करो. तुम्हें भले ही इसके सुरों से ख़ुशी मिलती हो, पर आस-पड़ोस से लेकर घर के सभी सदस्य तुम्हारे इस वायलिन के बजने से डिस्टर्ब हो जाते हैं.’ इतना सुनते ही उसका हाथ फिसला और वायलिन का तार टूट गया. उसके बाद वायलिन बजना बंद हो गया. ऐसी कितनी ही घटनाएं भरी पड़ी हैं ज़िंदगी के सुरों के बिखरने की, फिर भी वह सही सलामत है. भला खिलौनों के टूटने से कहीं आदमी टूटता है. खिलौने तो बस जज़्बात भर होते हैं और आदमी को जीने के लिए भावनाओं से अधिक ज़रूरत प्रैक्टिकल बनने की होती है. ज़ज़्बात का बिखरना भी कहीं दिखाई देता है? वह तो एक अंदरूनी प्रक्रिया है. उसने फ्रिज से पानी की बॉटल निकाली और ग्लास में पानी डाल पीने लगा. जैसे-जैसे पानी की घूंट गले के नीचे उतरती, उसे लगता तबियत बेहतर हो रही है. यह क्या है? कौन है? जो उसे अकेले में तंग करता है, उसके अपने ही विचार तो उसे मथ डालते हैं. उसे लगा इस बार उसे शतरंज के मोहरे चुनौती दे रहे हैं. ज़िंदगी इतनी सरल होती तो आज साठ पार करने के बाद सभी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर वह इतना बेचैन न होता. उसे लगा चौसर पर बिछा काला बादशाह हंस रहा है- देखो, तुम्हें स़फेद मोहरे से खेल रहे अपने ही लोगों को मात देनी है. तुम्हें अपने पैदल लड़ाने हैं, घोड़े और ऊंट कटाने हैं और हर हाल में मुझे बचाना है. वह चौंका. यह खिलौने का बादशाह उसके दिल में बैठकर कैसा क़िरदार निभा रहा है. नहीं, असली ज़िंदगी कोई शतरंज की बिसात नहीं है जिस पर रिश्ते दांव पर लगा दिए जाएं. वह क्यों अहंकार के बादशाह को बचाने के लिए अपने हाथी-घोड़े बलिदान कर देता है? इससे पहले कि वह कुछ और सोचता, भावनात्मक दौरा आगे बढ़ता तभी फ़ोन की घंटी बज उठी. इतनी रात गए कौन फ़ोन कर रहा है. उसका दिल धकड़ने लगा. कहीं यह भी कोई भ्रम न हो? अपने आप से बातचीत का ही हिस्सा. मगर नहीं फ़ोन की घंटी लगातार बज रही थी और उसके जगे होने का एहसास करा रही थी. वह उठा. उसने रिसीवर उठाया और धीरे से बोला, “हैलो...” उधर से आवाज़ आई, “हैलो पापा, आप सो तो नहीं रहे थे. हैप्पी बर्थडे पापा.” “कौन? कौन बेटा अरूप तुम...” उसकी आंखों से झर-झर आंसू बह निकले. “कैसे हो बेटा? पूरे तीन साल बाद तुम्हारी आवाज़ सुन रहा हूं.” “मैं ठीक हूं पापा. पहले सोचा रात में फ़ोन करूं कि न करूं, फिर दिल नहीं माना.” “बेटा, कब से तरस रहा था तुम्हारी आवाज़ सुनने को.” “तो पापा फ़ोन क्यों नहीं किया?” “बेटा, तुमने भी तो फ़ोन नहीं किया मुझे.” “ओह, पापा आप मुझसे नाराज़ थे और मैं डर रहा था.” “बेटा, मैं नाराज़ था तो क्या? तुम माफ़ी मांग लेते या मुझे मना लेते.” “पापा, मैं आपको बचपन से जानता हूं.  आप अपनी जगह सही होते हैं.” “बेटा, जब मैं सही हूं, तो तुम मेरी बात मान क्यों नहीं लेते?” अरूप बोला, “पापा, बस यही डर तो सबको आपसे बात करने से रोक देता है. पापा, आप इतने ज़िद्दी क्यों हैं?” अरूप को लगा उधर से रोने की आवाज़ आ रही है. “बेटा, मैं क्या करूं? अब इस उम्र में ख़ुद को बदल तो नहीं सकता. मैं सही हूं इतना तो जानता हूं, पर आज पता लगा कि मैं ज़िद्दी भी हूं. ज़िद्दी हूं तभी तो अकेला हूं.” यह भी पढ़ेसीखें ख़ुश रहने के 10 मंत्र (10 Tips To Stay Happy) तभी अरूप बोला, “पापा प्लीज़, आप रोइए मत. आप तो बहुत मज़बूत हैं और मैं आज आपका दिल नहीं दुखाना चाहता. आई एम सॉरी पापा. लीजिए, मम्मी से बात करिए.” “हैलो शेखर, ओ शेखर मेरी भी सुनोगे कि बस अकेले ही रोते रहोगे.” “हां बोलो, तुम्हारी बात नहीं सुनूंगा तो किसकी सुनूंगा.” “शेखर, मैंने बहू देखी है बहुत सुंदर और सुशील है. देखो, अरूप तुम्हारा बेटा है और उसका अपनी ज़िंदगी के बारे में ़फैसला लेने का कुछ हक़ तो बनता है.” “बात उसकी पसंद की नहीं है, तुम तो जानती हो मैं उसे कितना प्यार करता हूं. क्या वह मेरी एक बात नहीं मान सकता था. भारतीय रीति से किसी हिंदुस्तानी लड़की से शादी कर लेता. अपने देश में क्या लड़कियों की कमी है.” “शेखर, एक बार बहू को देख तो लो, मेरा तो दिल जीत लिया उसने. सुनो, अरूप का इंडिया आने का मन कर रहा है और बहू भी आना चाहती है. उसके पापा अमेरिकन हैं, पर उसकी मां केरल की है और पूरे भारतीय संस्कारवाली. उसके मामा भारत में रहते हैं और दोनों पूरे रीति-रिवाज़ से शादी करना चाहते हैं.” उसे कुछ अच्छा महसूस हुआ. “ठीक है, जैसा तुम लोग चाहो.” अरूप बोला, “पापा प्लीज़, मुझे माफ़ कर दो.” शेखर बोला, “बेटा, मुझसे अलग होकर तुम देश से दूर हो, दिल से नहीं.” “पापा, मैं आ रहा हूं.” अरूप को लगा अब पापा कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं. वह धीरे-से बोला, “पापा, अपना ख़याल रखना.” उसके शरीर की तनी हुई नसें ढीली पड़ चुकी थीं और अपने आपसे वार्तालाप का स्वर कुछ स्पष्ट हो रहा था. इस समय उसे अपना वायलिन बेतरह याद आ रहा था. उसने आलमारी के ऊपर नज़र डाली. वायलिन वहीं था, कुछ धूल जम गई थी. उसने हिम्मत कर उसे उठा लिया. एक टूटा हुआ तार जैसे कुछ कह रहा हो. उसने बेस से तार ढीला किया और टूटे तार को जोड़ जैसे ही हाथ फेरा वायलिन से सुर फूट पड़े. उसका चेहरा मुस्कुरा उठा. एक, दो, तीन और वह धीरे-धीरे वायलिन के सुर साधने लगा. चेहरे से तनाव के बादल छंट रहे थे. इससे पहले कि वह उन सुरों में खो जाता, फ़ोन फिर बज उठा. इस बार वह शांत था, कोई बेचैनी नहीं और न ही रात का एहसास. उसने आराम से फ़ोन उठाया. आज उसका बर्थडे है और ज़रूर यह भी किसी बहुत अपने की ही आवाज़ थी. “भैया, जन्मदिन की बधाई.” “कैसे हो सुधीर? बड़े सालों बाद तुम्हें भैया याद आए.” “भैया, क्या करूं? अपनी ग़लती का जितना एहसास होता, उतना ही मैं संकोच के मारे तुम से बात नहीं कर पाता.” “क्या सुधीर, कहीं अपनों से बात करने में भी संकोच होता है. आज पांच साल बाद बात  भी कर रहा है, तो बड़े भाई को रुलाने के लिए.” “भैया, मुझे घर पर कब्ज़ा करके कुछ भी हासिल नहीं हुआ. मैंने थोड़े-से ज़मीन के लिए जीते-जागते अपने लोगों को खो दिया. इसका एहसास मुझे तब हुआ, जब शादी के बाद पिंकी बेटी ने कहा कि पापा, यह घर मेरा नहीं है और मेरा मायका ताऊजी के घर में है. मैं इस घर में तभी क़दम रखूंगी जब आप ताऊजी को यहां लेकर आओगे. भैया, मुझे यह घर काटने को दौड़ता है. सच है भैया, ईंट और गारे से तो मकान बनता है, घर तो घरवालों से बनता है. भैया, आप यहां आ जाओ या फिर मुझे अपने पास बुला लो. रहना ही तो है, कहीं भी रह लूंगा. दीवारें हमारे जाने के बाद भी यहीं खड़ी रहेंगी. हां, दिल के बीच की दीवारें गिर गईं तो जीवन जीना आसान हो जाएगा. वह लगातार बोलता ही जा रहा था. “भैया, तुम्हें याद है, जब हम बालू के टीले में घरौंदा बनाते थे तो एक तरफ़ से तुम अपना दरवाज़ा बनाते और दूसरे तरफ़ से मैं अपना और  फिर जब हम अपने-अपने दरवाज़े में हाथ डालते, तो हमारे हाथ उस घरौंदे  में एक-दूसरे को पकड़ लेते और हम कहते, हमारे दरवाज़े अलग हो सकते हैं, पर घर नहीं.” “सुधीर, अब तू भी मुझे रुलाएगा क्या? अभी अरू का फ़ोन आया था, वह आ रहा है.” “क्या कह रहे हो भैया? अरू आ रहा है? मेरी तो आंखें ही तरस गई थीं उसे देखने को.” “हां सुधीर, अरू आ रहा है और बहू भी पसंद कर ली है उसने. उसकी शादी यहीं करनी है बड़ी धूमधाम से और सुनो, पिंकी बेटी को मेरे पास भेज देना. कह देना तुम्हारे ताऊजी और मुझमें कोई मतभेद नहीं है. अब बचे ही कितने दिन हैं हमारी ज़िंदगी के, जो गिले-शिकवे लेकर ऊपर जाएं.” “ऐसा मत कहो भैया, भगवान तुम्हें लंबी उम्र दें.” “सुधीर, देर मत करना, कल सुबह ही आ जाओ, सारी तैयारी तुम्हें ही करनी है.” इस बार शेखर को लगा कि सुधीर रो रहा हैै. “क्या हुआ सुधीर? तू रो क्यों रहा है?” “भैया, यह सोचकर कि तुम्हें कितना ग़लत समझ बैठा? मुझे पता होता कि तुम इतनी आसानी से मुझे माफ़ कर दोगे, तो भला मैं माफ़ी मांगने में इतने साल क्यों लगाता?” “सुधीर, इतनी उम्र बीत जाने पर भी अपने भाई को नहीं समझ पाए. अब तुम भी अरूप की तरह यह मत कह देना कि भैया, तुम ज़िद्दी हो.” दोनों भाई हंस पड़े. “और सुनो सुधीर, कल आना तो हीरा हलवाई की बालुशाही ज़रूर लाना. मुद्दत हो गई मुझे ऐसी बालुशाही खाए.” इसके बाद अगर फ़ोन हाथ में रहता भी तो बात नहीं हो पाती. फ़ोन रखते ही शेखर को लगा, कहीं ऐसा न हो ख़ुशी से हार्ट फेल हो जाए. वह सोचने लगा- जब मिट्टी के टूटे और बेजान ख़िलौने फिर से जुड़ सकते हैं, तो हमारे टूटे रिश्ते, जिनमें एक-दूसरे की भावनाओं को समझने की ताक़त है, वे दुबारा क्यों नहीं जुड़ सकते? सचमुच उसे लगा, टूटे रिश्तों को जोड़कर वह ज़िंदगी की जंग जीत गया है.

- मनोहर

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