जब छह महीने पहले हम इस शहर में आए थे, तो उस दिन सरोजजी ने हमें एक कप चाय पिलाई थी. उस एक कप चाय का कर्ज़ा मय ब्याज इतना ज़्यादा था कि उतारे नहीं उतर रहा था. मैं अब तक चक्रवृद्धि ब्याज की दर से बढ़ते उनके कर्ज़े को उतार नहीं पा रही थी. इसी कर्ज़ के दौर में उनके घर आए दिन या तो चीनी ख़त्म होती थी या चाय पत्ती.
जैसे ही सरोजजी ने अपने घर के अंदर जाकर भड़ाक से दरवाज़ा बंद किया.. मैं, मेरे पति और मेरे दोनों बच्चे, हम चारों एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे और फिर एकदम से हम सबके मुंह से ज़ोरदार ठहाका निकल गया.
मेरे दोनों बच्चों का हंस-हंस के बुरा हाल था और वो दोनों पेट पकड़कर नीचे बैठ गए थे. पतिदेव भी मुस्कुराते हुए मेरी तरफ़ देखकर बोले, "तुम भी ना यार कमाल करती हो कभी कभी."
अब मैं क्या बोलती?
”जो हो गया… सो हो गया.”
“दोस्तों, मैं अवनी! दो प्यारे-प्यारे बच्चों की मां.
बड़ा बेटा पंन्द्रह साल का है और बेटी अभी ग्यारहवीं में गई है.
मेरे पति राघव एमएनसी में जॉब करते हैं और इसी चक्कर में हम अपने घर से दूर दिल्ली में रहते हैं. अब आप सोचेंगे कि यह सरोजजी कौन है फिर? सरोजजी हमारे सामनेवाले फ्लैट में रहती हैं. उनके घर में भी उनके पतिदेव और इकलौती बेटी है. पतिदेव सरकारी नौकरी में हैं और उनका ख़ुद का घर है. बेटी अच्छी-ख़ासी पढ़ी-लिखी है और नौकरी के लिए दूसरे शहर गई हुई है अर्थात सरोजजी और उनके पति, वो दोनों ही उस घर में रहते हैं.
हमें इस शहर में आए अभी ज़्यादा टाइम नहीं हुआ है, मुश्किल से छह महीने बीते होंगे, लेकिन इन छह महीनों में हमारी प्यारी सरोजजी ने हमें नाकों चने चबवा दिए हैं.
जब छह महीने पहले हम इस शहर में आए थे, तो उस दिन सरोजजी ने हमें एक कप चाय पिलाई थी. उस एक कप चाय का कर्ज़ा मय ब्याज इतना ज़्यादा था कि उतारे नहीं उतर रहा था. मैं अब तक चक्रवृद्धि ब्याज की दर से बढ़ते उनके कर्ज़े को उतार नहीं पा रही थी. इसी कर्ज़ के दौर में उनके घर आए दिन या तो चीनी ख़त्म होती थी या चाय पत्ती.
कभी आलू नहीं है, तो कभी-कभी टमाटर भी ख़त्म हो ही जाता है, अब क्या कीजिएगा… एक आध चीज़ अगर ख़त्म हो जाए, तो आदमी बाहर थोड़ी ना भागता है… खड़े पैर दुकान पर कौन जाए?
पड़ोसी किसलिए होते हैं? यह सोचकर सरोजजी दो-चार दिन तो हम से मांग कर ही निकाल लेती थीं.
उसके बाद कहीं जाकर उनका ख़त्म हुआ सामान आता था, पर इतनी देर में कोई दूसरी चीज़ खत्म हो जाती थी, अब वो इतने अधिकार से मांगने आती थी कि मना करते भी नहीं बनता था.
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आदमी उसी से तो मांगता है ना जिसे वह अपना समझता है. उनके इसी अपनेपन के चक्कर में कई बार तो मेरे घर में सामान ख़त्म हो जाता था, पर मैं संकोची स्वभाव की हूं, कभी कह नहीं पाती थी. उनके प्रेम और अधिकार के सामने मेरी ज़ुबान पर ताला पड़ जाता था.
मेरे बच्चे ज्यादा छोटे तो नहीं हैं, पर फिर भी बच्चों की तो खाने-पीने के मामले में कोई ना कोई फ़रमाइश लगी ही रहती है.
जब भी कभी कोई ख़ास चीज़ बनाती थी, तो उसकी ख़ुशबू चाहे मुझे ना आए, लेकिन सरोजजी के नथुनों में मुझसे पहले पहुंच जाती थी और किसी ना किसी बहाने वो बैल बजा देती थीं और उसके बाद जो भी चीज़ बनाई हो, उसे देखकर कहती, "अरे वाह !तुम्हें कैसे पता लगा आज मुझे यही खाने को मन था. तुम बिल्कुल मेरी छोटी बहन जैसी हो, मेरे दिल की सब बातें जानती हो.”
अब जब मेरी बड़ी दीदी मुझे ऐसे कहेंगी, तो मैं मना कैसे कर पाऊंगी?
मैं बड़ी शराफत से अपनी प्लेट का सामान उन्हें दे देती थी और वो भी मुझे दुआएं देती हुई अपने घर लौट जाती थीं.
अब यह सरोजजी का आए दिन का काम हो गया था. शुरु-शुरु में तो मैंने समझा अकेली रहती हैं, इकलौती बेटी भी बाहर है, पति सारा दिन ऑफिस में व्यस्त रहते हैं, अपने अकेले के लिए बनाने-खाने का मन नहीं करता होगा… इसलिए यहां से कुछ ले भी जाती हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? हूं तो पड़ोसी ही ना?
लेकिन फिर धीरे-धीरे उनकी दख़लअंदाज़ी बढ़ने लगी. एक बार उनकी कामवाली बाई चार दिन की छुट्टी पर चली गई, तो अगले दिन सरोजजी अपने घर के कपड़े उठाकर मेरे घर आ गईं, "आप की वॉशिंग मशीन खाली है, तो एक चक्कर मेरे कपड़े भी चलवा दीजिए."
उस दिन मुझे पता चला कि सरोजजी के घर में वॉशिंग मशीन नहीं है, क्योंकि कामवाली बाई काफ़ी समय से लगी हुई थी और वही सब काम करती थी.
मैं साफ़-सफ़ाई के मामले में थोड़ी सी वहमी हूं बेशक सरोजजी मेरी पूज्य दीदी जैसी थीं, पर फिर भी उनके गंदे कपड़े मेरी मशीन में डालने का मेरा मन नहीं किया. पर फिर भी मरता क्या न करता… मैंने कपड़े मशीन में डालकर धो दिए.
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वो तो शुक्र हुआ कि कामवाली बाई ज़्यादा लंबी छुट्टी पर नहीं गई, नहीं तो शायद आज वाला कांड तभी हो जाता.
सरोजजी इतनी प्यारी हैं कि उनको हमारे घर किसी भी समय आने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती थी.
अगर उनका कोई मनपसंद सीरियल आने का समय होता था और उनकी केबल ना आ रही हो, तो वह बेझिझक हमारे घर में स्मार्ट टीवी पर अपना प्रोग्राम देखने आ जाती थी.
वो इस बात की चिंता कभी नहीं करती थीं कि हो सकता है हम लोग आराम कर रहे हों या खाना खा रहे हों… अपनों से कैसी शर्म?
मैं तो जैसे तैसे झेल रही थी, लेकिन मेरे बच्चे अब खीझने लग गए थे. क्योंकि जब उनको टीवी पर कुछ देखना होता था, उसी समय सरोजजी ने भी कोई ना कोई फ़रमाइशी प्रोग्राम देखने का मन बनाया होता था.
अब ये तो मुझे लगने लग गया था कि मैं सरोजजी का इतना प्यार संभाल नहीं पा रही हूं, पर कैसे विराम लगाऊं इस पर, यह नहीं समझ आ रहा था.
उस पर तुर्रा यह था कि जब कोई खानेवाली चीज़ लेकर जातीं, तो उनका बहाना यह होता था, "अरे मैं तो आज बनाने ही जा रही थी… अच्छा हुआ तुमने बना लिया… हमें तो थोड़ा सा ही चाहिए होता है… मैं यहीं से ले जाती हूं और मैं कई बार मन मसोसकर रह जाती थी, क्योंकि बहुत बार ऐसा हुआ कि राघव के लिए वह चीज़ नहीं बच पाती थी.
सरोजजी का प्यार सिर्फ़ खाने-पीने की चीज़ों तक ही सीमित नहीं था. उनके प्रेम का विस्तार निर्जीव वस्तुओं तक हो चुका था.
अगर हम अपने घर के लिए कोई सामान ख़रीद कर लाते, जैसे- पिछले महीने हमारे घर स्मार्ट टीवी आया था, तो छूटते ही उनके मुंह से निकला था, "अरे, हम भी सोच रहे थे स्मार्ट टीवी लाने को… अच्छा हुआ तुम लोग ले आए. यहीं देख लिया करेंगे, जो कुछ देखना होगा." हमारी तो जान हलक में आ गई, ऐसे कैसे यहीं देख लिया करेंगे?
पर सरोजजी अपनी ज़ुबान की पक्की निकलीं. जब उनका मन करता था, वो स्मार्ट टीवी पर कोई न कोई प्रोग्राम देखने आ जाती थी, क्योंकि स्मार्ट टीवी पर बहुत सारी ऐप चलती थीं, जो केबल के द्वारा नहीं चलती हैं.
ऐसा नहीं था कि सरोजजी के पति की आमदनी अच्छी नहीं थी और वो कुछ ले नहीं सकते थे, लेकिन फिर भी शायद सरोजजी की इन्हीं कंजूसीवाली आदतों के कारण उन लोगों ने रोज़मर्रा की ज़रूरतों का सामान भी नहीं जुटा रखा था. वैसे भी जब छोटी बहन समान पड़ोसी हो, तो तेरा-मेरा करना असभ्यता की श्रेणी में आता है और हमारी सरोजजी कोई असभ्य प्राणी नहीं थीं.
यूं ही दिन निकल रहे थे और दिन पर दिन सरोजजी का प्यार बढ़ता जा रहा था.
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अब मुझे ऐसा लग रहा था जैसे इस प्यार की बेड़ियां मुझे चारों तरफ़ से जकड़ रही हैं और मैं इन बेड़ियों से छुटकारा पाने के लिए छटपटाने लग गई थी और शायद इसी छटपटाहट के कारण आज की घटना घट गई.
हुआ कुछ यूं कि दो-तीन दिन पहले हमारे घर ड्रॉइंगरूम में लगने के लिए एसी आया था.
आज जैसे ही कंपनीवाले एसी इंस्टॉल करके गए सरोजजी अपने प्यार का कटोरा लबालब भरे हुए हमारे घर आईं.
”अरे वाह! एसी लग गया है ड्रॉइंगरूम में… बहुत बढ़िया.. अब आदमी हर समय बेडरूम में ही थोड़ी ना घुसा रह सकता है.
हम भी सोच रहे थे लेने के लिए… चलो अच्छा हुआ तुम लोग ले आए… तुमने लिया.. या हमने लिया.. एक ही बात है." इतना सुनते ही उनके कुछ और बोलने से पहले ही घबराहट में मेरे मुंह से निकल गया, "नहीं नहीं भाभीजी, आपका वाला एसी नहीं लाए हैं, जब हम लेने गए थे तभी हमने बताया था उन्हें कि हमारी पड़ोसी सरोजजी भी एसी लेना चाहती हैं.. तो उन्होंने हमें कह दिया था कि हम उनकावाला आपको नहीं दे रहे हैं…"
इतना सुनते ही सरोजजी का मुंह एकदम काला पड़ गया, "आपके कहने का क्या मतलब है? कहीं आप ये तो नहीं जताना चाहतीं कि मैं आपके घर बिना आपकी मर्ज़ी के पड़ी रहती हूं?”
मन में तो आया कि कह दूं कि हांजी कहना तो यही चाहती हूं, पर मुझ जैसी मेमनी सिर्फ़ मिमिया के रह गई और सरोजजी? उनका प्रेम पिछली गली से निकल चुका था और अब उनका रौद्र रूप हमारे सामने था.
“कहिए तो मैं आपके घर ना आया करूं… मैं तो आपको अपनी छोटी बहन समझकर प्यार करती थी. मुझे क्या पता था कि आपको मेरा आपके घर आना पसंद नहीं है.
हमारे घर क्या एसी नहीं है? हां, ड्रॉइंगरूम में न सही बेडरूम में तो है. आपके घर कोई अनोखा एसी नहीं लगा है? आप ही को मुबारक हो आपका एसी… अब मैं कभी आपके घर नहीं आऊंगी.” यह कहकर सरोजजी विभिन्न प्रकार की मुखमुद्राएं बनाती हुई, दनदनाती हुई हमारे घर के मुख्य द्वार से बाहर निकल गईं. उनके बाहर निकलने की देर थी कि मेरा हकबकाया चेहरा और उनके अब ना आने की उम्मीद की किरण देखकर राघव और बच्चे ठहाका लगा कर हंस पड़े.
मैंने जो कुछ भी कहा था वह शायद इतने दिनों के तनाव की वजह से कह दिया था.
बाद में मैंने सरोजजी से बात करने की बहुत कोशिश की, पर आजकल उनके बहन वाले प्यार का झरना सूख चुका है और अब वह मुझसे बहुत नाराज़ रहती हैं.
हालांकि मैं ऊपर ऊपर से एक-दो बार उनको मनाने की कोशिश कर चुकी हूं, पर अंदर ही अंदर मेरे मन से आवाज़ उठती है कि कहीं यह मान ना जाएं. क्योंकि इस मामले में मेरे दिल में एक ही धुन बजती है… ”सरोज भाभीजी, भई तुम रूठे और हम छूटे."
डिस्क्लेमर- मेरी आपबीती पढ़कर यह बिल्कुल मत समझ लीजिएगा कि मैं अपने पड़ोसियों से प्रेम नहीं करती. जिसके इतने प्रेम पगे सरोजजी जैसे पड़ोसी होंगे वह पड़ोसियों से प्रेम कैसे नहीं कर सकता. बस प्रेम का ओवर डोज़ हो गया था, इसलिए हजम नहीं हुआ.
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