“जब हम दोनों ने एक-दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण कर दिया, तो फिर हमारा वजूद दूसरे से अलग कैसे हो सकता है? दो लोग जब अलग-अलग होते हैं, तो उनकी पहचान भी अलग-अलग होती है, पर रिश्ते में बंधते ही सब एक हो जाता है. इसे कहते हैं फुल सरेंडर. सरेंडर कर दिया, फिर न तो अहम् टकराते हैं, न ही प्यार की शाखाओं पर कोमल पत्तियों की जगह कैक्टस उगते हैं.
अगले दिन संडे हो तो शनिवार की रात बहुत बेफ़िक्री की नींद आती है. कोई कहेगा, लो इतनी उम्र हो गई और अभी भी संडे की छुट्टी आते ही किसी स्कूल जाते बच्चे की तरह उत्साहित होने लगती हैं. इस संदर्भ में उन्हें लगता है कि उम्र बिल्कुल भी मायने नहीं रखती है, मायने रखता है तो भीतर समाया उत्साह और हर पल जीने की जिजीविषा, जो संडे की छुट्टी को आनंदमयी दिन में बदलने की चाह रखती हो.
हालांकि सुबह नींद तो आदतन वही पांच-साढ़े पांच बजे खुल गई थी, पर रजाई से निकलने का दिल ही नहीं कर रहा था. अनिकेत तो सैर को निकल ही गए होंगे, सोचकर उसने फिर आंखें बंद कर लीं. झपकी लग गई होगी दोबारा, क्योंकि अनिकेत उसे चाय पीने के लिए उठा रहे थे.
“तबीयत तो ठीक है न?” अनिकेत ने प्यार से उसके माथे को सहलाते हुए पूछा.
“हां, बस यूं ही थोड़ा आलस आ गया था. लगता है आठ बज गए हैं.” कमरे की खिड़की से झांकती धूप की पतली रेखा को देख उसने कहा.
“जी मैडम, पर कोई बात नहीं. टुडे इज़ ए हॉलीडे और हॉलीडे का मतलब जॉलीडे.” अनिकेत ने शरारती अंदाज़ में कहा.
यह बात सुन उसके गाल आरक्त हो गए. यह बात उसने अपने हनीमून के दौरान अनिकेत से कही थी. अनिकेत यह कहकर जब नोट्स बनाने लगे थे कि इर्म्पोटेंट हैं, लिखकर फैक्स कर दूंगा, तब वह उसे खींचते हुए होटल के लॉन में ले आई थी और झूमते हुए यह बात कही थी.
“तुम्हारे चेहरे पर तो आज भी 30 साल पहले वाली तन्वी जैसे लाज के गुलाबी फूल खिल आए हैं. वह तन्वी, जिसने मुझे जीवन की सारी ख़ुशियां दीं, जिसने मुझे जीने का मक़सद दिया.” अनिकेत भावुक हो गए थे.
“मेरे फिलॉसफर तुम्हीं कौन-सा बूढ़ा गए हो. 60 साल की उम्र में भी माशाअल्ला कितने हैंडसम लगते हो.” तन्वी ने किसी सोलह साल की लड़की की तरह अनिकेत की आंखों में देखते हुए कहा.
अनिकेत के बाल बेशक स़फेद हो गए थे, पर उनकी आंखों से अभी भी रोमानियत झलकती थी. चेहरे पर चमकती संतुष्टि की गहरी आभा, जहां एक तरफ़ उनकी परिपक्वता को व्यक्त करती थी, वहीं भरपूर ज़िंदगी जीने का एहसास भी कराती थी. इंसान की सोच और व्यवहार की झलक चेहरे पर आ ही जाती है.
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“अनिकेत, तुम्हारी यह बात ग़लत है. जब देखो मुझे क्रेडिट देते रहते हो. जीने की राह तो तुमने मुझे दिखाई है, वरना मैं क्या थी? तुम न मिलते तो न जाने अपने लक्ष्यों की राख के ढेर के नीचे दबी कब तक सुलगती रहती.” अनिकेत ने तन्वी के मुंह पर हाथ रख दिया और फिर माहौल को हल्का करने के ख़याल से बोले, “अब नाश्ता मिलेगा या फिर उसकी भी छुट्टी है.”
घर के बाकी कामों के लिए तन्वी ने आया रखी हुई थी, पर खाना वह अपने ही हाथों से बनाना पसंद करती थी. बेटा विदेश में सेटल था और बेटी अपने सुखमय संसार में व्यस्त थी, पर उन दोनों को एक-दूसरे का साथ ही इतनी पूर्णता से भर देता था कि न तो कभी अकेलापन महसूस होता था, न अधूरापन. जीवन अपनी गति से बिना किसी व्यवधान के चल रहा था. एक-दूसरे का हाथ थामे वे दोनों जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी ढेरों फूल खिलाने की क्षमता रखते थे.
दोपहर का खाना खाकर अनिकेत को झपकी लेने की आदत थी. वह क़िताब लेकर बाहर लॉन में आकर बैठ गई. मौसम के हर फूल और पौधे, वहां अपनी ख़ुश्बू और हरीतिमा बिखेर रहे थे. बहुत प्यार और जतन से सींचा था उन दोनों ने इसे. हालांकि इस बगिया के लहलहाने में भी अनिकेत का योगदान सबसे ज़्यादा था. उसकी और अनिकेत की मेहनत का फल मात्र यह कोठी, बैंक बैलेंस, उन दोनों का काम ही नहीं है, बल्कि उनके दोनों बच्चे भी हैं, जिनमें संस्कारों की नींव इतनी ठोस है कि बदलती दुनिया के मूल्य भी उसे नहीं हिला सकते हैं.
कुछ पन्ने ही पढ़े होंगे कि धूप चेहरे पर पड़ने लगी. चश्मे पर पड़ती रोशनी के कारण उसने क़िताब बंद कर ली. सर्दियों में यूं लॉन के महकते वातावरण में खिली धूप में बैठकर पढ़ना उसके लिए किसी पैशन से कम नहीं था.
“फिर बिना शॅाल के बैठी हो?” बाहर आते अनिकेत के हाथ में शॅाल थी.
“हर समय तुम्हें मेरी ही चिंता रहती है न?” तन्वी की आंखों में नमी तैर गई थी. “न जाने पिछले जन्म में कौन से किए पुण्यों का प्रताप हो तुम. अगर मेरी ज़िंदगी में न आए होते, तो मैं तो कब की इस दुनिया की भीड़ में खो गई होती.”
“तुम न होती तो मेरा वजूद भी कभी एक चट्टान की तरह मज़बूत नहीं हो पाता. अब छोड़ो भी इन बातों को, सच तो यह है कि हम दोनों बने ही एक-दूसरे के लिए हैं. इसीलिए भीड़ में भी तुम मुझे मिल गई और अपने प्यार व समर्पण से मेरी ज़िंदगी को सही दिशा दे दी, वरना क्या भटकन मेरी ज़िंदगी में नहीं थी… खैर, गर्म-गर्म चाय और पकौड़े हो जाएं, लेकिन बनाकर मैं लाऊंगा.”
अनिकेत के अंदर आज भी वैसा ही जोश था, जैसे बरसों पहले हुआ करता था. उत्साह, ऊर्जा और कुछ कर दिखाने का ज़ज़्बा होने के बावजूद उनके घरवालों से उन्हें कोई सहयोग नहीं मिलता था. वे तो चाहते थे कि उनका बेटा फटाफट पढ़-लिखकर किसी सरकारी नौकरी पर लग जाए, ताकि उसके साथ-साथ सबका भविष्य भी सुरक्षित हो जाए. उनकी नज़रों में उसके बेटे होने का अर्थ था केवल ऐसा कमाऊ पूत, जिसका फर्ज़ था परिवार की ख़ुशियों के बारे में सोचना, चाहे उसके लिए उसे अपने सपनों के पंख ही क्यों न कतरने पड़ें. अनिकेत को अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास था, पर वह इंजीनियर बनना चाहता था. आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, पर उसे यक़ीन था कि अगर उसे पढ़ने दिया जाए तो वह अवश्य ही स्कॉलरशिप पा लेगा.
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उदास… खिन्न मन… अपने जीवन से निराश हो वह उस दिन भटक रहा था, जब उसकी मुलाक़ात तन्वी से हुई थी. एक छोटे से शहर की तंग गलियों से मम्मी-पापा की मर्ज़ी के बिना जब उसने दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर क़दम रखा था, तो वह नहीं जानती थी कि उसके जैसी लड़की इस बड़े शहर में बिना किसी सहायता के कैसे अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर पाएगी. बी.ए. की डिग्री और आत्मविश्वास के साथ डर की छोर थामे, जब वह धीरे-धीरे डग भरते हुए स्टेशन से बाहर निकली थी, तो पलभर को उसे लगा था कि उसने शायद ग़लत फैसला ले लिया था. पर वापस लौटने का तो सवाल ही नहीं उठता था. आख़िर कितने विश्वास से वह यह कहकर घर से निकली थी कि कुछ बनकर ही वापस लौटेगी.
शोर-शराबा, लोगों की भीड़ और धक्का देकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति… उसे लग रहा था कि वह इस भीड़ में खो जाएगी. उसे पता था कि लाजपत नगर में पीजी एकोमोडेशन मिल जाती है, बस, वहीं जाने के लिए वह ऑटो तलाश रही थी कि अचानक एक तेज़ी से आता टैम्पो बिल्कुल उससे टकराता हुआ सर्र से निकल गया. बैलेंस बिगड़ने से वह गिरने ही लगी थी कि दो हाथों ने उसे थाम लिया. घबराहट के साथ मुस्कुराहट की एक रेखा भी उसके होंठों पर तैर गई थी. वाह! क्या फ़िल्मी अंदाज़ में स्वागत हुआ था उसका.
“आप ठीक हैं न?” सवाल पूछने वाले को उसने झेंपते हुए देखा था.
“जी, शुक्रिया.”
“इस शहर में पहली बार आई हैं?” किसी अपरिचित का यूं बात करना उसे अच्छा नहीं लगा. पर फिर भी उसकी आंखों में कुछ ऐसा था, जो उसके मन को कह रहा था कि उस पर विश्वास किया जा सकता है. या शायद उसका मन उसे ललचा रहा था कि मदद लेने में हर्ज़ ही क्या है. रात घिरने लगी थी और वाहनों की तेज़ रोशनी से उसे उलझन होने लगी थी, ऐसे में रास्ता कैसे ढूंढ़ेगी वह.
“मुझे लाजपत नगर जाना है. यहां से कितनी दूर होगा?”
“मैं आपको यही राय दूंगा कि आप प्री-पेड ऑटो ले लें, वरना परेशानी हो सकती है.” तन्वी को कुछ समझ नहीं आया था. प्री-पेड ऑटो जैसी कोई चीज़ होती है, वह नहीं जानती थी. फिर उसी ने सब कुछ अरेंज किया. वह बैठने ही लगी थी कि न जाने कैसे पूछ बैठी, “आप कहां जाएंगे? चाहें तो साथ चल सकते हैं.” तन्वी आज तक समझ नहीं पाई कि उस जैसी लड़की को उस समय यह पूछते हुए आख़िर डर क्यों नहीं लगा था? क्या नियति का उसमें कुछ हाथ था?
“मैं… कहीं नहीं जाना चाहता. मैं बस, अकेला रहना चाहता हूं,” दुविधा और परेशानी के भाव उसके चेहरे पर देख तन्वी पल भर को यह सोचकर चुप हो गई कि बड़े शहरों में लोग एक-दूसरे से मतलब रखना पसंद नहीं करते हैं, पर फिर उसे लगा कि यह तो उसी की तरह दिशाहीन लग रहा है… फिर उनकी राहें कैसे अलग हो सकती हैं?
अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की चाह ने उन्हें कब और कैसे एक-दूसरे से जोड़ दिया है, इस बात का अंदाज़ा उन्हें तब कहां हुआ था. उस रात वह ऑटो का सफ़र शायद इस बात का इशारा था कि उन दोनों की ज़िंदगी बदलने वाली है. जब दो लोगों के दुख, परेशानियां और सपने एक जैसे होते हैं, तो अपनत्व की कोंपलें उनके बीच फूट ही जाती हैं और धीरे-धीरे वे कोंपलें जब पेड़ बन पत्तों और फूलों से भरने लगती हैं, तो विश्वास की छांह उनके चारों ओर फैल जाती है. मदद करने का ज़ज़्बा, जो उस दिन उनके बीच पनपा था, वह उनकी सोच के एक होते ही और मज़बूत होता गया.
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तन्वी ने अनिकेत की मदद से पहले एम.ए. और फिर पी.एच.डी. की, क्योंकि वह अध्यापन के क्षेत्र में जाना चाहती थी. तन्वी के कहने पर अनिकेत ने अपने घरवालों को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए राज़ी कर लिया. पढ़ाई के साथ-साथ दोनों छोटी-मोटी नौकरियां भी करते रहे. जब भी दोनों में से एक हिम्मत हारने लगता, दूसरा अपना आश्वासन भरा हाथ उसके कंधे पर रख देता. दोस्ती की ठोस ज़मीन पर पैर रखते हुए वे आगे बढ़ते चले गए. फिर एक दिन ऐसा भी आया कि दोनों ने अपनी मंज़िलें पा लीं. तन्वी को एक कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई और अनिकेत को एक बड़ी कंपनी में बढ़िया नौकरी.
“अब?” एक दिन कनाट प्लेस में घूमते-घूमते अचानक अनिकेत ने उससे पूछा.
“क्या?” उसने हैरानी भरी नज़रों से उसे देखा था.
“सपने तो पूरे हो गए, अब आगे क्या सोचा है?”
“क्या सोचना है? बस, यही समझ नहीं आता कि जो तुमने मेरे लिए किया है, उसका कर्ज़ कैसे चुका पाऊंगी?”
“यह तो बहुत आसान है. मुझसे शादी कर लो.”
अनिकेत ने जिस सहजता से यह बात कही थी, उतनी सहजता से तन्वी इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी.
“व़क़्त ने हमें बहुत अच्छा दोस्त बनने का मौक़ा दिया है. अब इस रिश्ते को किसी बंधन में बांधा, तो दरार आते भी देर नहीं लगेगी. आज तुम मेरी जिस सफलता पर गुमान करते हो न, पति बनते ही वह तुम्हारे ईगो को हर्ट करने लगेगी. हो सकता है मेरा काम करना या मेरी आज़ादी ही तुम्हारी आंख की किरकिरी बन चुभने लगे. मैं तो अब अपने मम्मी-पापा की मदद करने लायक हुई हूं और तुम भी. ऐसे में हम किस तरह अपनी ज़िम्मेदारियां निभा पाएंगे?”
रेस्टॉरेंट में बर्गर खाते हुए अनिकेत ने बहुत ही संजीदगी से कहा, “मुझे इतना ही समझ पाई हो? लंबे समय तक हर संघर्ष को झेलने की हिम्मत तुमने ही मुझे दी. तुमने क़दम-क़दम पर मेरा साथ दिया है और तुम क्या मुझे इस लायक भी नहीं समझती कि सारी ज़िंदगी तुम्हारे साथ चलते हुए मिलकर ज़िम्मेदारियों को हम बांट सकते हैं? कभी अपने मन को टटोला होता, तो तुम जान पाती कि तुम मुझसे प्यार करने लगी हो. आई लव यू तन्वी. मैं किसी तरह का कोई दबाव नहीं डालूंगा, न ही क़समें खाऊंगा कि मैं तुम्हारी तऱक़्क़ी की राह में बाधक नहीं बनूंगा. बस, चाहता हूं कि तुम अपने आप से यह सवाल करो कि तुम किस हद तक मुझ पर विश्वास कर सकती हो.”
अगले ह़फ़्ते ही दोनों ने शादी कर ली. क़ामयाबी की जिस राह पर तन्वी ने क़दम रखे थे, उसकी एक-एक सीढ़ी पार कर वह कॉलेज की प्रिंसिपल बन गई और अनिकेत ने अपनी एक कंपनी खोल ली. अपनी बंद मुट्ठी में कैद कर वह जिन सपनों को लेकर एक अनजान शहर में आई थी, वह तो पूरे हुए ही, साथ ही अनिकेत के साथ ने उसके जीवन में हर रंग भर दिया. हर तरह की चुनौती का सामना करना आसान न होता, अगर अनिकेत एक चट्टान की तरह उसके साथ न खड़ा होता.
“फिर पुरानी बातों को याद करने लगी हो क्या?” चाय की ट्रे रखते हुए अनिकेत ने कहा. न जाने कैसे उसके मन की सारी बातें वह पढ़ लेता था.
“अच्छा ही है न. जितना याद करती हूं, उतना ही तुम्हारे प्रति प्यार और आदर बढ़ता जाता है.” कहते-कहते शरमा गई तन्वी.
शाम को मालती जब तन्वी से मिलने आई, तो वह अनिकेत के लिए जूस तैयार कर रही थी. उन्हीं के कॉलेज में नई-नई लेक्चरर बनकर आई थी. एक महीने पहले ही शादी हुई थी, पर चेहरे पर न आभा थी न ख़ुशी. पास में ही रहती थी, इसलिए अक्सर उनसे मिलने चली आया करती थी. एक स्नेह का सेतु उनके बीच उग आया था.
“मैडम, आपसे एक बात पूछ सकती हूं?”
“बेझिझक पूछो.”
“इस उम्र में भी आपके और सर के बीच जो प्यार है न, उसे देख बहुत आश्चर्य होता है. सर आप पर जान छिड़कते हैं और आप भी उन पर इस तरह निर्भर रहती हैं, मानो आपका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है. इस तरह आपको अपनी इंडीविजुएलिटी न होने या अपना अलग वजूद न होने के ख़याल ने परेशान नहीं किया? मुझे तो लगता है कि पति-पत्नी के बीच की लड़ाई का मुख्य कारण अपनी एक पहचान बनाने का मसला ही है.”
“जब हम दोनों ने एक-दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण कर दिया, तो फिर हमारा वजूद दूसरे से अलग कैसे हो सकता है? दो लोग जब अलग-अलग होते हैं, तो उनकी पहचान भी अलग-अलग होती है, पर रिश्ते में बंधते ही सब एक हो जाता है. इसे कहते हैं फुल सरेंडर. सरेंडर कर दिया, फिर न तो अहम् टकराते हैं, न ही प्यार की शाखाओं पर कोमल पत्तियों की जगह कैक्टस उगते हैं. तुम भी सक्षम हो, इसका ढिंढोरा पीटने की क्या आवश्यकता है? तुम्हारा साथी साथ रहते-रहते ख़ुद ही इस बात को जान जाएगा. उस पर विश्वास करो और बन जाओ उसके वजूद का हिस्सा. फिर देखो, कैसे तुम्हारे अपने वजूद में निखार आता है.”
“अरे भई तन्वी, कहां हो तुम? बहुत देर हो गई तुम्हें देखे. तुम परेशान मत होना, आज खाना मैं बनाऊंगा. स्पेशल डिनर फ़ॉर माई लवली वाइफ़.” मालती को देख अनिकेत पल भर तो सकपकाए, फिर खिलखिलाकर हंस पड़े.
“देखो, तुम हम बूढ़ों के रोमांस को कैंपस में चर्चा का विषय मत बना देना.”
उन दोनों के चेहरे पर छाए प्यार और विश्वास के संबल को अपने मुट्ठी में बांध जब मालती वहां से निकली, तो उसके मन के भीतर अनगिनत दीए टिमटिमा रहे थे, मानो अंतर्मन के कोने-कोने में छिपे सारे संशय तिरोहित हो गए हों.
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