"डॉक्टर आपको सिर्फ़ सांसें लौटा सकता है, ज़िंदगी जीने की इच्छा यानी जिजीविषा आपको ख़ुद जगानी होगी, क्योंकि उसके बिना ये सांसें भी व्यर्थ हैं. जिजीविषा के बिना इंसान ज़िंदा होकर भी मृत है. फिर जिस ज़िंदगी से आप ख़ुद ख़ुश नहीं हैं, उससे आप दूसरों को कैसे ख़ुश रख पाएगीं? एक इंसान को सबसे पहले ख़ुद से प्यार करना आना चाहिए. तब वह दूसरे से प्यार कर पाएगा. और तभी दूसरे भी उसे प्यार कर पाएगें. फूलों में जैसे ख़ुशबू, शरीर में जैसे आत्मा, वैसे ही ज़िंदगी में जिजीविषा अनिवार्य है…" मेघा कहते-कहते कहीं खो सी गई थी.
मंदिर में दर्शन कर अरूणाजी सीढ़ियां उतरने लगीं, तो ताज़ी हवा के झोंकों ने तन-मन को प्रफुल्लित कर दिया. थोड़ी थकान तो लगने लगी थी, पर इतने दिनों बाद घर से बाहर कदम रखकर वे अच्छा महसूस कर रही थीं.
‘आज के लिए इतना ही बहुत है, अब घर चलना चाहिए’ सोचकर उन्होंने मुड़ने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि एक पत्थर से टकराकर लड़खड़ाकर गिरने लगीं, तभी दो कोमल किंतु मज़बूत हाथों ने उन्हें सामने से थाम लिया.
"संभलकर आंटी! आइए, इधर बैंच पर बैठ जाइए." युवती उन्हें पास ही गार्डन में लगी बैंच की ओर हाथ पकड़कर ले चली. अरूणाजी सहारा लेकर बैंच पर बैठ गईं. अपनी हल्की-फुल्की शॉल को उन्होंने और भी कसकर चारों ओर से लपेट लिया था. सांसें कुछ संभली, तो नज़रें सहारा देने वाली युवती का मुआयना करने लगीं. वैसे तो युवती ने अपने चेहरे को स्टोल से भलीभांति ढांप रखा था, पर जितना भी नज़र आ रहा था उससे स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता था कि युवती काफ़ी सुंदर है.
‘सुंदरता तो हमारे ज़माने की लड़कियों में भी होती थी, पर वे अपने सौन्दर्य के प्रति इतनी सजगता नहीं बरतती थीं. अब देखो न धूप, धूल, धुएं से बचने के लिए लड़की ने अपने आपको कितना ढांप रखा है!’ अरूणाजी अपनी ही सोच की दुनिया में डूब गई थीं कि लड़की की आवाज़ से उनकी चेतना लौटी.
"आप कहां रहती हैं आंटी? मैं आपको घर छोड़ दूं?"
"हं अ… यहीं सामने वाले फ्लैट्स में! चौथे माले पर जो साकेत शर्मा-अंजू शर्मा रहते हैं न…"
"हां… हां…"
"मैं साकेत की मम्मी हूं."
"ओह आइए, फिर साथ चलते हैं. मैं भी उधर ही रहती हूं."
घर पहुंचकर अरूणाजी ने बड़े उत्साह से अपने मंदिर घूम आने की बात बताई थी.
"मैं न कहता था बाहर निकलकर आपको अच्छा लगेगा. अब धीरे-धीरे आप अपनी पुरानी दिनचर्या में लौटने लगेगीं. क्यों पापा?" बेटे साकेत ने मां का उत्साह बढ़ाया.
"हां बिल्कुल. थोड़ी हिम्मत तो रखनी होगी. मैं तो कब से कह रहा हूं अपने कमरे से बाहर निकलो. अपनी, घर की, बाहर की खोज-ख़बर लो."
"मेरा मन नहीं करता. जैसे-तैसे ज़िंदगी कट जाए बस." अरूणाजी का मुंह लटक गया था.
"ज़िंदगी कोई रेस नहीं है मां, जिसे जैसे-तैसे बस पूरा करना है. ज़िंदगी एक यात्रा है, जिसे एंजॉय करना है. कोई जल्दी नहीं है मां. आराम से धीरे-धीरे जब जैसा मन करे… अच्छा आपने यह तो बताया ही नहीं वह लड़की कौन थी, जिसने आपको संभाला और यहां तक छोड़कर गई?" साकेत ने मां का मूड ठीक करना चाहा.
"नाम तो मैं पूछना ही भूल गई, पर लड़की बहुत सुंदर थी. सुंदरता को सहेजने का पूरा जतन भी करे हुए थी. धूल, प्रदूषण से बचने के लिए चेहरा पूरी तरह चुनरी से ढांप रखा था."
अब तक चल रहे वार्तालाप के दौरान मौन बनी रही बहू अंजू यह सुनकर चौंकी. उसकी नज़रें अपने पति से मिलीं. दोनों में कुछ मौन वार्तालाप हुआ. अंजू चाय के कप समेटकर रसोई में चली गई. रसोई से आ रही खटपट बता रही थी कि वह शाम के खाने की तैयारी में जुट गई है. अरूणाजी को सब कुछ थोड़ा रहस्यमय लग रहा था. मां की आंखों में आशंका के बादल तैरते देख साकेत ने उन्हें आश्वस्त किया था, "घबराने की कोई बात नहीं है मां. आप तो रोज़ मंदिर हो आया कीजिए. इसी बहाने डॉक्टर के निर्देशानुसार घूमना-चलना भी हो जाएगा. वह लड़की भी अच्छी है. मेघा नाम है उसका…" साकेत धीमी आवाज़ में मां को मेघा के बारे में बताने लगा, क्योंकि टीवी पर पापा की न्यूज़ शुरू हो गई थी और वे न्यूज़ सुनने में लगे थे. मेघा के बारे में जानकर अरूणाजी की आंखें भय और विस्मय से चौड़ी होती जा रही थीं.
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तीन-चार दिनों में ही अरूणाजी की मेघा से अच्छी दोस्ती हो गई थी. लड़की जितनी सुंदर थी, उतनी ही शांत और गंभीर थी. अपनी ओर से कम ही बात करती थी.
‘आजकल वैसे भी आगे होकर कौन बात करता है! पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हो गए हैं आज के संबंध और रिश्ते. जब तक हम न पुकारें उधर से आवाज़ ही नहीं आती.‘ सोच में डूबे मंदिर की सीढ़ियां उतरते-उतरते अरूणाजी की निगाहें मेघा को खोजने लगतीं. अक्सर वह उन्हें सोसायटी गार्डन में टहलती नज़र आ ही जाती और फिर उनके कदम ख़ुद-ब-ख़ुद उसकी ओर बढ़ जाते. आज भी उन्हें अपनी ओर बढ़ता देख मेघा के चहलकदमी करते कदम थम गए और उसने आगे बढ़कर अरूणाजी का हाथ थाम लिया. फिर धीरे-धीरे चलाते हुए बैंच पर लाकर बैठा दिया. अरूणाजी का मुंह उतरा हुआ था.
"क्या बात है आंटी, आज तबीयत ठीक नहीं लग रही?" हमेशा चुप रहने वाली मेघा आज आंटी को शांत और टूटा हुआ देखकर ख़ुद चुप न रह सकी.
"तबीयत तो अब ऐसी ही रहेगी बेटी. पर तन के साथ-साथ अब मन भी बहुत कमज़ोर होता चला जा रहा है."
"ऐसा क्या हो गया आंटी?" मेघा घबरा उठी थी.
"अरे, ऐसी घबराने जैसी कोई बात नहीं है. मुझे तुम्हें पहले ही बता देना चाहिए था. दरअसल, मेरी अभी सर्जरी हुई है. मुझे ब्रेस्ट कैंसर था. सर्जरी के लिए हम बेटे के पास यहां मुंबई आए. मेरा एक ब्रेस्ट हटा दिया गया है. मैं तो इस सर्जरी के लिए तैयार ही नहीं थी. मैं कहती थी जब तक जीना लिखा होगा ऐसे ही जी लूंगी, पर यह ऑपरेशन नहीं करवाऊंगी. बड़ी मुश्किल से घरवालों ने मुझे इसके लिए मनाया. ऑपरेशन हुआ, फिर थेरेपी हुई. सब बाल झड़ गए थे. अब थोड़े आए हैं, पर मैं स्कार्फ बांधे रखती हूं. शॉल लपेटे रहती हूं. सच कहूं बेटी, सांसें तो लौट आई हैं, पर सांस लेने का उत्साह मर गया है. ऐसी ज़िंदगी जीने से तो मर जाना बेहतर है."
"ऐसा मत कहिए आंटी. एक बेहतरीन ज़िंदगी जीने के लिए यह स्वीकार करना भी ज़रूरी है कि सब कुछ सबको नहीं मिल सकता."
"तन के साथ-साथ मन भी बहुत कमज़ोर हो गया है. न कहीं आने-जाने का मन होता है, न किसी से मिलने-जुलने का. महीनों बाद अब मंदिर जाने के लिए शाम को घर से निकलने लगी हूं या थोड़ा-बहुत तुमसे बतिया लेती हूं, तो मन बहल जाता है." पास से कोई गुज़रने लगा, तो अरूणाजी ने शॉल को और भी कसकर लपेट लिया.
"… एक असुरक्षा का भाव हर वक़्त मन को घेरे रहता है. ऐसा लगता है हर आने जाने वाले की नज़रें मेरा ही पीछा कर रही हैं. कभी उनकी नज़रें उपहास उड़ाती प्रतीत होती हैं, तो कभी सहानुभूति दर्शाती… मेरे लिए दोनों ही बातें असहय हैं. घरवाले यदि बहुत ज़्यादा ध्यान रखते हैं, तो यह सोचकर असहज हो जाती हूं कि ये मुझसे पहले की तरह सामान्य अधिकार भरा व्यवहार क्यों नहीं करते? क्या मैं इतनी अक्षम और पराश्रित हो गई हूँ? शेष ज़िंदगी मुझे इन्हीं के रहमोकरम पर काटनी होगी? दूसरी ओर यदि वे अनजाने में भी मेरी ज़रा-सी अवहेलना कर देते हैं, तो भी मैं सहन नहीं कर पाती. प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कह पाती, पर अंदर ही अंदर घुटती रहती हूं. यह सोच दिल और दिमाग़ पर हावी होने लग जाती है कि मैं सब पर बोझ बन गई हूं. अब दो दिन पहले की ही बात ले लो. बहू मुझे कपड़े बदलवाने में मदद कर रही थी कि नन्हा जाग गया और रोने लगा. बहू मुझे ऐसे ही छोड़कर अपने कमरे में दौड़ गई. मैं काफ़ी देर इंतज़ार करती रही फिर बड़बड़ाते हुए ख़ुद ही सब किया. मुझे बड़बड़ाते देख तेरे अंकल बहू की बजाय मुझ पर ही ग़ुस्सा होने लगे, "एक गाउन ही तो पहनना-बदलना होता है. कौन सा साड़ी-ब्लाउज़ पहन रही हो, तुमसे इतना भी ख़ुद नहीं होता? अब तो ऑपरेशन को अच्छा-खासा वक़्त हो गया है. अपने शहर लौटकर तो सब ख़ुद ही करना है…"
मानती हूं उनकी बात एक कड़वा सच थी, पर उस वक़्त मुझे वह ज़हर का घूंट लगी, जिसे बमुश्किल मैंने गले से नीचे उतारा. जाने ऐसे कितने ज़हर के घूंट पी-पीकर ही अब ज़िंदा रहना सीखना होगा." अरूणाजी भावावेश में कांपने लगीं, तो मेघा ने उनकी पीठ सहलाई.
"धैर्य से काम लीजिए आंटी. सभी आपको बहुत चाहते हैं. वे आपके भले के लिए ही कहते हैं. मन से यह वहम निकाल दीजिए कि आप किसी पर बोझ बन गई हैं."
"मैं ख़ुद को बहुत समझाती हूं, पर बेटी, मेरा आत्मविश्वास कहीं खो सा गया है. दिल कुछ सुनने-समझने को राजी ही नहीं होता. ऐसा लगता है दूसरे क्या ख़ुद मैं ही अपने आपको नापसंद करने लगी हूं. कुछ भी तो नहीं बचा है मेरे पास. लगता है स्तन के साथ-साथ स्त्रीत्व भी चला गया है. अब तो शायद तेरे अंकल भी मुझे ऐसे देखना पसंद न करें… ऐसे शरीर को देखकर तो वितृष्णा ही होगी न?" असुरक्षित मन फिर से तन ढांपने लगा था. मेघा के दिल में अनायास ही उनके प्रति ढेर सारा प्यार उमड़ आया था.
"मैंने पहले दिन ही आपकी मनःस्थिति भांप ली थी आंटी. और तब से आपको मैसटेकटेमी ब्रा के बारे में बताना चाह रही थी, जो ख़ासतौर से आप जैसे लोगों के लिए ही बनाई गई है. इसे पहनकर आपको…"
"एक मिनट, मैंने तो तुम्हें अपनी सर्जरी आदि के बारे में आज ही बताया है. तुम्हें पहले दिन से कैसे मालूम था?" अरूणाजी अपना दुख भूल इस नई पहेली में उलझ गई थीं.
"अं… आंटी आपने शायद गौर नहीं किया था. फर्स्ट डे जब आप लड़खड़ाकर गिरने लगी थीं मैंने आपको सामने से आकर भींचा था, तभी मुझे पता चल गया था…"
"तो अब तक कुछ बोली क्यों नहीं?"
"मुझे लगा जान-बूझकर किसी के ज़ख़्म उघाड़ना उसे और पीड़ा पहुंचा सकता है. जब तक सामने वाला स्वयं ज़ख़्म दिखाने को आतुर न हो मलहम लगाना मुझे असंगत जान पड़ता है."
"पर अब जब ज़ख़्म उघड़ ही गए हैं, तब तुम्हारा क्या कहना है?" आंटी संयत होने लगी थी.
"आंटी मैं न तो डॉक्टर हूं, न ज्ञानी महात्मा. उम्र में भी आपसे बहुत छोटी हूं, पर इतना अवश्य कह सकती हूं कि आपकी बीमारी अब तन की नहीं मन की रह गई है. डॉक्टर आपको सिर्फ़ सांसें लौटा सकता है, ज़िंदगी जीने की इच्छा यानी जिजीविषा आपको ख़ुद जगानी होगी, क्योंकि उसके बिना ये सांसें भी व्यर्थ हैं. जिजीविषा के बिना इंसान ज़िंदा होकर भी मृत है. फिर जिस ज़िंदगी से आप ख़ुद ख़ुश नहीं हैं, उससे आप दूसरों को कैसे ख़ुश रख पाएगीं? एक इंसान को सबसे पहले ख़ुद से प्यार करना आना चाहिए. तब वह दूसरे से प्यार कर पाएगा. और तभी दूसरे भी उसे प्यार कर पाएगें. फूलों में जैसे ख़ुशबू, शरीर में जैसे आत्मा, वैसे ही ज़िंदगी में जिजीविषा अनिवार्य है…" मेघा कहते-कहते कहीं खो सी गई थी. आंटी को एकटक मुग्ध दृष्टि से अपने को निहारते पाया, तो चौंककर उठ खड़ी हुई.
"अंधेरा घिर रहा है आंटी! बातों में बहुत देर हो गई. हमें अब चलना चाहिए." स्टोल ठीक करते मेघा उठ खड़ी हुई और अरूणाजी को उठाने के लिए हाथ बढ़ा दिया.
"मैं अपने आप उठ जाऊंगी. तुम्हारी बातों से मुझे बहुत संबल मिला है. शरीर में मानो नई ऊर्जा भर रही है."
खोई खोई सी मेघा प्रत्युत्तर में मुस्कुरा दी थी.
कुछ दिनों से मेघा आंटी में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख रही थी. उन्होंने निराशाजनक बातें करना लगभग बंद सा कर दिया था. पहले वे सिर्फ़ उसी से बोलती थीं, पर अब उसने गौर किया वे हर आने-जाने वाले की ओर मुस्कुराहट या अभिवादन उछाल देती थीं. और उचित प्रत्युत्तर पाकर बच्चों की तरह ख़ुश हो जाती थीं.
मेघा को देखते ही वे उसकी ओर लपक लीं. फिर उसे कोने में ले जाकर फुसफुसाने लगीं, "तुमसे एक ज़रूरी काम था. तू मेरे लिए वो लाने वाली थी ना?"
"क्या?" मेघा हैरान थी.
"अरे वो मस्कट वाली…"अरूणाजी शरमा रही थीं.
"ओह मेसटेकटेमी."
"हां वही. वो ले आना. तेरे अंकल कह रहे थे हम अपने शहर उसी पुराने रूप में चलेगें यानी मैं साड़ी पहनकर ही लौटूंगी. लोग देखेगें तो भोंचक्के रह जाएगें कि ऑपरेशन करवाया भी या नहीं? साकेत और अंजू कल मुझे विग पसंद करने ले जाने वाले हैं. तू बता कैसा लूं?"
"वाह आंटी आपका तो अच्छा-ख़ासा मेकओवर हो रहा है!"
"हां पर इन सबसे पहले मेरी एक शर्त है. वो पूरी होने पर ही मैं यह मेकओवर करवाऊंगी."
"शर्त?"
"शर्त यह है कि जो जिजीविषा तूने मुझमें जगाई है, वो तुझे अपने अंदर भी पैदा करनी होगी. मुझे सिखाती है कि बीमारी तन से ज़्यादा मन की होती है. जो हुआ उसमें भला आपका क्या दोष था? आप अपने आपको क्यों सज़ा दे रही हैं? बेटी, अब ये ही सब सवाल मैं तुझसे करती हूं. उन लफंगों ने तेरे चेहरे को बेरंग किया, तू अपनी ज़िंदगी को बेरंग क्यों कर रही है?"
"आंटी!" मेघा चीख उठी थी.
"मतलब आप मेरे बारे में सब जानती थीं? फिर भी?"
"मैं तुम्हारे ज़ख़्म उघाड़कर तुम्हें पीड़ा नहीं पहुंचाना चाहती थी, पर अब मेरे यहां से जाने के दिन समीप आ रहे हैं. मुझे नई ज़िंदगी देने वाली को मैं ऐसे घुट-घुटकर मरने के लिए नहीं छोड़ सकती. मैं तुम्हारी मां से भी मिली थी. बहुत निराश थीं बेचारी! उन्होंने बताया कि तुम पर ऐसिड अटैक करने वाले आजीवन कारावास का दंड भुगत रहे हैं. पर बेटी तुम बिना अपराध किए यह दंड क्यों भुगत रही हो? और अपने घरवालों को भी भुगतने पर मजबूर कर रही हो. तुम्हारे दो ऑपरेशन हो चुके हैं, दो और होने हैं, जिनके बाद तुम्हारा चेहरा काफ़ी हद तक सही हो जाएगा, तो फिर तुम पीछे क्यों हट रही हो?"
"मैं अब जीना नहीं चाहती आंटी. फिर घर में छोटी बहन भी है. उसकी पढ़ाई, शादी का ख़र्चा भी है. सब मुझ ही पर बहा देंगे तो? और फिर चेहरा ठीक भी हो गया तो क्या? मुझमें न शादी का उत्साह बचा है न जीने का."
"वही तो ग़लत है न बेटी. ख़ुद में जीने का उत्साह नहीं जगाओगी, ख़ुद से प्यार नहीं करोगी, तो दूसरों से कैसे करोगी और दूसरे तुम्हें कैसे करेंगें? ज़िंदगी भले ही छोटी जीओ, पर मन से तो जीओ, ताकि जीना मरना दोनों सार्थक हो जाएं. बिना जिजीविषा के तो तुम्हारे शब्दों में तुम आज भी मृत ही हो… तुमने कॉलेज जाना छोड़ा. कुछ बच्चे तुमसे पढ़ने आना चाह रहे हैं, उन्हें भी तुमने मना कर दिया. ऐसे ख़ुद को सबसे काट लोगी तो…" अरूणाजी का स्वर भर्राने लगा था, पर वे रूकी नहीं, "तुम्हारे समझाने पर मैं अपनी ज़रा-सी बची ज़िंदगी हॅंसी-ख़ुशी गुज़ारने को तैयार हूं, तो मेरे समझाने पर तुम…"
"मेरा आत्मविश्वास खो चुका है."
"आत्मविश्वास यह नहीं होता कि लोग मुझे पसंद करेंगें. आत्मविश्वास वह होता है कि लोग पसंद करें या ना करें आई विल बी फाइन. हारना तब अच्छा लगता है जब लड़ाई अपनों से हो और जीतना तब अच्छा लगता है जब लड़ाई अपने आप से हो."
मेघा विस्फारित नेत्रों से आंटी को ताक रही थी. फिर अगले ही पल उसके होंठ हिले.
"मुझे माफ़ कर दीजिए आंटी. मैं ख़ुद को बदल डालूंगी. आपके बदलते अंदाज़ को देखकर मेरी सोच भी कुछ-कुछ बदलने तो लगी थी. आज आपने उसे पूरी तरह यू टर्न दे दिया है. मैं आज से फिर भरपूर ज़िंदगी जीने की ओर अग्रसर हूं."
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