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कहानी- विराम (Short Story- Viram)

कौशल को भी धक्का लगा था. जैसे-तैसे उन्होंने विहान को जगाया. घर का माहौल तनाव से भर गया. पूरे घर में सन्नाटा-सा छा गया. हर किसी के मन में यही सवाल उठ रहा था कि आख़िर ग़लती कहां हुई? विहान को अपराधबोध व पश्‍चाताप हो रहा था. वो अपने व्यवहार का आत्मविश्‍लेषण करने लगा, तब उसे एहसास हुआ कि मम्मी ने उसे सही राह दिखाने की कितनी कोशिश की, पर पापा के शह के कारण वह बिगड़ता चला गया.  Kahani लंबी स्याह रात... किले के प्राचीरों से ऊंची और न ख़त्म होनेवाली चढ़ाई... कहीं कोई ओर-छोर दिखाई ही नहीं देता है. क्या हो रहा है उसकी ज़िंदगी में? आख़िर ठहराव क्यों नहीं आ रहा है? समुद्र में लहरें मानो लगातार उठा-पटक कर रही हैं. उसे जिस शांत नदी की तलाश थी, वह तो जैसे किसी रेगिस्तानी रेत में जाकर कहीं समा गई है. रात-दिन, बरस-दर-बरस, निरुद्देश्य से यूं ही सरकते जा रहे हैं. यह कहना कितना आसान है कि जीवन है, तो उम्मीद है... बस, आगे बढ़ते जाओ. ‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर,’ गीता का यह ज्ञान सुनने में और दूसरों को देने में बहुत अच्छा लगता है, पर स्वयं इस पर अमल करना कितना कठिन कार्य है, यह तो वही जानता है, जो दूसरों की सलाह का पात्र बनता है. सच में सलाह देना कितना आसान काम है... कुछ शब्द ही तो मुंह से निकालने पड़ते हैं. वे भी ऐसे शब्द, जो सुनने और कहने दोनों में ही बहुत कर्णप्रिय लगते हैं. ‘आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा.’ ‘जैसे अच्छा व़क्त नहीं रहा, वैसे बुरा भी नहीं रहेगा.’ ‘पतझड़ के बाद ही वसंत आता है.’ ‘बी पॉज़ीटिव’. किसी की तकलीफ़ को देख सांत्वना देना मानो हर कोई अपना फ़र्ज़ समझता है. उसे भी ऐसे सलाहकार बहुत मिले. उसकी ज़िंदगी में आनेवाले उतार-चढ़ाव से उसे कोई निकाल तो नहीं पाया, पर सांत्वना देने में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन क्या सच में ऐसे आदर्श वाक्यों से अशांत व्यक्ति शांत हो पाता है? उसके मन को राहत मिल पाती है? जिसके घाव रिस रहे हों, उसे तो शायद ऐसी सीखें ज़्यादा कचोटती होंगी और अंदर ही अंदर अवश्य ही झल्लाता होगा कि ‘जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई.’ अपने दर्द को ख़ुद ही महसूस किया जा सकता है, दूसरा केवल ऊपरी पीड़ा देख पाता है, भीतर चल रहे झंझावात को वह कैसे महसूस कर सकता है? जैसे उसके भीतर चलता रहता था विहान को लेकर. हर समय उसे ही लेकर वह फ़िक़्रमंद रहती. बस, वह ख़ुश रहे, उसका करियर बन जाए और वह सेटल हो जाए. इसके अलावा और उसने क्या चाहा था? लेकिन स़िर्फ हार ही मिली उसे. तो क्या उसकी चाहत कुछ ज़्यादा ही बड़ी थी? क्या उसने कुछ ज़्यादा ही अपेक्षा रख ली थी अपनी ज़िंदगी से? क्या वास्तव में समय के साथ सब ठीक हो जाता है? क्या व़क्त घावों पर मलहम लगाने का काम करता है? होता ही होगा, तभी तो सब एक ही बात कहते हैं. उसके मन के घोड़े बेलगाम भागे जा रहे थे. ज़िंदगी जब मशीन-सी हो जाती है, तब सब नीरस लगने लगता है. फिर न वसंत के आगमन का एहसास होता है और न ही पक्षियों का मीठा कलरव लुभाता है. प्रकृति के अनूठे सौंदर्य से भी मन अभिभूत नहीं होता. बहती नदी का रिदम भी तब आकर्षित नहीं करता है. बस, ज़िंदगी मशीनी हो जाती है और हम दिन-रात बिना सोचे-समझे, बिना अपने उद्देश्य का अवलोकन किए, बिना अपने लक्ष्यों पर फोकस किए दौड़ते चले जाते हैं. बुआ ठीक ही कहा करती थीं कि चाहे शरीर हो या मन, उनकी सही तरह से देखभाल न करो, तो ज़ंग लग जाता है. बिल्कुल मशीन की तरह. और वह तो बिना रुके चली जा रही है. अगर तार्किक ढंग से देखा जाए, तो उसके शरीर में ज़ंग नहीं लगना चाहिए, क्योंकि ज़ंग तो रुकने पर लगता है यानी कि इस तर्क के सामने भी उसकी ज़िंदगी के समीकरण उलटकर रह गए हैं. वह रुक नहीं पा रही है, इसलिए ज़ंग लग रहा है. आख़िर विराम तो चाहिए ही... यह भी पढ़ेबढ़ते बच्चे बिगड़ते रिश्ते (How Parent-Child Relations Have Changed) विडंबना तो यह है कि विराम न लेने के बावजूद उसे कहा जाता है कि ‘आख़िर तुम करती ही क्या हो? तुम्हारा कॉन्ट्रीब्यूशन है ही क्या? सारे दिन घर पर ही तो रहती हो. बाहर निकलो, तो पता चलेगा कि कितनी थकावट होती है.’ यह सुनकर लगता है, मानो किसी ने उसके कानों में पिघला हुआ सीसा उड़ेल दिया है. जिस इंसान को उसने बग़ैर अपने बारे में सोचे अपनी ज़िंदगी के 23 साल समर्पित कर दिए हों, उसके मुंह से यह सब सुन उसे लगता कि जैसे वह छली गई है. उसका सारा विश्‍वास-प्यार, सच कहा जाए तो सारा गुमान धराशायी हो जाता. इस इंसान के साथ सात फेरे लेकर जब उसने अपनी एक नई दुनिया बसाई थी, तो उसी पल उस पर आंख मूंदकर विश्‍वास कर लिया था. वह जैसा-जैसा कहता गया, वह करती गई. सवाल उसके मन में उठते थे, बहुत बार विरोध करने की इच्छा भी बलवती हुई, लेकिन तब तक उनके बीच विहान आ गया. पति कौशल से दो बोल प्यार के सुनने को तरसते उसके कान और कुछ सम्मान की आशा में हर बार सपने संजोती उसकी उम्मीदें जब लगातार उसे धोखा देने लगीं, तो उसका केंद्रबिंदु बन गया उसका बेटा विहान. बस, इसी कोशिश में वह कौशल का टॉर्चर और ब्लैकमेलिंग एटीट्यूड सहती रही कि उसे विहान को एक अच्छा इंसान बनाना है. उसे कौशल की स्वार्थी सोच और पैसे को ही सबसे बड़ा रिश्ता मानने के अहंकार से दूर रखने की एक ज़िद-सी आ गई. “तुझे अपने पापा जैसा नहीं बनना है.” विहान जब छोटा था, तो वह उसे अक्सर कहती. छोटा था, तो विहान उससे ही चिपका रहता, कौशल से बचता, लेकिन कौशल के मेनिपुलेशन से वह उसे कहां बचा पाई थी. कौशल जान गए थे कि उसे बस में करना है, तो विहान को अपनी मुट्ठी में करना होगा, क्योंकि जैसे राजकुमारी की जान तोते में बसती थी, उसकी मां की जान भी उसमें बसती है. विहान को एक सुखद भविष्य देने के जुनून में वह जाने-अनजाने उसके प्रति कठोर होती गई. डिसिप्लिन में रहने और सिस्टमैटिक बनने का पाठ पढ़ाते-पढ़ाते वह कई बार उसके प्रति बहुत कटु भी हो जाती. बस, यही भय उसे सताता रहता कि कहीं विहान भी अपनेपापा जैसा न बन जाए, जिसे ज़िंदगी में एक सिस्टम को न फॉलो करना और बीवी की बात-बात में खिल्ली उड़ाना आत्मतुष्टि देता हो. जिसके लिए बीवी का मतलब खाना बनानेवाली मेड से ज़्यादा कुछ न हो. जब खाएं, उससे पहले ही सब्ज़ी छौंकी जाए और गर्म-गर्म रोटियां सर्व की जाएं. पहले बनाकर रखने का मतलब है कि तुम आलसी हो, तुम्हें कुछ नहीं आता. जैसे सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स इंसान को भ्रमित जीवन जीने को मजबूर करता है, वैसे ही इंफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स भी इंसान को उलझाए रखता है. फ़र्क़ इतना है कि सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स में इंसान अपने को बेहतर साबित करने के प्रयास में दूसरों को हीन दिखाने की कोशिश में लगा रहता है, जबकि इंफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स में इंसान अपनी हीनता छिपाने के लिए दूसरे को कमतर दिखाने की कोशिश में लगा रहता है. जब कोई भय जुनून बन जाता है, तो शायद उसका चेहरा ही बदल जाता है. उसका असर नकारात्मक भी हो सकता है. तब यह बात कहां सूझती है, लेकिन उसके साथ ऐसा ही हुआ. वह तो बिना विराम लिए अपने जुनून के साथ आगे बढ़ रही थी. घर-गृहस्थी को संभालते हुए हर संभव कोशिश के साथ कि चलो एक दिन तो सब ठीक हो जाएगा. पर कौशल के इंफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स ने उसे ‘डिवाइड एंड रूल’ करने को उकसाया. वह विहान को सलीके से जीने का पाठ पढ़ाती, उसे व्यवस्थित रहने और पढ़ाई में ध्यान लगाने को कहती, तो दूसरी ओर कौशल विहान से कहता, “मस्त रहा कर. ज़्यादा करीने से चीज़ों को रखकर क्या हो जाएगा. रही बात पढ़ने की, तो अपने को परेशान करने की आवश्यकता नहीं है. कहीं कुछ नहीं बन पाया या नौकरी नहीं मिली, तो भी क्या फ़िक़्र है. मेरा बिज़नेस तो है न, पापा-बेटे मिलकर संभाल लेंगे.” तब वह चीख पड़ती, “कौशल, वह इंजीनियर बनना चाहता है, उसे बचपन से ही शौक़ है. देखा नहीं कैसे हमेशा पेचकस और बाकी के टूल्स लिए घूमता रहता है. उसे उसके लक्ष्य से भटकाओ नहीं. मैं नहीं चाहती कि वह तुम्हारी तरह बिज़नेस करे. उसे आईआईटी की तैयारी करने दो.” “तुम कितनी क्रूर हो. बहुत अत्याचार करती हो उस पर. हर समय पढ़ने के लिए कहना क्या अच्छी बात है. जा बेटा, तू कंप्यूटर पर गेम्स खेल जाकर.” विहान को वह इस तरह समय बर्बाद करने से रोकती, तो पहले तो वह मान जाता था, पर धीरे-धीरे कौशल की शह पाकर वह विद्रोही होने लगा. “क्या प्रॉब्लम है आपकी? हमेशा मेरे पीछे पड़ी रहती हो. चार क़िताबें क्या पढ़ लीं, आप ख़ुद को महान समझने लगी हो. आप बहुत बुरी मां हो. हमेशा डांटती और टोकती रहती हो. पापा कितने अच्छे हैं, कभी कुछ नहीं कहते.” अवाक् रह गई थी वह. बचपन में बच्चे ऐसा कह देते हैं, पर दसवीं में पढ़नेवाला बेटा ऐसा कहे, तो लगता है, जैसे वह मां की ममता को ही ललकार रहा हो. सच में उसकी ज़िंदगी में लगातार बेटे के भविष्य को निखारने और उसे सही मार्गदर्शन देने की चाह में ज़ंग लग गया था. सही कहा है किसी ने कि आपका सबसे बड़ा दुश्मन वही है, जो आपकी ग़लतियों पर पर्दा डाले, लेकिन यहां तो इसके उलट हो रहा था. विहान तो उसे ही अपना दुश्मन समझने लगा था. कौशल जितनी देर घर में होता, टीवी पर संस्कार या आस्था जैसे चैनल लगाकर बैठा रहता. घंटों वह बाबाओं के प्रवचन सुनता. वह चिढ़ती कि तुम क्यों ये फ़िज़ूल के कार्यक्रम देख समय बर्बाद करते हो. विहान ने जब देखा कि मम्मी ऐसा करने से पापा को मना करती है, तो वह पापा की सोच को जस्टीफाई करने के लिए या शायद अपनी मां को ग़लत साबित करने के लिए ख़ुद भी वही चैनल देखने लगा. जब वह बारहवीं में पहुंचा, तो कौशल की सोच उस पर पूरी तरह से हावी हो चुकी थी, यहां तक कि वह उससे बात भी नहीं करता था. उसका बनाया खाना तक नहीं खाता, तब कौशल उसे बाहर से खाना खिलाकर लाते, लेकिन डांटा कभी नहीं कि ‘तुम अपनी मम्मी के साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों करते हो’ या ‘मां की इज़्ज़त करनी चाहिए.’ वह कौशल से कुछ कहती, तो वह उसे ही गालियां देने लगता. विहान भी जब-तब उसे गालियां देने लगा, तो उसे महसूस हुआ कि सच में निरंतर अपने बेटे के लिए भागती उसकी ज़िंदगी मानो ज़ंग खा गई है. विराम तो लगाना ही होगा, वरना विहान की ज़िंदगी को कोई राह नहीं मिल पाएगी. यह भी पढ़ेसीखें ग़लतियां स्वीकारना (Accept Your Mistakes) उसने विहान को कुछ भी कहना या टोकना छोड़ दिया. जब वह उसकी बात नहीं मानता तो यही सही, वही दिल पर पत्थर रखकर उससे विमुख हो जाएगी. पापा की राह चलना चाहता है, तो ठीक है. बची हुई डोर भी हाथ से छूटते ही विहान के तो जैसे पर निकल आए. वह बिल्कुल बेकाबू हो गया. पढ़ाई-लिखाई सब ताक पर रख दी. दोस्तों के साथ घूमना, कंप्यूटर और मोबाइल पर गेम खेलना. पूरी-पूरी रात टीवी पर फिल्में देखना. वह चुपचाप सब देख रही थी. देख रही थी कि कौशल उसे कुछ नहीं कह रहे हैं, बल्कि उसकी मांगों को पूरा कर रहे हैं. कई बार उसे ताना देते, “क्या हुआ, तेरी मां आजकल तुझे कुछ कहती नहीं, लगता है उसका सारा जोश ठंडा पड़ गया है या फिर अनुशासन में रहने का बुख़ार उतर गया है.” बारहवीं के बोर्ड एक्ज़ाम का पहला पेपर और विहान नौ बजे तक सो रहा था. उसने एक बार उठाया, तो ज़ोर से उसने उसका हाथ झटक दिया. दस बज गए, लेकिन वह पेपर देने ही नहीं गया. उस पल उसे लगा था कि वह हार गई है. सारे सपने चूर-चूर हो गए थे. उसका बेटा कभी ऐसा करेगा, कल्पना से बाहर की बात थी. कौशल को भी धक्का लगा था. जैसे-तैसे उन्होंने विहान को जगाया. घर का माहौल तनाव से भर गया. पूरे घर में सन्नाटा-सा छा गया. हर किसी के मन में यही सवाल उठ रहा था कि आख़िर ग़लती कहां हुई? विहान को अपराधबोध व पश्‍चाताप हो रहा था. वो अपने व्यवहार का आत्मविश्‍लेषण करने लगा, तब उसे एहसास हुआ कि मम्मी ने उसे सही राह दिखाने की कितनी कोशिश की, पर पापा के शह के कारण वह बिगड़ता चला गया. जब कौशल ने विहान को समझाने की कोशिश की कि उसने अपना पूरा साल ख़राब कर लिया, तो वह उन पर ही ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा. “पापा, आप ज़िम्मेदार हो इन सबके. मम्मी मुझे समझाती थी, तो आप मुझे कंप्यूटर खेलने के लिए उकसाते थे. ख़ुद कभी ऑर्गेनाइज़्ड नहीं रहे, तो मुझे भी अपने जैसा बना डाला. आप सचमुच बुरे हो और सेल्फिश भी. मम्मी को नीचा दिखाने के चक्कर में आप मेरे जीवन से खेल गए. आई एम सॉरी मम्मी. काश! आप मुझे डांटना न छोड़तीं.” बिलखते हुए विहान को उसने जब सीने से लगाया, तो लगा कि उसकी ममता तृप्त हो गई है. “बेटा, एक साल ख़राब होना उतना इम्पॉर्टेंट नहीं है, जितना कि उसकी और अपने जीवन की क़ीमत समझ लेना. मैं तुम्हारे साथ अगर सख़्त व्यवहार करती थी, तो इसलिए क्योंकि तुम्हारी भलाई चाहती थी. सिस्टम को न फॉलो करने से हम अपने लक्ष्य पर फोकस नहीं कर पाते हैं.” सही ही कहते हैं लोग कि ‘पतझड़ के बाद ही वसंत आता है.’ लेकिन वह भी एक बात कहना चाहती है कि कभी-कभी ज़िंदगी को ज़ंग लगने से बचाने के लिए विराम देना भी आवश्यक है. Suman Bajpai      सुमन बाजपेयी

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