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कहानी- विश्‍वास की शाखाएं (Short Story- Vishwas Ki Shakhayen)

 
कृति के आकर्षण की तीव्र आंधी प्रणव को तो बहा ही रही है, साथ ही नियति की ज़िंदगी के हरे-भरे वृक्ष को भी उसने झकझोरना शुरू कर दिया है. और इस आंधी के प्रवाह को रोकने के लिए उसने आकर्षण के इस दरवाज़े को बंद नहीं किया तो पेड़ को जड़ से उखड़ते देर नहीं लगेगी. उसकी दोनों ही मज़बूत शाखाएं टूटकर गिर जाएंगी

विश्‍वासघात की मुंडेर पर अब और कोहनी टिकाए खड़े रहना उसके लिए असंभव हो गया था. कुछ समय तक तो चीज़ों को सहा जा सकता है, उन्हें नज़रअंदाज़ भी किया जा सकता है, पर फिर विराम लगाना ही पड़ता है. ज़िंदगी की ख़ूबसूरती को अगर कोई नष्ट करने लगे तो दो ही सूरतें होती हैं उससे निजात पाने की… या तो उसे ज़िंदगी से निकालकर बाहर फेंक दिया जाए या फिर नासूर बनने से पहले ही ज़ख़्म का इलाज कर लिया जाए. अब तक वह भी समाधान तलाश रही थी, ताकि नासूर न बने ज़ख़्म… लेकिन शायद उसकी कोशिशों में ही कोई कमी रही होगी, इसीलिए तो ज़ख़्म हरा होता चला गया.
शरीर का कोई अंग विषाक्त हो जाए, तो डॉक्टरों को उसे अलग करते देर नहीं लगती. किस इंसान को अच्छा लगता है कि उसके शरीर का एक हिस्सा उससे अलग हो जाए, पर विकल्प न होने पर ही ऐसा निर्णय लिया जाता है. समाधान स्वरूप उस विषाक्त अंग को कटवाना ही पड़ता है.
तो क्या उसे भी ऐसा ही समाधान ढूंढ़ना पड़ेगा?
एकबारगी सिहर उठी नियति.
क्या वह कर पाएगी ऐसा? कृति को अपने से अलग करने के ख़याल से ही वह कांप उठी, ‘फिर क्या ज़ख़्म का दर्द ज़िंदगीभर के लिए सहने को तैयार है वह?’ मन की आवाज़ ने उसे झकझोरा.
“नहीं.” मुंह से अनायास निकला उसके.
वह कॉलेज के अंतिम वर्ष में थी, जब एक कार एक्सीडेंट में उसके मम्मी-पापा उसे छोड़ गए थे. तब कृति भी उनके साथ ही थी, उसे खरोंच तक नहीं आई. मम्मी-पापा के शव को देखकर नियति के शरीर से भी जैसे प्राण चुक गए थे, पर कृति जब उसकी गोद में सिर रखकर आंसुओं के अथाह समुद्र में डूबने लगी, तो जैसे उसे अपनी ज़िम्मेदारियों का बोध हुआ. कैसे टूट सकती है वह? कृति को तो उसे ही संभालना होगा. कहने को कृति नियति से तीन बरस छोटी थी और उस समय बारहवीं में पढ़ रही थी, पर वह तो उसे एक नन्हीं बच्ची ही मानती थी. उसकी शरारतें, उसकी ज़िद, उसे बड़ा होने ही नहीं देती थीं.
मम्मी अक्सर कहतीं, “इतनी बड़ी हो गई है, इठलाना नहीं छोड़ा. जब देखो, तब बस, शीशे के सामने खड़ी रहती है. अरे, इससे आगे भी तो सोचा कर.”
तब कृति झट मां के गले में बांहें डाल कहती, “मुझे तो ब्यूटी क्वीन बनना है. मुझसे कुछ और नहीं होगा. पढ़ाई और कुछ बनाने के सपने आप दीदी से पूरा करें. मुझे तो सजना पसंद है.” उसकी चुलबुली हंसी से तब पूरा घर महक उठता. नियति भी सदा उसी की तरफ़दारी करती, “मम्मी, व़क़्त आने पर सब सीख जाएगी. इसे अभी जापानी गुड़िया ही बनी रहने दो.”

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उसने कभी सोचा ही नहीं था कि उसकी यही जापानी गुड़िया कभी उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाएगी, उसकी ही ख़ुशियों पर बड़ी बेरहमी से अधिकार जताएगी, वैसे ही जैसे बचपन से करती आई है.
शुरू-शुरू में नियति दीदी को छेड़ने के ख़याल से बना यह मज़ाक अब उसकी आदत बन चुकी है. अब वह नियति की हर चीज़ को लेना या छीन लेना अपना हक़ मानने लगी है.
“हाय दीदी, यह दुपट्टा कितना सुंदर है, इसे तो मैं ले रही हूं,” कह कृति उसके कपड़े, मेकअप का सामान कुछ भी नहीं छोड़ती थी. कई बार नियति बहुत मन से अपने लिए कुछ लाती, पर कृति मांगती तो वह इंकार न कर पाती.
उसे मन मारते देख मम्मी ग़ुस्सा होती थीं, “नियति, तू यह ठीक नहीं कर रही है. अपनी बहन के लिए कुछ करना ठीक है, पर अपनी ख़ुशियों को दांव पर लगाकर नहीं.”
“कोई बात नहीं मम्मी. अभी छोटी है, इसलिए ऐसा करती है. यह उसका प्यार है.”
लगता है, ‘छोटी है, छोटी है’, कहकर ही उसने कृति को कभी बड़ा होने नहीं दिया. लेकिन अब यकायक वह कृति, जो मम्मी-पापा के गुज़रने के बाद भी उसका ही पल्ला पकड़े घूमती थी, इतनी बड़ी हो गई है कि उसकी ही सबसे अमूल्य चीज़ को छीनने पर आमादा है. अगर उसके बढ़ते क़दमों को रोका नहीं गया तो… सिहर उठी नियति.
बहुत मुश्किल से ज़िंदगी को वापस ढर्रे पर लाई थी नियति मम्मी-पापा के जाने के बाद. रिश्तेदारों ने मदद की, पर उनकी भी अपनी सीमाएं थीं. एम.ए. की डिग्री हासिल करने के बाद उसने पापा का बिज़नेस संभालना शुरू किया. बैंक बैलेंस ने भी बहुत सहारा दिया. कहां तो मम्मी उसके ब्याह के सपने देख रही थीं और वह एम.बी.ए. करने के. तमाम सपनों को विराम लगा उसने केवल बिज़नेस और कृति पर सारा ध्यान लगा दिया. वह नहीं चाहती थी कि उसकी जापानी गुड़िया को किसी भी बात की कमी या दुख महसूस हो.
प्रणव पापा के ऑफ़िस में ही काम करता था. चार्टेड अकाउंटेंट था, इसलिए सारा फ़ाइनेंस उसी के हाथ में था. स्मार्ट, व्यावहारिक, हर चीज़ को ढंग से सुलझाने की आदत और स्पष्टवादिता के कारण ही वह लोकप्रिय था. ऑफ़िस स्टाफ से पता चला कि वह पापा का चहेता भी था.
काम और सलाह लेने के लिए नियति का उससे नित्य ही संवाद होता. एक तरफ़ उसका अकेलापन, बढ़ती हुई ज़िम्मेदारियां और दूसरी तरफ़ प्रणव का व्यवहार… नियति उसकी ओर झुकती चली गई. प्यार की कोंपल शायद दोनों ओर से फूटी थी, इसलिए तो प्रणव ने उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा. साथ में यह भी जतला दिया कि यह न समझे कि वह उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठा रहा है. चाहत का ज़ज़्बा प्रणव की आंखों से उतर कर दिल में समाया था नियति के.
कृति बहुत ख़ुश हुई यह जानकर. दीदी को दुल्हन बना देख झूम उठी वह.

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प्रणव से वह बार-बार जीजाजी-जीजाजी कह लिपटती. कई लोगों ने टोका भी. “कृति, तू कॉलेज में पढ़ती है, कोई बच्ची नहीं है. रिश्तों की मर्यादा रखना सीखो.” लेकिन वह कहां सुननेवाली थी. इठलाती हुई हर किसी को मुंह चिढ़ा देती. प्रणव के माता-पिता दूसरे शहर में रहते थे, इसलिए वह नियति के घर में ही रहने लगा. उसकी और कृति की बहुत पटती थी. हंसते-खिलखिलाते, यहां-वहां घूमते व़क़्त पंख लाकर उड़ने लगा. नियति और प्रणव के बीच हमेशा कृति होती. यहां तक कि हनीमून पर भी वह उनके साथ गई थी. नियति को तो बुरा लगने का सवाल ही नहीं था, प्रणव ने भी बड़ी समझदारी से उसका साथ दिया.
कृति की कॉलेज की पढ़ाई पूरी हो गई थी. नियति चाहती थी कि वह एम.बी.ए. करे, पर वह और पढ़ना नहीं चाहती थी. सारे दिन मस्ती, सजना-संवरना और प्रणव के घर लौटने पर देर रात तक गप्पे मारना, पिक्चर देखना…यही उसकी दिनचर्या बन गई थी. नियति भी सारे दिन ऑफ़िस में थक जाती थी, इसलिए कृति में आने वाले बदलाव को नहीं देख पाई. फिर यकायक ही प्रणव और कृति की बढ़ती निकटता ने उसे सहमा दिया.
क्या कृति एक बार फिर उसकी चीज़ों की तरह प्रणव को भी..? माना कि दोनों ही उसकी ज़िंदगी के अभिन्न हिस्से हैं, दोनों को ही वह दुखी नहीं कर सकती है, पर इस दुविधा में क्या वह कृति के बढ़ते क़दमों को रोकेगी नहीं? कृति को सही-ग़लत का ज्ञान कराने का दायित्व उसी पर तो है. भटकते हुए क़दमों को उसने आज नहीं रोका तो हो सकता है कि कल कृति ही उसे इसके लिए दोषी ठहराने लगे. आख़िर वह जिस ओर जा रही है, उसका परिणाम सुखद तो नहीं हो सकता. कृति के आकर्षण की तीव्र आंधी प्रणव को तो बहा ही रही है, साथ ही नियति की ज़िंदगी के हरे-भरे वृक्ष को भी उसने झकझोरना शुरू कर दिया है. और इस आंधी के प्रवाह को रोकने के लिए उसने आकर्षण के इस दरवाज़े को बंद नहीं किया तो पेड़ को जड़ से उखड़ते देर नहीं लगेगी. उसकी दोनों ही मज़बूत शाखाएं टूटकर गिर जाएंगी.
प्रणव या कृति दोनों को ही वह कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. उसे लगता था कि दोनों में से जो भी दुखी हुआ, उसी के आंसू झरेंगे. प्यार और विश्‍वास उसी का छला जाएगा. उसने घर में थोड़ा ज़्यादा व़़क़्त गुज़ारना शुरू कर दिया, खासकर कृति के साथ. उन दोनों के इशारों को वह जान-बूझकर नज़रअंदाज़ कर जाती. वह जानती थी कि चिंगारी को दबाए रखना ही ठीक है. अगर उसे आग दिखा दी. तो सब राख हो जाएगा. वैसे भी जब बात खुल जाती है, तो शर्म के सारे पर्दे भी गिर जाते हैं. यह भी संभव था कि दोनों ही शर्मिंदगी महसूस करते, इससे हार तो उसी की होनी थी.
अक्सर बातों-बातों में वह कृति को ज़िंदगी की सच्चाइयों से परिचित कराने की कोशिश करती.
“तुम्हें अपने बारे में कुछ सोचना होगा. तुम पढ़ना नहीं चाहतीं, ठीक है तो फिर तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए.”
“पर दीदी, मैं शादी… नहीं, नहीं.” वह घबरा-सी गई थी.
“पर क्यों? तुम किसी को पसंद करती हो, तो बता दो. मैं और तुम्हारे जीजाजी उसके बारे में पता कर लेंगे. देखो न, मैं और प्रणव दोनों ही काम में व्यस्त रहते हैं, इसलिए शादी करने से तुम्हें भी साथ मिल जाएगा.”
‘जीजाजी’ पर नियति ख़ास ज़ोर देती, तो कृति के चेहरे का रंग बदलने लगता.
“प्रणव मुझे कितना प्यार करते हैं. ऐसे ही प्यार करनेवाला साथी तुम्हें मिल जाए तो मेरी ज़िम्मेदारी ख़त्म हो. फिर हम भी अपना परिवार बढ़ाने के बारे में सोचें.”
“दीदी, प्रणव जीजू आपसे बहुत प्यार करते हैं न?”
“हां, और करेंगे क्यों नहीं? वैसे भी इसमें बताने जैसी बात क्या है? अपनी दीदी के चेहरे पर छाई रंगत व आंखों में तैरते चटकीले रंगों को देखकर क्या तुम्हें पता नहीं चलता? बहुत ही समझदार हैं वह. कभी-कभी तो हर इंसान बहकने लगता है… पर मेरे साथ वह बहुत खुश हैं. वे बहकें भी तो मेरी मज़बूत बांहों का घेरा उन्हें संभाल लेगा.”
“मतलब?” बुरी तरह से चौंक उठी थी वह.
“अब हर चीज़ का मतलब तो नहीं होता, वह तो मैंने यूं ही कह दिया था. बस, अब मैं तेरे लिए लड़का ढ़ूंढ़ने की मुहिम शुरू कर रही हूं.”
उस दिन तो बात वहीं ख़त्म हो गई, पर नियति ने महसूस किया कि कृति इन दिनों बहुत खोई-खोई सी रहने लगी है. उसकी बातों को अब काटती भी नहीं है. यहां तक कि उसकी चीज़ों को लेने की ज़िद भी नहीं करती. शायद वह अपने आप से लड़ रही थी. उसका इठलाना, अल्हड़पन कहीं पीछे छूट गया था. कुछ गंभीरता भी उसके अंदर आ गई थी. प्रणव से भी वह ज़्यादा बातचीत नहीं करती थी. एहसासात का जो बवंडर प्रणव के रूप में उसके अंदर उमड़ा था, वह केवल एक पुरुष का साथ पाने की ललक और उम्र का बहाव ही था.
एक दिन उसे अपनी सहेली की शादी में जाना था. उसने सलमे-सितारे जड़ी स़फेद रंग की साड़ी पहनी, तो नियति उसे निहारती ही रह गई. फिर जल्दी से जाकर अपनी मोतियों की माला और बूंदे ले आई.
“ले इसे पहन ले, मैच करेंगे इस साड़ी के साथ.”
पहले की तरह कृति ने न तो दीदी के हाथ से उन्हें छीना, न ही लेने की कोई उमंग उसके अंदर झलकी.
“नहीं दीदी, मैंने यह साड़ी पहन ली है, यही काफ़ी है. ज़्यादा चटक-मटक अच्छी नहीं लगती. इसके ब्लाउज़ पर वैसे भी बहुत हैवी वर्क किया हुआ है.”
“पहन लो न कृति.” अचानक वहां प्रणव आ गए थे.
“नहीं जीजू, कब तक दीदी की चीज़ें छीनूंगी मैं?” उसके स्वर की उदासी ने भिगो दिया नियति को.

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फिर अगले ही पल ज़बर्दस्ती अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए इठलाते हुए कृति बोली, “आफ्टर ऑल, मेरा अपना ओरिजनल भी तो कुछ होना चाहिए. माना दीदी मेरी सब कुछ हैं. आज तक मैं केवल उनकी परछाईं बनकर जीती आई हूं, पर दीदी ने मुझे लेकर जो अनगिनत सपने देखे हैं, उन्हें भी तो पूरा करना है न जीजू.” प्रणव उसकी बात सुनकर एक पल तो सकपका गया, फिर सहज होता हुआ बोला, “बिलकुल पूरे करने चाहिए. तुम्हारी दीदी तुम पर जान छिड़कती है. हर समय तुम्हारी ही फ़िक्र लगी रहती है उसे.”
“इसीलिए दीदी मैंने फैसला किया है कि मैं आगे पढ़ूंगी, पर विदेश में. ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी से मैंने फॉर्म भी मंगवा लिया हैं.”
“पर…यहां क्यों नहीं?” नियति उसे अपने से दूर नहीं करना चाहती थी.
“क्योंकि मैं चाहती हूं कि अपने दम पर कुछ करके दिखाऊं. आपका प्यार और विश्‍वास मेरा संबल है, पर उस संबल को मैं अपनी ताक़त बनाना चाहती हूं, कमज़ोरी नहीं.” कृति कसकर नियति से लिपट गई.
मज़बूत पेड़ के तने की तरह नियति ने कृति को बांहों में सहेजा और प्रणव की ओर देखा. उसकी नज़रों में ग्लानि और आश्‍वासन के मिले-जुले भाव थे. अपने दोनों अभिन्न हिस्सों, अपने जीवन की दोनों शाखाओं को सुरक्षित देख ख़ुशी के आंसू उसकी आंखों से बह निकले.

- सुमन वत्स

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