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लघुकथा- विस्फोट (Short Story- Visphot)

“भाईसाहब, सीटी ख़राब होगी कुकर की या सेफ्टी वाल्व. प्रेशर बढ़ गया, निकल पाया नहीं… बस फट गया.” एक ज्ञानी पड़ोसी समझाने लगे. पूरी रसोईं में दाल फैली हुई थी. ट्यूबलाइट को तोड़ता हुआ कुकर का ढक्कन टेढ़ा होकर एक कोने में पड़ा हुआ था. सुशीला अभी तक कांप रही थी.
पोती को स्कूल छोड़कर घर आया, तो देखा फ्लैट के सामने पड़ोसियों की भीड़ जमा थी.
“कुकर फट गया अंकल! हम लोग आवाज़ सुनकर आए… आंटीजी बाल-बाल बचीं आज.” मेरे हाथ-पांव फूल गए! कमरे में सुशीला कुछ औरतों के साथ बैठी थी, बदहवास!
“तुम ठीक हो ना! ये सब कैसे…”
“भाईसाहब, सीटी ख़राब होगी कुकर की या सेफ्टी वाल्व. प्रेशर बढ़ गया, निकल पाया नहीं… बस फट गया.” एक ज्ञानी पड़ोसी समझाने लगे. पूरी रसोईं में दाल फैली हुई थी. ट्यूबलाइट को तोड़ता हुआ कुकर का ढक्कन टेढ़ा होकर एक कोने में पड़ा हुआ था. सुशीला अभी तक कांप रही थी.
“बच्चों को फोन ना करिएगा, डर जाएंगे.”
“आज देखो कितना बड़ा हादसा होते-होते टल गया. तुम्हारी मां अकेली थी घर में… मैं डाॅली को स्कूल छोड़ने गया था.” बेटा-बहू और बेटी के आते ही मैंने रसोई की हालत दिखाई.
“थैंक गॉड! डाॅली घर में नहीं थी उस समय…” बेटा-बहू उसके कमरे की ओर भागे.
बेटी ने रसोईं को देखा, फिर सुशीला को, “ये सुबह हुआ था ना मम्मा! अभी तक सब फैला हुआ है…”
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“बहुत अच्छा हुआ, मेरी पत्नी इसी के लायक है. कितनी बार कहा इस उम्र में भी इतनी ज़िम्मेदारियां ना ओढ़ो… गठिया के कारण लंगड़ाती हो, आराम करो. लेकिन नहीं मानी मेरी बात… और आज देखो, मां, मौत के मुंह में जाने वाली थी और किसी को एक रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ा!
“रिंकी, एक मिनट रुको. भइया-भाभी को भी यहां बुलाओ.” सुशीला ने गंभीर स्वर में कहना शुरू किया.
“मैं और तुम्हारे पापा अब बूढ़े हो चुके हैं, घर के थोड़े काम अब तुम लोग संभालो. पहले तो डाॅली के लिए स्कूल वैन लगवाओ और सुबह शाम का खाना तुम ननद-भाभी मिलकर बनाओ… रिंकी! इतवार को छुट्टी रहती है ना, मशीन लगाकर अपने कपड़े ख़ुद धोया करो. कब बड़ी होगी?”
बच्चे एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे और मैं अपनी पत्नी का! ये हुआ क्या इसे आज? शायद मृत्यु से साक्षात्कार के बाद ही आंखें खुलनी थीं…
मैंने कमरे में जाकर छेड़ा,” क्या हुआ? निरूपा रॉय से अचानक ललिता पवार कैसे बन गई?”
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मेरी बात पर वो बहुत दिनों बाद ठहाका मारकर हंसी, “क्या करती! सालों से प्रेशर भरा हुआ था, निकल ही नहीं रहा था… बस! दिमाग़ का कुकर फट गया!”
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