"आश्चर्य होता है ना कि उनके जैसा ख़ुशमिज़ाज आदमी, विपरीत परिस्थितियों में भी न घबराने वाला इंसान इस क़दर टूट जाएगा कि आत्महत्या कर लेगा, पर…"
वह नाश्ता करके दफ़्तर जाने की तैयारी में ही था कि फ़ोन की घंटी बजी. दीपक बड़े ही कातर स्वर में बोला, "आनंद भैया नहीं रहे. कल रात उन्होंने ज़हर खा लिया था. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर डॉक्टर उन्हें बचा नहीं पाए." लन्च बॉक्स मेज़ पर रख कर मैं स्तब्ध-सा बैठ गया. मीना कमरे में आई.
"ग्यारह बज रहे हैं, आपको दफ़्तर नहीं जाना?" उसने पूछा.
"बहुत बुरी ख़बर है मीना, आनंद बाबू नहीं रहे."
"कैसे, कब?" इन शब्दों के साथ वह मुझे देखती रह गई.
"आश्चर्य होता है ना कि उनके जैसा ख़ुशमिज़ाज आदमी, विपरीत परिस्थितियों में भी न घबराने वाला इंसान इस क़दर टूट जाएगा कि आत्महत्या कर लेगा, पर… खैर तुम तैयार हो जाओ. पंकज और रिंकी को बगल में श्रीवास्तव साहब के यहां छोड़ कर चलते हैं."
"पापा-मम्मी, आप लोग आज दफ़्तर नहीं जाएंगे?" रिंकी ने पूछा.
"नहीं बेटे, आज हम और तुम्हारी मम्मी दफ़्तर नहीं जा रहे हैं. हम दो-तीन घन्टे के लिए बाहर जा रहे हैं. आप और आशू श्रीवास्तव अंकल के यहां रहना, रिक्शा आने पर स्कूल चले जाना. अब आप लोग जल्दी से नाश्ता कीजिए." मैं मुस्कुरा दिया. वे दोनों भी मुस्कुराते हुए चले गए.
जिस दिन से आनंद बाबू सस्पेन्ड हुए थे, अन्दर से टूट चुके थे. लोग झूठी सांत्वना देते हुए कहते ज़रूर थे, "आप चिन्ता क्यों करते हैं? सस्पेन्ड होना तो आजकल आम बात हो गई है. आप जल्दी ही बहाल हो जाएंगे." ऐसे शब्द क्षणिक राहत तो देते थे, पर लोग आंखों ही आंखों में जो व्यंग्यबाण चलाते थे, वे उन्हें अंदर से आहत कर देते थे. इनमें से कई ऐसे थे, जो अपना काम करवाने के लिए उनके आगे-पीछे घूमते रहते थे. इनमें कई रिश्तेदार भी शामिल थे, जिनकी नौकरियां लगवाने के लिए उन्होंने कई बार अपने संबंधों का ग़लत फ़ायदा उठाया था. आज वे रिश्तेदार भी उन्हें व्यंग्यात्मक दृष्टि से देखते थे.
औरों की उपेक्षा तो वे सहन भी कर लेते, पर अपने ही घर के सदस्यों का उनके प्रति ठन्डा व्यवहार उन्हें ज़्यादा आहत कर गया था. जब तक सस्पेन्ड थे तो यह सोच कर राहत की सांस ले लेते थे कि जल्दी ही बहाल हो जाएंगे, पर विभागीय जांच में दोषी पाए जाने बाद जब उनकी सेवा समाप्ति का आदेश जारी हुआ, तो उनकी व्यथा की सीमा नहीं रह गई थी. जब पांच वर्ष पूर्व बड़े बेटे नितिन की शादी एक समाजसेवी मेहताजी की बेटी से तय हुई थी, तो उन्होंने कहा था, "मैं तो इसी बात से हर्षित हूं कि मेरी बेटी आपके सुसंस्कृत परिवार में बहू बन कर जाएगी."
आनंद जी समझ रहे थे कि मेहता जी को उनका संस्कारशील परिवार नहीं, बल्कि शानदार बिल्डिंग, बड़ा फार्म हाउस, चार प्लॉट नज़र आ रहे थे और अपनी बेटी का उज्जवल भविष्य भी. रीमा जब बहू बन कर आई, तो उसने आनंदजी को हमेशा सम्मान दिया, क्योंकि वह जानती थी कि उनके पास अपार संपत्ति है, जिसका एक बड़ा हिस्सा उसके पति को मिलनेवाला है.
आनंदजी कॉलेज में मुझसे सीनियर थे और छात्रावास में उनका कमरा मेरे कमरे के पास ही था. वे बहुत ही प्रतिभाशाली थे. जब भी उनके रूम में जाता, उन्हें महापुरुषों की जीवनियां पढ़ते ही देखता.
गांधीजी की विचारधारा में उन्हें बहुत विश्वास था. कहते हैं कि हर पुरुष की सफलता के पीछे महिला का हाथ होता है, पर अफ़सोस की बात है कि आनंदजी को उनके आदर्शों से हटाकर पतन की ओर ले जाने में रीता भाभी का बड़ा हाथ रहा. वे एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की युवती थीं. बचपन से ही उन्होंने अभावग्रस्त जीवन जीया था. बड़ी मुश्किल से बी.ए. पास कर पाई थीं, पर जब आनंदजी से विवाह हुआ, तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. किंतु विवाह के बाद आनंदजी के सादगी भरे जीवन को देखकर वे उदास हो गईं, क्योंकि सादगी भरा जीवन वो जीना नहीं चाहती थीं. उन्होंने आनंदजी पर ऊपरी कमाई करने के लिए दबाव डालना चाहा, पर आरंभ में आनंदजी को उनके आदर्शों से डिगाने में उन्हें सफलता नहीं मिली. पर राशि और अनुपम के जन्म के बाद उन्हें महसूस हुआ कि यदि उन्होंने आमदनी नहीं बढ़ाई, तो अपने और बच्चों के लिए मनचाही सुविधा अर्जित नहीं कर पाएंगी. अतः वे रोज़ आनंदजी को उनकी कम आय के लिए ताने देने लगीं.
रोज़-रोज़ के तानों से परेशान आनंदजी तनावग्रस्त रहने लगे. अन्ततः उन्होंने रिश्वत लेना आरंभ कर दिया. शुरुआत पांच सौ रुपए के लिफ़ाफ़े से हुई और फिर एक बार हिचक ख़त्म हुई, तो वे रिश्वत में हज़ारों रुपए लेने लगे. अब घर में सुविधा की सभी चीज़ें उपलब्ध थीं. रीता जेवरों से लद गई थीं. बच्चे मारुती कार में स्कूल जाते थे, पर आनंदजी अपराधबोध से ग्रस्त रहते थे. वे रोज़ रात को क्लब जाते और ड्रिंक लेते.
इसी बीच एक और बेटी कोमल का जन्म हो गया. सब ख़ुश थे, पर आनंदजी चैन की नींद खो चुके थे. रात को सोने के लिए उन्हें नींद की गोली खानी पड़ती, पर जब कुछ ही वर्षों में वे रिश्वत लेने के आदी हो गए, तो उनका सारा तनाव जाता रहा. वे सुख-सुविधा से भरे भौतिक जीवन में रंग गए. मित्रों की बैठक में उनके ठहाके गूंजने लगे.
पहले जब हम दोनों उनके घर जाते, तो वे उत्साहपूर्वक मिलते थे. पर दो-तीन बार से हमने महसूस किया कि वे हमसे उखड़ा-उखड़ा- सा व्यवहार करने लगे थे. शायद इसलिए कि पद के हिसाब से उनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊंची हो गई थी और मेरी तो उस समय कोई प्रतिष्ठा थी ही नहीं. पत्नी मीना ने भी रीता भाभी के व्यवहार में ठंडापन महसूस किया. सो हमारा उनके यहां जाना बहुत कम हो गया.
फिर वह दिन भी आया जब दोनों बेटियों राशि और कोमल की शादी हो गई. शादियां धूमधाम से हुई. निमंत्रण-पत्र मिलने पर हम भी शादी में शरीक हुए. सुना कि दस-दस लाख रुपए तो शादियों की पार्टी में ही ख़र्च हो गए थे. कुल कितना ख़र्च हुआ होगा, इसकी कल्पना भी मेरे जैसा मध्यमवर्गीय व्यक्ति नहीं कर सकता. पच्चीस वर्ष पूर्व का एक प्रसंग याद आ गया. एक दिन छात्रावास में प्रेमचंदजी की एक कहानी का ज़िक्र होने पर उन्होंने कहा था, "वाकई, पैसेवालों के घर में बेटी ब्याहने की बजाय, दहेज से उनका घर भरने की अपेक्षा, बेटियों का हाथ गरीब लेकिन स्वाभिमानी और स्वावलंबी युवकों के हाथ में देना बेहतर है."
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वही आनंदजी अब कितने बदल चुके थे. राशि और कोमल बिदाई के समय जब गहनों में दमक रही थीं, तो उनकी मुखमुद्रा में सौम्यता और स्नेहशीलता कहीं नज़र नहीं आ रही थी. एक बेटे निरिन को उन्होंने गैस की एजेन्सी दिलवा दी और दूसरे बेटे कमल ने मेडिकल स्टोर खोल लिया. संपन्न परिवार की दो सुन्दर युवतियां पुत्रवधु के रूप में परिवार में आ गईं. आनंदजी को महसूस हुआ जैसे वे संसार के सबसे सुखी इन्सान बन गए, पर पाप का घड़ा आख़िर फूट कर ही रहता है. उनकी आर्थिक अनियमितताएं प्रकाश में आईं और एक दिन अचानक आनंदजी सस्पेन्ड हो गए. प्रकृति ने एक झटके में उनका सारा सुख हर लिया. पैसा अब भी बहुत था, पर सम्मान नहीं रहा, प्रतिष्ठा ख़त्म हो गयी. ऐसे में परिवार के सदस्य भी स्नेह का स्पर्श देने के लिए तैयार नहीं थे.
सस्पेन्ड होकर जब घर आए, तो पत्नी रीता की पहली प्रतिक्रिया थी, "लोग आटे में नमक के बराबर भ्रष्टाचार करते हैं. तुमने नमक में आटा मिलाना चाहा. तुम्हें सेफ़ गेम खेलना चाहिए था. तुममें चालाकी है ही नहीं. मेरी तो क़िस्मत ही फूट गई. किसी को मुंह दिखाने के क़ाबिल नहीं रही." पैसे को सर्वोपरि माननेवाली पत्नी को गिरगिट की तरह रंग बदलते देख वे हैरान रह गए.
जब वे ईमानदारी के साथ जीवन व्यतीत कर रहे थे, तो पत्नी ने ही उन्हें रिश्वत लेने के लिए उकसाया और जब वे बेईमानी से अर्जित धन के कारण संकट में फंस गए, तो अब उन्हें ही कोसा जा रहा है. जब तक रिश्वत के रुपयों से भरे लिफ़ाफ़े आते रहे, पत्नी और बहुओं के लिए लेटेस्ट डिज़ाइन के जेवर बनते रहे, तब तक वे सबके प्रिय बने रहे, पर अब जब सस्पेन्ड हो कर नौकरी जाने की नौबत आ गई तो घर के सभी सदस्य उन्हें ही कोस रहे हैं. ग़लत ढंग से धन उन्होंने क्या अपने लिए अर्जित किया? कॉलेज के दिनों में भी उन्हें कोई ग़लत शौक नहीं था. सिगरेट और शराब की लत तो दूर रही, उन्हें महंगे कपड़े पहनने तक का शौक नहीं था. यह सब सोचते-सोचते निश्चित रूप से आनंदजी व्यथित हुए होंगे.
आनंदजी के घर जाने से पूर्व मैं जिस हृदय विदारक दृश्य की कल्पना कर रहा था, वह वहां पहुंच कर देखने को नहीं मिला. रीता भाभी के अलावा कोई विशेष दुखी नज़र नहीं आया. दोनों बेटियां राशि और कोमल मां को संभालते हुए कह रही थीं कि काश, वे अपने पापा से अंतिम समय में मिल पातीं. इन बेटियों ने पिछले ८ महीनों में पापा से मिलना तो दूर, उन्हें सहानुभूति का एक पत्र भी नहीं लिखा था. आनंदजी के चचेरे भाई दिनेश ने बताया कि कोमल का दो माह पूर्व फोन ज़रूर आया था, तब उसने मां से कहा था कि जब से पापा सस्पेन्ड हुए हैं और उनकी विभागीय जांच शुरू हुई है, ससुरालवालों ने मेरा जीना हराम कर दिया है. पति और सास-ससुर मुझ पर कटाक्ष करते हैं. पापा को इतना लोभ नहीं करना चाहिए था. दिनेश से यह सब सुन कर मैं सोच रहा था कि इस बेटी ने अपनी शादी के समय लाखों रुपए ख़र्च होते समय, तो पिता से नहीं पूछा कि इतना रुपया कहां से आ रहा है? उसने यह भी नहीं कहा कि आप इतना रुपया ख़र्च मत कीजिए. उस समय तो वैभव का प्रदर्शन सुखद लग रहा होगा. उसने सोचा होगा कि भरपूर दहेज़ लाने से उसे ससुराल में दुलार और सम्मान मिलेगा, काश! उसने पापा से एक बार कहा होता कि मेरे सुख के लिए ग़लत ढंग से धन अर्जित मत कीजिए, तो संभवतः पापा की चेतना जागृत होती.
राशि ने तो फोन पर ही पापा से कहा था, "पापा, आपने यह क्या किया? आपकी इस हरकत के कारण ससुरालवालों के सामने मेरा सिर झुक गया."
निश्चित रूप से बेटी के इन कटु वचनों को सुनकर आनंदजी स्तब्ध रह गए होंगे. जब दो वर्ष पहले दामाद को उपहार में मारुती कार दी थी, तब तो राशि ने नहीं सोचा कि मारुती कार देने के लिए पापा के पास पैसा कहां से आया? पापा कोई ग़लत काम तो नहीं कर रहे? पर तब तो उसे पापा संसार में सबसे ज़्यादा प्रिय लगे होंगे, जिन्होंने मारुति देकर ससुराल में उसका मान बढ़ाया.
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आज उनके द्वारा पापा की याद में आंसू बहाए जा रहे थे, सिर्फ़ दुनिया को दिखाने के लिए. मेरे सामने बैठे दोनों दामाद आनंदजी की महानता के राग अलाप रहे थे. "उन्होंने हमेशा मुझे पिता जैसा स्नेह दिया." इसी स्नेही दामाद ने एक महीने पहले अपनी पत्नी से कहा था, "तुम्हारे पिता के अनैतिक आचरण के कारण मेरा सिर शर्म से झुक गया है. ऐसे आदमी को ससुर कहने में भी मुझे शर्म आती है."
दिनेश ने बताया कि उस दिन बहू ने अपने व्यंग्यबाणों से आनंदजी को आहत कर दिया था. बड़े बेटे नितिन ने पत्नी से पूछा, "तुम्हारे भाई की शादी है, पर अपने यहां तो निमंत्रण पत्र नहीं आया." बहू ने अजीब-सी मुख मुद्रा बनाकर कहा, "ससुर जी के कारनामे प्रदेश के सभी अख़बारों में छप चुके हैं. उन्हें बुलाकर अपनी जगहंसाई करवानी है क्या?"
आनंदजी तब बेडरूम की ओर जा रहे थे. बहू की बातें उनके दिल में चुभ गईं और उनकी आंखें भर आईं. आज वही बहू आंसू बहाते हुए कह रही थी, "मेरे प्रति उनका बेटी जैसा स्नेह मैं आजीवन नहीं भूल सकती." आज आनंदजी की मृत्यु को एक वर्ष बीत चुका है. रीता भाभी, बेटे, बहू, पोते-पोतियों के बीच सुख से रह रही हैं. दोनों बेटियां अपने पति और बच्चों के साथ ख़ुशी से जीवन व्यतीत कर रही हैं. आनंदजी ने आत्महत्या कर पूरे परिवार को तनाव और शर्मिंदगी से बचा लिया. हमारे समाज में मृतक व्यक्ति की आलोचना नहीं की जाती, इसलिए आनंदजी के अनैतिक आचरण का अब कोई ज़िक्र नहीं करता. पूरा परिवार उनके द्वारा अर्जित धन का आराम से उपभोग कर रहा है, क्योंकि अब कोई उन पर प्रतिकूल टिप्पणी करनेवाला नहीं है.
आनंद जी की मृत्यु के एक वर्ष बाद भी मैं उन्हें भुला नहीं पाया. आदर्शवाद से डिगे एक इंसान की मृत्यु से मेरा मन व्यथित है. काश! हम इस सच को स्वीकार कर पाते कि यदि हम अपने परिवार के लिए अनैतिक साधनों से धन अर्जित करते हैं, तो परिवार के सदस्य अवश्य उस धन से प्राप्त सुविधाओं का उपभोग करेंगे, पर यदि हम पर कोई लांछन लगता है, तो संकट के दौरान हमारा परिवार भी हमारा साथ नहीं देगा.
आदर्शवाद और ईमानदारी की भावना को त्यागना व्यक्तिगत रूप से आनंदजी को बहुत महंगा पड़ा. बेईमानी से अर्जित धन उनके तनाव का कारण बना और आत्महत्या का भी. हम में से कइयों ने भौतिक सुख पाने की होड़ में आदर्शों के कहीं पीछे छोड़ दिया है, क्या यह सही है?
- ललित कुमार शर्मा
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