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कहानी- ज़िंदगी अपनी शर्तों पर (Short Story- Zindagi Apni Sharton Par)

अमोघ के इन ग़ुस्से भरे उपालंभों को सुन मंदा की आंखों में आंसू उमड़ आए और वह सोचती रह गई कि क्या वह अपना मनचाहा करके कुछ ग़लत कर रही है. अपनी शर्तों पर जीना क्या अपराध है?
तभी उसकी बेटी क्षिप्रा कमरे में आई और उसे रोता देख बोली, "क्या हुआ मम्मा, यह पापा आप पर क्यों बिगड़ रहे थे?"
"मैं अपनी विज़िटिंग प्रोफेसरशिप की इन ट्रिप्स को बेहद लाइक करती हूं. बस, पापा से यही कह रही थी और तेरे पापा ने मुझे इतनी जली-कटी सुना दी. कह रहे थे, मुझे घर से बाहर रहने का इतना ही शौक है, तो मैं घर में न रहूं." मंदा ने अपने आंसू पोंछते हुए बेटी से कहा.

“चलो यह तलाक़ तो हुआ.” मंदा ने कोर्ट से बाहर आते हुए अमोघ से कहा, जो अभी मात्र आधे घंटे पहले डिवोर्स पेपर पर एक हस्ताक्षर के साथ उसका एक्स हस्बैंड बन गया था.
“तुम्हारी परम इच्छा पूरी हो गई. अब तो ख़ुश?”
“उसमें भी कोई डाउट है क्या? तुम्हारी रोज़-रोज़ की चक-चक से पीछा तो छूटा. अब मैं शांति से तो जी पाऊंगी,” मंदा ने एक नज़र अमोघ पर डालते हुए कहा.
“ठीक है, ठीक है भई, तुम ख़ुश रहो. मंदा घर चलो न, एक-एक बाजी चेस की हो जाए. मां के पास भी अकेली-अकेली क्या करोगी?”
“घर चलूं? अभी? हां, मां तो वैसे भी हर समय सोती रहती हैं. चलो घर तो चल सकती हूं.”
“तो चलो ना. क्षिप्रा और क्षितिज भी तुम्हें देखकर बहुत ख़ुश हो जाएंगे.”
“तुम कहते हो तो ठीक है. वैसे क्षितिज और क्षिप्रा तो मुझसे कल ही मिल कर गए हैं."
"ठीक है, फिर घर ही चलते हैं." यह कहते हुए अमोघ ने अपनी गाड़ी का अगला दरवाज़ा खोला और मंदा के बैठने के बाद बंद कर दिया.
घर तक का रास्ता मौन में कटा. दोनों ही अपने-अपने ख़्यालों में गुम थे.
अमोघ से तलाक़ लेकर मंदा बेहद राहत का अनुभव कर रही थी. बेपनाह सुकून का एहसास हो रहा था उसे. अमोघ की दिन-रात की किच-किच के बिना ज़िंदगी का एक-एक पल सुकून से बिताने की अपेक्षा से हल्का महसूस हो रहा था उसे. जहां वह अपने भीतर अबूझ उमंग का एहसास कर रही थी, वहीं अमोघ को एक अजीब से खालीपन का अनुभव हो रहा था. मंदा पिछले 20 सालों से उसकी ज़िंदगी का एक ख़ूबसूरत अटूट हिस्सा थी.
वह सोच रहा था उसके बिना उसकी ज़िंदगी पहले जैसी ख़ुशनुमा नहीं रहेगी. उफ़! यह क्या से क्या हो गया? ज़िंदगी अच्छी-भली चल रही थी, यह तलाक़ की आफ़त उनके बीच न जाने कहां से आ गई, उसने डूबते हृदय से सोचा कि तभी उसका घर आ गया.
“आ गए पापा! डिवोर्स हो गया." क्षिप्रा ने उससे पूछा.
“हां बेटा, हो गया.” तभी पापा के पीछे-पीछे मां को आते देख वह ख़ुशी से कह उठी, "अरे वाह! मम्मा भी आई हैं." और मां के गले लग गई.
तभी अमोघ की मां अपने कमरे से निकल कर आईं और उन्होंने पांव छूती बहू को अपने हृदय से लगा लिया.
"जीती रह बेटा, सदा सुहागन…" आगे के शब्द उनके गले में ही अटक कर रह गए. शायद उन्हें ख़्याल आ गया कि अब उसे यह आशीर्वाद देना बेमानी था.
"चल मंदा, हाथ-मुंह धो कर टेबल पर आ जा. मैं खाना लगाती हूं."
"अरे मां, आप अकेले-अकेले क्या-क्या करेंगी? चलिए मैं भी आती हूं किचन में."
"अरे, तू बैठ यहां एसी में बच्चों के पास. इतनी धूप में बाहर से आई है."
"अरे नहीं मां, मैं ठीक हूं. आप चलकर बैठें एसी में. मैं लगाती हूं ना खाना. अमोघ से रिश्ता टूटा है. आप लोगों से तो नहीं. चलिए आप बाहर जाइए. मैं खाना लगा रही हूं. चलिए, चलिए, जाइए ना."
डिवोर्स के बाद उसे यूं घर के कामों में लगाने में मां की हिचकिचाहट भांप कर मंदा ने मां को कंधों से पकड़कर रसोई से बाहर लगभग धकेला और ख़ुद रसोई में घुस गई.
सबने साथ-साथ खाना खाया.
मंदा के मन में निरंतर ख़्यालों की श्रृंखला चल रही थी.
वह सोच रही थी, अब वह अपनी मां के छोटे से आशियाने में उनके साथ एक शांत, सहज जीवन जिएगी. अपनी रचनात्मकता को पंख देगी. ईश्वर ने उसे अद्भुत लेखन कौशल से नवाजा है. उसका सदुपयोग करते हुए दिन-रात नई-नई सार्थक रचनाएं लिखेगी. अमोघ के साथ उसकी दिन-रात की क्लेश-कलह से उसका मन-मस्तिष्क मानो कुंद हो जाता था. लेखन में उसका बेस्ट नहीं आ पाता था. वह सोचने लगी, अमोघ से अलगाव की अवधि में उसने एक लघु उपन्यास पूरा करके अमेजॉन पर प्रकाशित करवाया था. उसके बेटे, बेटी और कुछ अभिन्न मित्र, जो उसके बेस्ट आलोचक थे, उनकी राय में वह उसके लेखन की सर्वश्रेष्ठ बानगी थी. जिसने भी यह उपन्यास पढ़ा वाह-वाह कर उठा था. यह अमोघ से अलगाव की अवधि में ही संभव हो पाया था. एक मृतप्राय विवाहित जीवन के बोझ तले उसकी रचनात्मकता भी मानो भोथरी हो बैठी थी.
तलाक़ के बाद अब वह अपनी पूरी क्षमता से उसे धार देगी. अपना बेस्ट लिखेगी कि तभी क्षिप्रा उससे पूछ बैठी, “मां, अब आगे क्या इरादा है आपका?”
“बेटा, बहुत काम करने हैं. वह लघु उपन्यास अच्छा चल रहा है अमेजॉन पर. सोशल मीडिया पर उसकी पब्लिसिटी और तेज करनी है.”
“ओह, वाओ, एक्सेलेंट मम्मा. ठीक कह रही हैं आप. अपनी पब्लिसिटी ज़ारी रखिए. शायद बेस्टसेलर बन ही जाए.”
“हां, उसकी बिक्री अभी धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन मेरे विचार से थोड़ी और पब्लिसिटी करूं तो शायद बिक्री ज़ोर पकड़ जाए. इसके अलावा एक कहानी संग्रह छपवाना है. स्क्रिप्ट लगभग तैयार है. बस फाइनल एडिटिंग कर प्रकाशक के यहां भेजना है.”
“बढ़िया, एक्सेलेंट मम्मा. ऑल द बेस्ट. चलो अब आप पापा के साथ चेस खेल लो. पापा आपके साथ चेस के खेल को बेहद मिस करते हैं. कल मैंने कहा कि मेरे साथ खेल लें, तो मुझे मना कर दिया. बोले, "मुझे मंदा के साथ खेलने में ही मज़ा आता है.”
मंदा और अमोघ चेस खेलने लगे.
अमोघ मंदा के साथ तलाक़ को लेकर किसी भी तरह से ख़ुश नहीं था. उसका ध्यान बार-बार खेल से भटक रहा था और मंदा ने देखते-देखते उसे मात दे दी. और उत्तेजित हो चिल्लाई, “लो अमोघ, मैंने तुम्हें हरा दिया. आज तुम ठीक से नहीं खेले. तुम्हारा ध्यान कहीं और था.”
“अरे मैडम, इस खेल को छोड़ो, आपने तो मुझे ज़िंदगी के गेम में ज़बर्दस्त मात दे दी.”
मंदा ने अमोघ के इस वार का कोई जवाब नहीं दिया और चुप रही.
खेल ख़त्म होते ही मंदा अपने मायके वापस चली आई.
मां के घर पहुंच कपड़े बदल उसने मां के कमरे में झांका. वह हमेशा की तरह सो रही थीं.
तभी उसके फोन की घंटी बजी. सुदूर कनाडा में रहनेवाली उससे उम्र में लगभग दस-बारह साल बड़ी उसकी एक कज़िन आभा का फोन था.
“मंदा, अमोघजी के क्या हाल-चाल हैं? तुम दोनों कभी कनाडा का प्रोग्राम बनाओ ना. सालों हो गए हैं तुम्हें और अमोघ को देखें.”
“मेरा तलाक़ हो गया अमोघ से. अब मैं कभी अकेली ही कनाडा आऊंगी.”
“क्या तलाक़? होश में तो हो? शादी के इतने सालों बाद तलाक़? यह क्या बेवकूफ़ी है मंदा? मैं तो तुम दोनों को आइडियल कपल मानती थी. बहुत शॉकिंग न्यूज़ सुनाई तुमने.”
“अमोघ जैसे लगते हैं वैसे हैं नहीं आभा दी. लंबी कहानी है. फिर कभी बताऊंगी आपको.”
“मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम दोनों में तलाक़ होगा. अब अकेली कैसे रहोगी मंदा? बिना पति के सहारे ज़िंदगी निपट अकेले काटना कोई हंसी-मज़ाक नहीं.”
“ओह दी, ये क्या दक़ियानूसी बातें कर रही हैं आप? हम दोनों का रिश्ता बेहद घुटन भरा हो चला था. मैं अमोघ के साथ खुलकर सांस तक नहीं ले पा रही थी. मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं. किसी के सहारे की मोहताज नहीं हूं. ज़िंदगी के इस मुक़ाम पर अब अपने दम पर अपनी शर्तों पर जीना चाहती हूं. पिछले कुछ सालों से अमोघ की दादागिरी और कलह हद से ज़्यादा बढ़ गई थी. उसकी तानाशाही और क्लेश से मेरी रातों की नींद उड़ने लगी थी. एक दिन तो हद ही हो गई. उसने मुझ पर हाथ उठा दिया, तो बताइए मैं कितना सहती?”
“नहीं-नहीं मंदा. शादी कोई गुड्डे- गुड़िया का खेल नहीं कि जब मर्ज़ी उसे तोड़ दो. मैं तुम्हारी बात से कतई इत्तेफ़ाक नहीं रखती.”
“ठीक है दी, अभी फोन रखती हूं. कभी मिलूंगी तो आपको डिटेल में सारी बातें बताऊंगी.”
“ओके मंदा, बाय.”
“बाय आभा दी. टेक केयर.”
आभा से बातें कर मंदा कुछ परेशान-सी हो गई. उनकी बातों ने उसके शांत मन समंदर में हलचल मचा दी. उसके मन में दुविधा होने लगी. उसे अपने निर्णय पर संदेह होने लगा.
‘क्या अमोघ से तलाक़ लेने का उसका फ़ैसला सही था?'
तभी उसने सायास अपनी निगेटिव सोच को विराम दिया. अपने आप से यह कहते हुए, ‘तूने कुछ ग़लत नहीं किया मंदा. तूने अमोघ के साथ अपना रिश्ता निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उसके साथ अपने रिश्ते को तूने हमेशा अपना शत-प्रतिशत दिया. वही तुझे वह प्यार, मान और इज्ज़त नहीं दे पाया, जिसकी तू असल में हक़दार थी. तूने उससे क्या चाहा था? बस अपने लिए थोड़ा सा स्पेस और उसकी निगाहों में अपनी अस्मिता की कद्र और इज्ज़त. यह एक पत्नी का जायज़ हक़ है और जिस रिश्ते में परवाह और सम्मान ना हो, ऐसे रिश्ते का ख़त्म हो जाना ही बेहतर है. इतना मत सोच मंदा, तूने उससे तलाक़ लेकर कुछ ग़लत नहीं किया.'


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यह तलाक़ उसने अपनी और बच्चों की मर्ज़ी से लिया था, लेकिन फिर भी अंतर्मन के कोने में एक फांस रह-रह कर उसे दंश दे रही थी. शायद उसका संस्कार भीरु और परंपरावादी मन पति से स्वेच्छा से रिश्ता तोड़ने के फ़ैसले पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहा था.
वह स्पष्टता से कुछ सोच नहीं पा रही थी.
वह अपने कमरे में आ गई और पलंग पर लेट गई.
कब बीते दिनों की स्मृतियां उसके हृदय पटल पर दस्तक देने लगीं, उसे तनिक भी भान न हुआ.
आज से 25 साल पहले अमोघ के साथ वैवाहिक बंधन में बंध वह मानो सातवें आसमान में पहुंच गई थी. पहले साल में अमोघ, उसके सपनों का शहजादा हर मायने में एक आदर्श पति साबित हुआ था.
मुंह से बात निकलती नहीं कि झट पूरी कर देता.
शुरू-शुरू में उसका बड़बोला, बात-बात पर उन्मुक्त ठहाके लगानेवाला स्वाभाव उसे बेहद पसंद आया था.
वह एक मितभाषी, शांत अपने आप में सिमटी रहनेवाली युवती थी. शादी से पहले हमेशा अपनी सहेलियों से कहा करती, "मुझे तो बातूनी और मज़ाकिया स्वभाव के लड़के पसंद आते हैं, जो ज़िंदगी का हर पल हंसते-मुस्कुराते बिताते हैं. मैं तो अपनी तरह किसी चुप्पे, गंभीर स्वभाव के लड़के से शादी हर्गिज नहीं करूंगी. मेरी तरह वह भी कम बोलनेवाला हुआ, तो एक-दूसरे की शक्ल देखते हुए ज़िंदगी झंड हो जानी है."
अमोघ के साथ पहली ही मुलाक़ात में वह उसके परिहासप्रिय, बहुभाषी स्वाभाव की क़ायल हो उठी. उसका हर बात को मज़ाक का पुट देने का स्वाभाव उसे बेहद रास आया था. किशोरावस्था से जैसे हंसमुख स्वभाव के पति की छवि उसने अपने मन में बसा रखी थी, वह बिल्कुल वैसा ही था.
लेकिन जीवन के तीस बसंत देखी मंदा को इस बात का रत्ती भर भी इल्म नहीं था कि हर चमकती हुई चीज़ सोना नहीं होती. कई बार इंसानी फ़ितरत पर भी सोने सा चमकनेवाला मुलम्मा चढ़ा होता है, जो होता पीतल है, पर खांटी सोने की चमक का आभास देता है.
वक़्त के साथ अमोघ की शख़्सियत पर चढ़ा मुलम्मा अपनी चटक चमक खो बैठा और मंदा को एहसास हुआ कि अमोघ वास्तव में वह नहीं जो उसने सोचा था.
वक़्त के साथ पति के असली स्वाभाव का परिचय पाकर वह बेहद निराश हुई.
कदम-कदम पर पति के मनमौजी और उश्रंखल स्वभाव को देख वह तिल-तिल मरती.
ऊपर से ख़ुशमिज़ाजी का आभास देते उसके व्यक्तित्व में तनिक भी संजीदगी नहीं थी, वरन गहरा छिछोरापन था.
अमोघ महिलाओं की उपस्थिति में अपना संतुलन खो बैठते. उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए बन-बनकर बोलते. सस्ते स्तरहीन मज़ाक करते. घटिया भाषा का इस्तेमाल करते. हर बार किसी भी महिला की उपस्थिति में पति की ओछी हरकतों को देख वह धुआं-धुआं होती खून के आंसू रोती.
किसी भी बात में उसकी अनिच्छा, इच्छा का तनिक ध्यान नहीं रखते. हर बात में अपनी चलाते. उसे हरदम अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहते. घर-बाहर, हर जगह अपना निर्णय उस पर थोपने की कोशिश करते.
उसका सौम्य, संजीदा, गाम्भीर्यपूर्ण स्वभाव पति की छिछोरी रसिक मिज़ाजी और तानाशाह स्वभाव से विरक्त होता कब उससे विमुख होता गया, उसे पता ही नहीं चला. सो पति के साथ उसकी बेमज़ा ज़िंदगी घर-गृहस्थी, बच्चे और यूनिवर्सिटी की आपाधापी में कटने लगी.
समाज की नज़रों में वे आदर्श दंपत्ति थे, लेकिन मन से कोसों दूर. दिन-ब-दिन उनके बीच का फ़ासला बढ़ता ही जा रहा था. पति के बेमेल स्वभाव से उपजे खालीपन की भरपाई हेतु उसने अपने आपको अपने काम में आकंठ डुबो डाला. विवाह से पहले ही वह अंग्रेज़ी साहित्य में पीएचडी कर चुकी थी. अब स्थानीय यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थी.
वह एक लेखिका भी थी, बेहद भावुक और संवेदनशील.
जब भी पति के मनमौजी निरंकुश स्वभाव से आहत होती, उसकी क्षत-विक्षत, आहत भावनाएं कविताओं और कहानियों में उसके दर्द की इबारत लिखतीं.
विवाह के बाद के पहले कुछ वर्ष पूरी तरह से अपनी यूनिवर्सिटी की नौकरी और बच्चों की देखभाल में बीते. बच्चों की उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी उस पर निर्भरता घटने लगी. वैसे भी आजकल सोशल मीडिया, हॉबी, फोन, फ्रेंड्स के बाद युवा होते बच्चों के पास पैरेंट्स को देने के लिए समय ही कहां होता है.
उन्हीं दिनों उसके पास कुछ दूरस्थ यूनिवर्सिटी की विजिटिंग प्रोफेसरशिप के प्रस्ताव आए. अपने शांत, एकरस जीवन में कुछ ख़ुशनुमा बदलाव की चाह में उसने उन्हें स्वीकार कर लिया.
उसके घर की व्यवस्था की धुरी उसकी सास थीं. दो सहायिकाओं के साथ उन्होंने अपने बेटे की गृहस्थी की व्यवस्था इतनी कुशलता से संभाली हुई थी कि उसके लिए मंदा को कोई ख़ास समय नहीं देना पड़ता.
अब उन दो-तीन यूनिवर्सिटी की विज़िटिंग प्रोफेसर होने के नाते हर माह उसके दस बारह दिन घर से बाहर सुदूर शहरों में बीतने लगे. उसका कल्पनाशील, साहित्य अनुरागी मन इन यात्राओं से बेहद ख़ुश रहने लगा. नई जगहों के नूतन परिवेश में उसे अपने साहित्य सृजन के लिए भरपूर मसाला मिलता. वह अपनी उन यात्राओं को बेहद एंजॉय करने लगी.
बाहर की यूनिवर्सिटी में दिनभर में उसके ज़्यादा से ज़्यादा दो या तीन लेक्चर रोज़ाना होते. बाकी का खाली वक़्त वह शहर के पर्यटन स्थलों की सैर में बिताती.
सुदूर शहरों की इन यात्राओं ने उसकी एकरस ज़िंदगी में नूतन रंग भर दिए. वह बड़ी अधीरता से अपनी इन ट्रिप्स की प्रतीक्षा करती.
सब कुछ सामान्य चल रहा था कि न जाने उस बार अमोघ को क्या हुआ, वह उसकी विज़िटिंग जॉब को लेकर उससे बिन बात उलझ बैठा.
"मंदा, यह हर महीने कभी उड़ीसा, कभी असम, तो कभी तमिलनाडु जाने का क्या फंदा पाल लिया है तुमने? अरे, अच्छी-ख़ासी यूनिवर्सिटी की नौकरी है तुम्हारी. अच्छे पैसे पीट रही हो, तो फिर बिना बात हर महीने दस-बारह दिनों के लिए घर से बाहर जाने की क्या तुक है?"


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"अमोघ, यह आप क्या कह रहे हैं? अपनी घर-गृहस्थी तो ठीक-ठाक चल ही रही है. मांजी सब कुछ अच्छी तरह से मैनेज कर ही रही हैं. बच्चों को भी अब मेरी कोई ख़ास ज़रूरत नहीं रही. दोनों सुबह के घर से निकले शाम को घर में घुसते हैं. दोनों अपने-अपने फील्ड में अच्छी तरह से सेट हो गए हैं. एकाध साल में दोनों अपनी-अपनी नौकरी पर बाहर चले जाएंगे. मैंने यह विज़िटिंग प्रोफेसरशिप इसीलिए तो ली है कि कल को जब दोनों बच्चे हमसे दूर चले जाएंगे, तो मुझे खालीपन ना लगे. नई-नई यूनिवर्सिटी जाना, उनके अलग-अलग परिवेश, अलग-अलग कल्चर, नए-नए लोगों से मिलना, उनसे विचारों का एक्सचेंज करना, इन सबसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
साथ ही नई-नई जगह घूमने और देखने को मिलती हैं और सबसे अहम् बात, मैं अपनी ये ट्रिप्स बेहद एंजॉय करती हूं. कभी आप भी चलें ना मेरे साथ इन ट्रिप्स पर अमोघ. फिर इन टूर्स के दौरान मैं कितना कुछ बढ़िया लिख पाती हूं. इसी लेखन से साहित्य की दुनिया में मुझे अपनी पहचान मिली है."
"यह घूमना फिरना तुम्हें ही मुबारक हो मैडम. तुम ही मुंह उठाकर घूमने के लिए बहुत हो, जो मुझे और साथ में टांगोगी. अपनी घर-गृहस्थी संभाली नहीं जाती. रोज़-रोज़ नए-नए चोंचले जान को लगा लेती हो."
"अमोघ, ऐसा तो मत कहिए. मुझे जो अच्छा लगता है क्या मुझे वह करने का अधिकार नहीं है? अब आप मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं.”
“अच्छा तुम्हें आईना दिखाना अन्याय हो गया. मैं बस वही कह रहा हूं, जो तुम कर रही हो. अपनी घर-गृहस्थी, पति और बच्चों को भगवान भरोसे छोड़ दर-दर की खाक छानना कितना सही है, ज़रा मैं भी तो सुनूं." अमोघ ने बेहद तल्ख़ स्वरों में उसे उलाहना दिया.
"आपके इन तानों को सुनकर में इन ट्रिप्स पर जाना बंद कर दूंगी, यह आपकी ग़लतफ़हमी है. यह मेरी जॉब का एक हिस्सा है, जिसे मैं बेहद पसंद करती हूं." इस बार उसने भी अपना आपा खोते हुए तनिक ग़ुस्से से जवाब दिया.
इस पर अमोघ ने बेहद ग़ुस्से में दांत पीसते हुए कहा, "मैडम, आपको अपनी गृहस्थी छोड़ कर दर-दर की खाक छानना इतना ही पसंद है, तो इस घर में रहने की ज़रूरत ही क्या है आपको? अच्छी तरह से चल ही रहा है सब कुछ. हद है. बस, अपना ही सोचना. यह नहीं सोचना कि मां की उम्र बढ़ रही है, तो उन्हें भी थोड़ा आराम चाहिए. लेकिन इतना सोचे कौन? आपको अपनी कविता, कहानियों, सैर-सपाटों से फ़ुर्सत मिले, तब तो आप यह सब सोचें." यह कहते हुए अमोघ अपने हाथ की फाइल वहां टेबल पर अत्यधिक ग़ुस्से में पटकते हुए अवश क्रोध में फुंकारते हुए वहां से चले गए. वह हतप्रभ उन्हें बस देखती रह गई.
अमोघ के इन ग़ुस्से भरे उपालंभों को सुन मंदा की आंखों में आंसू उमड़ आए और वह सोचती रह गई कि क्या वह अपना मनचाहा करके कुछ ग़लत कर रही है. अपनी शर्तों पर जीना क्या अपराध है?
तभी उसकी बेटी क्षिप्रा कमरे में आई और उसे रोता देख बोली, "क्या हुआ मम्मा, यह पापा आप पर क्यों बिगड़ रहे थे?"
"मैं अपनी विज़िटिंग प्रोफेसरशिप की इन ट्रिप्स को बेहद लाइक करती हूं. बस, पापा से यही कह रही थी और तेरे पापा ने मुझे इतनी जली-कटी सुना दी. कह रहे थे, मुझे घर से बाहर रहने का इतना ही शौक है, तो मैं घर में न रहूं." मंदा ने अपने आंसू पोंछते हुए बेटी से कहा.
"अरे मम्मा, आख़िर आप पापा की बातें दिल पर लेती ही क्यों हो? इतने साल पापा के साथ रहकर भी आपको उन्हें हैंडल करना नहीं आया. पापा की तो आदत है, घर में हर बात पर अशांति करना. आप तो उनकी बातें इग्नोर किया करो. एक कान से सुनो दूसरे से निकाल दिया करो और उनकी बातों से दुखी मत हुआ करो. आप वही करो, जो आपको अच्छा लगे. अगर आपको अपनी विज़िटिंग प्रोफेसरशिप बहुत अच्छी लगती है, तो उसे ज़रूर ज़ारी रखो. अब हम दोनों अपने-अपने फील्ड में सेट हैं. एकाध साल में हम दोनों ही अपनी-अपनी नौकरी पर चले जाएंगे. आप अपनी यह विज़िटिंग प्रोफेसरशिप रिटायरमेंट के बाद भी चालू रख सकती हो. इसमें आपकी परफॉर्मेंस तो बढ़िया है ही और इसके लिए आपको एप्रिसिएशन ही मिल रहा है. पापा की बातें सुनने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है. ना उनकी वजह से दुखी होने की ज़रूरत है आपको."
क्षिप्रा की बातें सुनकर उसे बेहद तसल्ली हुई. अमोघ के आरोपों से मन में उपजा संशय और अपराधभाव बहुत हद तक धुल-पुंछ गया.
वह उसे देख कर मुस्कुरा दी, "क्या मम्मा, आप मेरी स्ट्रांग मम्मा हो. पापा की इतनी छोटी-छोटी बातों पर परेशान बिल्कुल मत हुआ करो. चलो अब तनिक स्माइल कर दो." और मंदा उसे देखकर आंसुओं के बीच मुस्कुरा दी और उसने लाड से बेटी को गले लगा लिया.
तभी वह बुदबुदाई, "ये पापा भी न. आप पर बहुत रौब झाड़ते हैं. उन्हें तो मैं ठीक करती हूं अभी."
उस दिन क्षिप्रा ने अमोघ को न जाने क्या कह दिया कि रात को अमोघ मंदा पर फिर से बिगड़े, "अब तुम ने बच्चों को भी मेरे ख़िलाफ़ भड़काना शुरू कर दिया. यह तुम अच्छा नहीं कर रही हो मंदा. अपनी ग़लती मानने की बजाय उल्टे मुझे दोषी ठहरा रही हो."
उनका अति क्रोध से विकृत चेहरा देख मंदा चुप ही रही.
उस दिन के बाद से वह उससे बेहद खिंचे-खिंचे रहने लगे थे. उन्होंने उससे सीधे मुंह बात करना तक बंद कर दिया था. जब भी बोलते, कड़वा ही बोलते.
एक बार फिर मंदा के असम ट्रिप पर जाने का समय नज़दीक आ रहा था. मंदा को अगले ही दिन गुवाहाटी के लिए रवाना होना था कि उसे अपनी यात्रा के लिए सूटकेस पैक करके देख अमोघ ने उससे बेहद कसैली टोन में कहा, "तुमने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया ना? फिर से जा रही हो इस बार? मैंने तुम्हें अपने ये विज़िट बंद करने के लिए कहा था ना.फिर भी?"
अमोघ ने उसे भयंकर ग़ुस्से से देखा, लेकिन इस बार वह तनिक भी नहीं डरी और उनकी आंखों में सीधे देखते हुए उनसे अपने मन की बात कह दी, "अमोघ, यूं बात-बात पर मुझे जलील करना छोड़ दो, तो हम सब के लिए ठीक रहेगा. मैं अपनी इन ट्रिप्स पर जाना हर्गिज़ बंद नहीं करूंगी. इन टूर्स पर जाने से घर-गृहस्थी, तुम या बच्चे कोई भी प्रभावित नहीं होता. मांजी मनिया और रामकली के साथ बहुत अच्छी तरह से घर को संभाले हुई है. फिर उन्हें तो कुछ काम नहीं करना पड़ता. काम तो ये दोनों ही करती हैं न. मांजी को तो बस उन्हें गाइड करना होता है. बच्चे भी अब इतने छोटे नहीं रहे कि उन्हें मेरी ज़रूरत हो. वह ख़ुद कह रहे हैं कि जब मुझे अपनी यह विज़िटिंग प्रोफेसरशिप इतनी पसंद है, तो मुझे यह चालू रखना चाहिए. कल को रिटायर होने के बाद इसकी वजह से मैं एक्टिव तो रहूंगी. यह क्यों नहीं सोचते तुम? मैं यह प्रोफेसरशिप मरते दम तक चालू रखूंगी. तुम मुझे इसे बंद करने के लिए मजबूर हर्गिज़ नहीं कर सकते. राइटिंग और ट्रैवलिंग मेरा पैशन है. इनमें मेरी जान बसती है. मुझे अपने पैशन को पूरा करने से कोई ताक़त नहीं रोक सकती. तुम भी नहीं. यह तुम कान खोल कर सुन लो."


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मंदा के इतना कहते ही अमोघ को इतना ग़ुस्सा आ गया कि उन्होंने अवश क्रोधावेग में एक ज़ोर का थप्पड़ उसे जड़ दिया कि तभी शायद उन दोनों की तेज आवाज़ सुन कर क्षिप्रा और क्षितिज दोनों अचानक कमरे में घुसे. दोनों ने ही पिता को मां पर हाथ उठाते देख लिया था और वे दोनों भाग कर मां के पास आए. दोनों को देखकर अमोघ कुछ झेंप से गए और तेज कदमों से कमरे से बाहर चले गए.
मंदा जड़वत खड़ी रह गई. पति से थप्पड़ खाकर वह अपना गाल सहलाते हुए ज़ोरों से बिलख पड़ी. उसे यूं बिखरता देख क्षिप्रा अत्यंत आवेश में चिल्लाई, "मम्मा, आप यह कैसे बर्दाश्त कर सकती हो? पापा ने आपको मारा. दिस इज़ इनटॉलरेबल. अटरली इनटॉलरेबल." लेकिन मां को प्रस्तर प्रतिमा-सी निश्चल खड़े देख उसने उन्हें झिंझोड़ते हुए कहा, "मम्मा, आपको पापा से तलाक़ ले लेना चाहिए. आपको पापा से हर हालत में डिवोर्स ले लेना चाहिए. बस, बहुत हुआ. हर समय आप पर धौंस जमाते हैं. पापा अपने आपको समझते क्या है? उनके मन की नहीं होगी, तो वह आपको मारेंगे. आजकल पापा आपको बहुत टॉर्चर करने लगे हैं. आप चुप रहकर उन्हें बढ़ावा देती हो. मैं आज ही लॉयर अंकल से बात करती हूं.” यह कहते हुए उसने एक घनिष्ठ फैमिली फ्रेंड लॉयर को कॉल करने के लिए फोन उठाया ही था कि मंदा ने झपटकर उसके हाथ से फोन छीनते हुए कहा, "पागल तो नहीं हो गई? घर की बात बाहर उछालेगी?"
"अरे मम्मी, पापा ने आपके साथ सलूक ही ऐसा किया है कि बात बाहर तक जाएगी ही. मम्मा मुझे मेरा फोन दो."
"अभी तू आपे में नहीं है. ग़ुस्से में होश खो बैठी है. पागल हुई है क्या? अब इस उम्र में तलाक़?"
"नहीं मम्मा, तलाक़ का उम्र से कोई वास्ता नहीं. इसका वास्ता है इस रिश्ते मैं आपके सहने से, आपके दर्द से, पापा आपको डिज़र्व ही नहीं करते. आप इतनी जेंटल, केयरिंग, स्वीट और ग्रेसफुल हो. पापा आपसे बिल्कुल उलट हैं. आई डिसलाइक पापा सो मच…”, यह कहते हुए वह मंदा के गले लगकर आंसू बहाने लगी. वह भी उसके साथ आंसुओं में डूब गई.
उस मुश्किल समय में जब अमोघ ने उसे थप्पड़ जड़कर उसके वजूद को चुनौती दी थी, उसकी अस्मिता पर प्रहार किया था, उसके दोनों बच्चे उसके साथ ढाल बनकर खड़े हो गए. उन दोनों ने उसे बार-बार समझाया कि उसे इस दिन-ब-दिन बोझिल होती शादी से मुक्त हो जाना चाहिए. उन्होंने उसे समझाया वे दोनों अपने-अपने स्वभाव के चलते एक-दूसरे के बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं और इस वजह से कभी एक-दूसरे के साथ शांति से नहीं रह पाएंगे. उस जैसी सेंसिटिव, शालीन और गहराईवाली शख़्सियत का अमोघ जैसे रुक्ष, छिछले स्वभाव के असंवेदनशील इंसान के साथ ज़िंदगी बिताने का कोई औचित्य नहीं है.
दोनों बच्चों की बातें सुन मंदा ने भी गहन आत्मविश्लेषण किया.
कई हफ़्तों की मानसिक कशमकश के बाद वह इस नतीज़े पर पहुंची कि अपनी अस्मिता को दांव पर लगाकर ज़िंदगी मर-मर कर गुज़ारने का कोई मतलब नहीं. उसे भी ख़ुश रहने, अपने मन का करने का पूरा-पूरा अधिकार है. अपने आत्मसम्मान की क़ीमत पर एक बोझिल रिश्ता कायम रखने से बेहतर है ऐसे रिश्ते से मुक्ति पा ली जाए.
उसने अपने मन को बहुत खंगाला और उसे उसके हाथ में पति की अंतहीन उपेक्षा, अवमानना, निरंकुशता और मनमानी की सूखी रेत आई.
वे दोनों शादी के बंधन में बंधे हुए ज़रूर थे, लेकिन मन से कोसों दूर थे. उनके रिश्ते में कुछ भी तो नहीं बचा था, न केयरिंग थी, न शेयरिंग और न इज्ज़त और मान-सम्मान. वे दोनों अपने रिश्ते को जी नहीं रहे थे, वरन ज़बरन ढो रहे थे, तो ऐसे बेमायने और बोझिल रिश्ते से मुक्त हो जाना ही सही था.
आख़िरकार बहुत चिंतन-मनन के बाद उसने अपनी बीस बरस पुरानी शादी से मुक्त होने का निर्णय ले ही लिया, यह सोचकर कि अमोघ की आए दिन की खिटपिट, चक-चक से दूर हो वह एक शांत सहज ज़िंदगी बिता पाएगी.
किसी भी तरह की जटिलता से रिक्त उसकी शांतिप्रिय शख़्सियत अमोघ की रोज़-रोज़ की कलह और झगड़ों से परे चैन की सांस ले पाएगी, पनप पाएगी. अपनी खुली आंखों से देखा गया साहित्य सेवा का सपना साकार कर पाएगी. सबसे महत्वपूर्ण था, तलाक़ के बाद वह बिना किसी प्रतिबंध अथवा रोकटोक के एक सहज, ख़ुशनुमा ज़िंदगी जी पाएगी. स्वयं से साक्षात्कार कर पाएगी. अपने पैशन, अपनी ट्रैवलिंग और राइटिंग पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाएगी. उन्हें मुक्त हृदय से जी पाएगी.
और बस यही सब सोचकर उसने क्षिप्रा और क्षितिज को अमोघ के साथ अपने तलाक़ की कार्यवाही को अंजाम देने के लिए हरी झंडी दिखा दी.
बच्चों ने पिता को समझाया कि वह मां के साथ अपने दिनोंदिन मुश्किल होते रिश्ते की केंचुली उतारकर अपेक्षाकृत स्वतंत्र जीवन जी पाएंगे. एक-दूसरे के विरोधाभासी स्वभाव के चलते वे दोनों कभी साथ-साथ ख़ुश नहीं रह पाएंगे, तो बेहतर है कि अलग होकर ख़ुश रहें. आख़िर ज़िंदगी ख़ुशियों का ही तो दूसरा नाम है.
अमोघ को अपने स्तर पर मंदा से कोई शिकायत न थी. मंदा एक बेहद शांत, सुलझी हुई, समझदार और सौम्य स्वभाव की शांतिप्रिय इंसान थी. उसने अमोघ के साथ सामंजस्य स्थापित करने के हरसंभव प्रयत्न किए, लेकिन अमोघ के पेंचदार, खुराफ़ाती स्वभाव के चलते उसके सभी प्रयास विफल हो गए.
आख़िरकार बच्चों के बहुत समझाने पर वह मंदा को तलाक़ देने के लिए तैयार हो ही गया.
अपने एक घनिष्ठ फैमिली लॉयर के यहां कुछ चक्कर, काग़ज़ी कार्यवाही और एक साल के अलगाव के बाद दोनों का आपसी सहमति से बिना किसी जटिलता के तलाक़ हो गया.
तभी उसके फोन पर मैसेज फ्लैश हुआ. उसने मैसेज पढ़ा. अमोघ से अलगाव की अवधि में लिखा उसका लघु उपन्यास बेस्टसेलर की श्रेणी में आ गया था. वह अवर्चनीय ख़ुशी से झूम उठी.
आज उसका खुली आंखों से देखा बरसों पुराना सपना पूरा हुआ.
आगत भविष्य के अनगिनत ख़ुशनुमा ख़्वाब उसकी आंखों में झिलमिलाने लगे.

रेणु गुप्ता

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