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कहानी- अढ़ाई कोस (Story- Adhai Kos)

सारा वापसी की ओर चल पड़ी. वह घर से निकलकर होटल की ओर चल दी. होटल में नीचे बगीचे में ही बैठकर उसने जी भर कर विलाप किया. जैसे वह कोठी में सोनाली का अंतिम संस्कार करके आई हो. उसके वर्तमान और अतीत के बीच की दूरी सिर्फ़ अढ़ाई कोस थी. पता नहीं यह अढ़ाई कोस का रास्ता ही मंज़िल था या उसके दो छोर. आगे सफ़र शुरू करने से पहले किसी एक छोर से अपना दामन छुड़ाना ज़रूरी था.

कभी-कभी पता ही नहीं चलता कि रास्ते ज़्यादा लंबे हैं की फासलें. ऐसा भी होता है कि मंज़िलें सामने होती हैं, पर पैरों में मर्यादाओं, मूल्यों और एक अनाम से डर की बेड़ियां पड़ जाती हैं. रास्तों को नापना तो आसान है, पर बेड़ियों से भारी हुए पैरों से फसलों को नापना असंभव होता है. फिर ऐसे में अक्सर हम जहां खड़े होते हैं, उस जगह को ही अपना मुक़ाम, अपनी मंज़िल बना लेते हैं.
“कृपया अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें विमान कोलकाता विमानतल पर उतर रहा है.” इसी सूचना के साथ सारा ने अपना सामान समेटा और कुर्सी की पेटी बांध ली, पर उसके हाथ किसी अनजाने डर से कंपकंपा रहे थे. सूरज ने उसके डर को भांप लिया और उसके हाथों को पकड़ लिया.
सूरज ने कहा, “सारा डरो मत मैं तुम्हारे साथ हूं.” सारा सूरज की ओर देख अनमने ढंग से मुस्कुरा दी. जितनी तेजी से विमान नीचे उतर रहा था, उससे भी ज़्यादा तेजी से सारा की अनगिनत भावनाएं उफान भर रही थीं. कभी उसकी आंखों के सामने उसका बचपन अठखेलियां करता, तो कभी उसका पहला प्रेम उसकी स्मृतियों में जीवित हो उठता. सारा तय नहीं कर पा रही थी कि अपनी भावनाओं को छिपाए या ख़ुद को संभाले.
कोलकाता से सारा का पुराना रिश्ता ही नहीं था, बल्कि कोलकाता उसकी रगों में दौड़ता था. वह कोलकाता को तब से जानती थी, जब कोलकाता कलकत्ता था और सारा सोनाली. सोनाली का सारा तक का सफ़र उतना ही नाटकीय था, जैसे किसी फिल्म की पटकथा हो. विमान अब ज़मीन पर उतर आया था और सारा की स्मृतियों को भी धरातल मिल गया था.
सूरज उससे कई तरह की बातें कर रहा था, जैसे- किसी भय से उसका ध्यान बंटाना चाहता हो, पर सारा के कानों तक शायद ही उसके कोई शब्द पहुंच रहे थे. वह तो जैसे अब कोलकाता से बातें कर रही थी. कोलकाता, जिसमें रोशोगुल्ला और सौंदेश थे. कोलकाता, जिसमें मां-बाबा थे. कोलकाता, जिसमें बहुत सारा प्यार करनेवाले काकू थे और सारी ज़िद्द मान लेनेवाली काकी मां थीं. वह मिट्टी का आंगन शायद आज भी अपने सीने पर उसके पैरों की छाप लिए खड़ा था.


“सारा… सारा क्या तुम थक गई हो?.. क्या थोड़ी देर सोना चाहोगी हाटेल जा कर.” सूरज ने उसे जैसे किसी अंधेरे कुंएं से खींचकर बाहर निकाला. सारा ने हां में अपना सिर हिला दिया. जल्दी ही सारा और सूरज कार में बैठ गए. जैसे-जैसे कार कोलकाता की सड़कों पर दौड़ती जा रही थी, वैसे-वैसे सारा के मन में कई सारी भावनाएं एक साथ हिलोरे मारने लगीं. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह रोए या ख़ुश हो. उसने अपने कोलकाता के भौगोलिक ज्ञान को खंगालना शुरू किया. तभी सूरज ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “सारा मैं समझ सकता हूं, कोलकाता से तुम्हारा रिश्ता पुराना है. क्या तुम्हें कुछ याद आ रहा है? दिमाग़ पर ज़्यादा ज़ोर मत दो, पर अगर कुछ याद आए तो मुझे बताओ. अगर तुम कहीं जाना चाहो तो बताओ, मैं तुम्हें ले जाऊंगा.” सारा आश्वस्त तो थी, पर उसने कुछ नहीं कहा बस सूरज के कंधे पर अपना सिर रख दिया. जल्दी होटल भी आ गया. सूरज खाना खाकर सो गया और सारा, सारा उस पंचतारा होटल के जगमगाते कमरे में भी अपनी स्मृतियों के दिए जला रही थी.
बाबा के साथ साइकिल की सवारी करते हुए उसने कई बार उनसे पूछा था, “बाबा, हम होटल में खाना खाने कब जाएंगे?” तब बाबा कहते, “जब तुम बड़ी अफसरनी बन जाओगी तब जाएंगे.” सारा के होंठों पर वही बचपन वाली मासूम हंसी आ गई. तब उस होटल की जगमगाहट में उसे सितारे नज़र आते थे और आज वही रोशनी उसके मन के अंधेरे को ज़रा भी कम नहीं कर पा रही थी. दृष्टिकोण और परिस्थितियां कब बदल जाती है समझ नहीं आता.
लैंप की पीली रोशनी में सारा का चेहरा चिंतामग्न ज़रूर दिख रहा था, पर चिंता उसके सांवले सौंदर्य को ज़रा भी कम नहीं कर पाई थी. सांवला पर चमकदार चेहरा, मछली की तरह कटीली आंखें, औसत ऊंचाई, पर शरीर नपा-तुला.. वैसे तो उसकी शादी को दो साल हो चुके थे, पर अभी भी कौमार्य किसी किशोरी-सा ही था. ऐसा लगता था कि कोलकाता का काला जादू उसके काले बालों से ही निकला है शायद. इसी काले जादू ने सूरज को अपने मोहपाश में बांध रखा था, पर क्या सिर्फ़ सूरज ही था, जो इन बालों की कालिमा पर मोहित था? या फिर इससे पहले भी कोई इनमें उलझा था. इस पहेली को सारा सुलझा नहीं पा रही थी, पर उसने अपनी लटों को ज़रूर सुलझा लिया था और वह सोने चली गई.


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सूरज पेशे से डॉक्टर था. वह ख़ुद अनाथ था, इसलिए अकेलेपन और बेबसी के दर्द को अच्छे से पहचानता था. वह एक सेमिनार के लिए दिल्ली से कोलकाता आया था. अब अगले दस दिनों के लिए यह होटल का कमरा ही उसका घर था. चूंकि उसे पता था कि सारा का कोलकाता से कुछ रिश्ता है, इसलिए वह उसे भी यहां ले आया, पर उसे यहां लाकर उसने ठीक किया या नहीं यह तो आनेवाला समय ही बतानेवाला था.
“गुड मॉर्निंग!” इस प्रफुल्लित आवाज़ से सूरज ने सारा को जगाया. “तो सारा, आज तुम चाहो तो कोलकाता घूम आओ. मैं शाम पांच बजे लौटूंगा. फिर हमें मेरे एक साथी के घर डिनर के लिए जाना है.” सारा ने हां में सिर हिला दिया. थोड़ी ही देर में सूरज चला गया. सारा होटल के 11वीं मंज़िल के अपने कमरे की खिड़की से पूरा कोलकाता देख रही थी. अब उसके विचारों की स्मृतियों को नई चौखट मिल गई थी. वह सोचने लगी खिड़की से सब कुछ कितना छोटा नज़र आता है और कितना साफ़ भी. ऐसा लग रहा था, मानो उसे कोई दूरबीन मिल गई हो. उस कांच की खिड़की से बाहर की गरम धूप अंदर नहीं आ रही थी, पर सारा धूप को छूना चाहती थी, उसे महसूस करना चाहती थी. इस धूप का सारा की परछाई से कोई ना कोई रिश्ता, तो ज़रूर था, पर क्या यह रिश्ता सारा को परेशान कर रहा था या वह इस धूप को अपनी परेशानियों से मुक्ति पाने के लिए ढूंढ़ रही थी. पूरा दिन सारा ने होटल में ही गुज़ारा. अब शहर ने धूप की चुनरी उतारकर, सितारों का घूंघट ओढ़ लिया था. सूरज भी वापस आ चुका था.
“सारा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुई.” सूरज ने पूछा. सारा ने चौंक कर कहा, “अरे हां सूरज, मैं भूल ही गई थी कि हमें किसी के घर जाना था.”


सूरज ने कहा, “कोई बात नहीं सारा अब तैयार हो जाओ हमें यही पास में ही जाना है.”
कुछ ही देर में सूरज और सारा अपनी कार में सवार हो गए. अंधेरा शायद हमेशा ही हमें अतीत की सैर कराता है और अब सारा को ऐसा लग रहा था मानो वह किसी कार में नहीं, बल्कि टाइम मशीन में बैठी हो और यह टाइम मशीन समय कि जिस गली से गुज़र कर जा रही थी, वह उसे जानी-पहचानी लगी.
अतीत का शोर उसे कर्कश-सा लगने लगा. कई सारे चेहरे उसे हर तरफ़ से घेरने लगे. कार एक संकरी-सी गली में मुड़ी. अब सारा की धड़कनें रेलगाड़ी की रफ़्तार से दौड़ रही थीं. सांस इतनी तेज, मानो अभी लंबी दौड़ लगाकर आई हो. उसने सूरज की ओर शंकित नज़रों से देखा, पर वह बिल्कुल शांत था.
उसने पूछा, “सूरज, हम किसके घर जा रहे हैं? कौन-सा घर है उनका..?” सूरज ने आश्चर्य से सारा की ओर देखा और पूछा, “क्या तुम इस जगह को जानती हो सारा… क्या तुम्हें कुछ याद आ रहा है?” सारा को लगा मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो. उसने कहा, “नहीं… नहीं… सूरज मैं तो बस ऐसे ही." तभी गाड़ी एक जर्जर परंतु हवेलीनुमा घर के सामने से गुज़री. सारा बड़ी देर तक उस हवेली को देखती रही, मानो उसकी आंखें, आंखें ना होकर कोई एक्सरे मशीन हों, जो दीवारों को अंदर तक भेद जाएंगी.
सूरज ने सारा को हिलाकर कहा, “चलो सारा, हम पहुंच गए… क्या तुम ठीक हो?” सारा ने अपनी असमंजस की स्थिति को छुपाने के लिए चेहरे पर नकली मुस्कान की रेखा खींच दी. सारा बेहोशी की स्थिति में सूरज का हाथ थामे ख़ुद को आगे धकेल रही थी. उसकी स्मृतियां वही उस पुराने खंडहर में कुछ खोया हुआ ढूंढ़ रही थीं, पर कुछ अगर उसके हाथ लग रहा था तो वह ही रिश्तो की विडंबनाएं. जिस खंडहर को सारा निहार रही थी उसी के पड़ोस में उन्हें दावत के लिए बुलाया गया था, पर अब सारा को ना भूख लग रही थी और ना ही प्यास. वह तो बस अब शिष्टाचार निभा रही थी. खाना खाने के बाद सभी दीवानखाने में बैठे.


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सूरज के साथी ने कहा, “भाभी, हमने सुना है आप शास्त्रीय संगीत की अच्छी समझ रखती हैं, तो कुछ सुनाइए…” इससे पहले सूरज ने भी सारा से कई बार गाने की दरख़्वास की थी, पर वह अक्सर ही टाल देती, इसलिए उसने कहा, “अरे नहीं.. नहीं.. सारा की तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती… तो उस पर दबाव मत डालो.” उसकी बात को बीच में ही काटते हुए सारा ने कहा, “कोई बात नहीं सूरज, मुझे अब बेहतर लग रहा है.” और उसने राग बिहाग की एक बंदिश गाई.
कहते हैं कि इंसान सब कुछ भूल जाए, पर मस्तिष्क सीखी हुई कलाओं को कभी नहीं भूलता. उस समय ऐसा लग रहा था मानो सारा स्वयं स्वरों की देवी हो. उस दिन शायद सारा अपने सुरों से उस खंडहर की एक-एक दीवार भेदकर किसी को देखना चाहती थी, किसी के स्पर्श को महसूस करना चाहती थी.
रात को होटल में वापस आकर सारा उसी खिड़की के पास बैठी थी, तभी सूरज ने आकर उसका हाथ थाम लिया और कहा, “सारा, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं. पता नहीं अगर तुम नहीं होती, तो मेरा क्या होता? कहने को मैंने तुम्हारा इलाज किया है, पर सही मायनों में तुमने मुझे जीवनदान दिया है." कहते-कहते सूरज सारा की गोद में सिर रखकर सो गया. सारा उसके बालों में अपनी उंगलियां घुमाती रही.
खिड़की के बाहर काले आसमान में चांद आज भी उतना ही आधा-अधूरा था, जितना उस रात रेलगाड़ी की खिड़की से दिख रहा था. कितना कठिन था नई नवेली दुल्हन को अपने बस कुछ महीने पुराने पति को छोड़कर जाना. उनका प्रेम किशोर अवस्था को भी पार नहीं कर पाया था. अचानक सारा के सामने वह वीरान-सी हवेली दुल्हन-सी सजी थी और कार से उतरकर सुजीत ने अपनी नई नवेली दुल्हन सोनाली को हाथ का सहारा देकर बाहर निकाला. जैसे ही सोनाली बाहर आई शंखों की गूंज ने उसका स्वागत किया.
लाल सुर्ख साड़ी, लाल चूडा, हाथ-पैरों पर आलता… उस दिन तो सुंदरता की देवी भी शोनाली के सामने फीकी पड़ जाती. यह चमक सिर्फ़ श्रृंगार की नहीं थी, बल्कि उस ख़ुशी की थी, जिसे वह बहुत समय से चाहती थी. सुजीत सोनाली के बड़े दादा के दोस्त थे. अक्सर ही घर आया-जाया करते थे. सोनाली को तब से सुजीत पसंद था. अक्सर ही उनके आने के बाद सोनाली कभी चाय देने, तो कभी कोई किताब लेने दादा के कमरे में जाती थी. कई बार तो उनसे बातचीत भी हो जाती थी. उनकी एक झलक के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी. दादा शायद सोनाली के मन की बात भाप गए थे. सोनाली के कॉलेज की पढ़ाई पूरी होते ही उन्होंने अपने इस दोस्त से सोनाली की बात चलाई. परिवार पहले से ही एक श-दूसरे को जानते थे और शायद मन ही मन सुजीत भी यही चाहता था.


वह रात अरमानों की रात थी. इस रात के लिए सोनाली ने कई मान-मनौतियां की थी. सुजीत ने जब पहली बार उसे अपनी बाहुपाश में बांधा, तो उसे ऐसा लगा मानो इस बंधन में बंधने के लिए वह आतुर थी. जब सुजीत की उंगलियों ने सोनाली की उंगलियों को छुआ, तो मानो सितार के सारे तार एक साथ बज उठे हो. यही आधा चंद्रमा उस दिन भी आसमान से ताक-झांक कर रहा था और उस रात का साक्षी भी था.
सिर्फ़ सुजीत ही नहीं, बल्कि उसकी मां भी अपनी बहू पर जान छिड़कती थी. उसे अपनी सास से मां का प्यार और वात्सल्य मिल रहा था. अक्सर ही सोनाली की मां सोनाली से कहती, “सोनाली, कुछ काम में हाथ बंटाया कर, नहीं तो सास घर से निकाल देगी.” और सोनाली खिलखिलाकर हंसती और जवाब देती, “मां, मेरी सास मेरे बिना एक मिनट भी नहीं रह सकती. घर से निकालना तो दूर की बात है."… अक्सर ही ज़्यादा ख़ुशियां किसी बड़े ग़म की दस्तक होती हैं, पर सोनाली को अपने स्वप्नलोक के आगे ना तो कुछ दिखाई दे रहा था और ना ही सुनाई. पता नहीं भगवान किसी की नियति को इतना उलझा क्यों देता है, पर आगे की उलझन कभी किसी को नज़र नहीं आती. कुछ दिखता है तो बस सुखद वर्तमान.


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सोनाली इसी वर्तमान को गुज़रने नहीं देना चाहती थी और रोज़ रात को कमरे की बालकनी में बैठकर सुजीत का उसके बालों को सुलझाना उसे बहुत अच्छा लगता था. अक्सर सुजीत कहता, “सोनाली, कभी पूनम के गेरुए चांद को देखा है? बिल्कुल ऐसा ही दिखता है जब काले बादलों में छिपता है.” और सोनाली शरमा जाती.
सुजीत ने एक बार कहा था, “सोनाली, तुम्हारे केश जादू करते हैं, इन्हें कभी किसी और के सामने खुला मत छोड़ना.” तब सोनाली इस बात को हंसी में उड़ा देती. शादी के दो महीने बाद दादा सोनाली को लेने आए थे. उन्हें किसी रिश्तेदार की शादी में शरीक होने एक हफ़्ते के लिए दिल्ली जाना था. सास बहुत रोई थी. सुजीत रोया तो नहीं, पर हां उसने एक सवाल पूछा था, “जाना ज़रूरी है क्या..?” उस पर सोनाली ने कहा, “सुजीत, बस पांच दिनों की तो बात है, यूं कट जाएंगे और तुम उदास तो ऐसे हो रहे हो मानो मैं कभी वापस ही नहीं आऊंगी.”
सुजीत ने तपाक से कहा, “कभी मज़ाक में भी ऐसी बात मत कहना.” उस समय अनजाने में सोनाली सुजीत को किसी प्रकांड पंडित की भांति भविष्य बता रही थी. उसे भी कहां पता था कि अब उस हवेली की तरफ़ जानेवाला हर रास्ता उसके लिए भूलभुलैया के समान हो जाएगा. अगले दिन रात की ट्रेन थी. सुजीत सोनाली को छोड़ने स्टेशन गया था. वह सोनाली के लिए उसकी पसंद की लाल चूड़ियां भी लेकर गया था. सोनाली ख़ुश थी, क्योंकि उसे यक़ीन था कि पांच दिनों बाद वह अपने सुजीत की बांहों में होगी, पर सुजीत को किसी अनजाने अपशकुन का भय सता रहा था.

खिड़की से हाथ दिखाती सोनाली अब ओझल हो गई थी. रात को बड़ी देर तक सोनाली सुजीत की याद में चांद को ताक रही थी. लगभग रात के दो बजे होंगे. सभी गहरी नींद में थे. सोनाली की पलकें भी बोझिल हो रही थीं. तभी ऐसा लगा ट्रेन ज़ोर की आवाज़ के साथ उछल पड़ी. ट्रेन पटरी से उतर गई थी. लोग बदहवास और नींद की स्थिति में जहां ट्रेन उन्हें फेंक रही थी, वहां गिर रहे थे. इससे पहले कि सोनाली कुछ समझ पाती, वह टूटी ट्रेन से बाहर ज़मीन पर गिर गई और उसके सिर पर किसी भारी भरकम चीज़ ने आघात किया. जब उसे होश आया, तो वह किसी डॉक्टर की देखरेख में घटनास्थल के ही पास थी.
रातभर में उसका सामान, मंगलसूत्र, चूड़ियां सब कुछ चोरी हो गया था. बहुत पूछने पर भी उसे कुछ याद नहीं आ रहा था. दुर्भाग्य ऐसा कि वह उन लाशों के ढेर में पड़े अपने मां, बाबा, दादा और काकू व काकी को भी नहीं पहचान पाई. सूरज भी उसी ट्रेन में था, पर सुरक्षित था और सबकी मदद भी कर रहा था. सोनाली की मानसिक स्थिति को देखते हुए उसे कैंप में अकेले छोड़ना उसे सुरक्षित नहीं लगा. वह अधिकारियों को सूचित कर उसे अपने साथ दिल्ली ले गया. सोनाली का इलाज दिल्ली के अच्छे अस्पताल में कराया.
लगभग दो महीने अस्पताल में रहने के बाद डॉक्टरों ने सूरज को अस्पताल में बुलाया और कहा, “सूरज, कितने दिन इसे यहां रखोगे? शारीरिक तौर पर वह बिल्कुल स्वस्थ है और अब रहा सवाल याददाश्त का तो वह एक दिन में भी आ सकती है या कभी भी नहीं. मेरी मानो इसे किसी आश्रम में डाल दो कितना ख़र्च करोगे इसके पीछे?”
सूरज ने कहा, “यह अच्छे घर की लगती है और उम्र से भी छोटी है. ऐसे में इसे कहीं और छोड़ना ग़लत होगा. जब तक इसकी याददाश्त वापस नहीं आती मैं इसे अपने घर पर रखूंगा."
सूरज के घर जाते ही सारा के नए अध्याय की शुरुआत हो गई. शुरुआत में सोनाली डरी-डरी रहती, पर 6-8 महीनों में उसे उस घर की आदत हो गई. सरकार ने दुर्घटना पीड़ितों के नए पहचान पत्र बनवा दिए और सोनाली बेनाम ज़िंदगी को 'सारा' नाम मिल गया. लगभग साल दो साल बाद सारा फिर से हंसने-बोलने लगी, पर अतीत की यादों के नाम पर आज भी उसके पास बड़ा शून्य ही था. शायद अब यह शून्य ही उसके लिए अच्छा था, क्योंकि उसके अतीत में लिखी हुई कहानी अब उसे घाव ही देनेवाली थी. सूरज ने सारा के बारे में बहुत छानबीन की. यहां तक की पुलिस की मदद भी ली, पर कहीं कुछ पता ना चला. और सोनाली को भी पता ना चला कि कब सारा सूरज का आदर करते-करते उससे प्रेम करने लगी.
धीरे-धीरे तीन साल बीत गए. दोनों ने एक-दूसरे के साथ जीवन की गाड़ी का संतुलन बख़ूबी जमा लिया था. दोनों साथ रहते थे, पर मर्यादाओं की रेखाएं दोनों ने खींच रखी थी. लगभग दो साल सारा किसी अनजाने भयावह सपने को देखकर रात को चीख पड़ती, तब सूरज उसके कमरे में सोफे पर ही सो जाता. तीन सालों तक सारा के डर और मानसिक जटिलताओं के साथ सूरज डटकर मुक़ाबला कर रहा था. इन 3 सालों में सोनाली की मानसिक स्थिति में ही नहीं, बल्कि शारीरिक संरचना में भी काफ़ी बदलाव आए थे. सिर पर लगी चोट के कारण उसके सारे बाल काटने पड़े थे. वह केश अब नहीं थे, जिनका जादू सुजीत के सिर चढ़कर बोलता था.


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तीन सालों का लंबा समय साथ बिताने के बाद एक दिन सूरज ने सारा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा. सारा आज भी उतनी ही ख़ुश थी, जितनी सोनाली सुजीत से विवाह तय होने के बाद थी. उस दिन सारा लाल जोड़े में तैयार हो रही थी इतने में कमरे में सूरज आया. वह बोला, “सारा, देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं. मेरा कोई अपना तो नहीं है, तो मैं ही तुम्हारे लिए लाल चुनरी और चूड़ियां लाया हूं.” चुनरी और चूड़ियां पहनने के बाद जब सारा ने ख़ुद को दर्पण में देखा, तो धीरे-धीरे उसे आईने में दौड़ती हुई ट्रेन दिखी, फिर खून में लथपथ मां-बाबा दिखे, स्टेशन पर अलविदा कहता सुजीत दिखा और बस थोड़ी ही देर में सारा बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ी.
उसका दिमाग़ अतीत में लगे इस झटके को सहन नहीं कर सका. आज सारा के लिए मुश्किलें बढ़नेवाली थी. जब उसे होश आया, तो सूरज उसका हाथ हाथों में लिए बैठा था, साथ ही मेहमान व दोस्त भी थे. सूरज ने कहा, “सारा अब कैसा लग रहा है? क्या तुम्हें कुछ याद आया!” अर्धमूर्छित सारा ने जवाब दिया, “कोलकाता…” सूरज ने कहा, “क्या कोलकाता… और कुछ याद आया.” सारा झेंप गई और बोली, “नहीं, कुछ नहीं बस कुछ देर आराम करना चाहती हूं…” अब उसकी पूरी दुनिया, उसका अतीत किसी ग्लोब की भांति गोल-गोल घूम रहा था.
सारा को कुछ समझ आता उससे पहले मंडप शहनाइयों से गूंज उठा. समय की चोट ने सारा के जीवन को 360 डिग्री घुमा दिया था. पूरी रात वह अपने अतीत की कड़ियां वर्तमान से जोड़ने में लगी हुई थी, पर कहीं से भी उसका भूत वर्तमान के साथ समझौता करने को तैयार नहीं था. उसका मन एक ओर सुजीत की खोज-ख़बर के लिए बेचैन था, तो दूसरी ओर सूरज के साथ बिताए तीन सालों को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहा था. इन सबके बीच वह दर्दनाक हादसा उसे झकझोर जाता. उसकी ज़िंदगी दो स्टेशनों के बीच त्रिशंकु-सी लटक रही थी, तभी दरवाज़े की आवाज़ से अंदर बैठी सारा चौंक गई.
सूरज ने कमरे में आते ही कहा, “ सारा, तुम आराम से सो जाओ. मैं जानता हूं तुम थक गई हो और हां इत्मीनान रखो जब तक तुम नहीं चाहोगी हमारा रिश्ता वैसा ही रहेगा जैसा शादी से पहले था. मैंने तुमसे प्यार किया है, इसलिए तुम्हारे भीतर चल रहे युद्ध की वेदना को भी समझ सकता हूं.” इतना कहकर सूरज सामनेवाले सोफे पर सो गया. सारा अपनी थकान के साथ रातभर जागती रही. जब-जब वह सूरज को देखती, तो सोचती विस्मृतियों में कितना सुख था. यह स्मृतियां ही इंसान को विडंबनाओं के चक्रव्यूह में फंसा कर कमज़ोर कर देती हैं. प्रीति इंसान को जीवित रखती हैं और कभी-कभी जीवित व्यक्ति को निर्जीव देती हैं.
अगले दो साल सारा स्मृतियों और असमंजसताओं की नदी में समय की नाव के साथ बह रही थी. यह लहरें तब सूनामी की लहरों में तब्दील हो गईं, जब सूरज उसे अपने साथ कोलकाता ले जाना चाहता था. वह चाहता था कि सारा को सब याद आ जाए, पर सारा अपनी स्मृतियों में विस्मृति ढूंढ़ना चाहती थी.
विचारों के हिलौरों ने सारा को अचानक भूत से निकालकर वर्तमान में फेंक दिया. सूरज का सिर अब भी उसकी गोद में था. सूरज का सिर अपनी गोद में लिए खिड़की से उस आधे चांद को ताकती हुई सारा आज फिर एक बार अपने अंक में वर्तमान और आंखों में अतीत लिए बैठी थी. रह-रहकर उसके ज़ेहन में वह मृत हवेली जीवित हो रही थी. अपने प्रथम प्रेम की स्मृतियों को पोंछ नहीं पा रही थी.
उसके होटल से सूजीत के घर की दूरी कुछ अढ़ाई कोस के क़रीब थी और उसने दूसरे दिन उस अढ़ाई कोस की दूरी को तय करने का निर्णय लिया. सुबह सूरज ने सारा से कहा, “तुम अगर कहीं घूम आना चाहो तो जाओ, मैं कार भेज देता हूं, बस ख़ुद का ख़्याल रखना.” सारा ने कहा, “हां, सोच रही हूं आसपास कुछ शॉपिंग कर आऊं.” सूरज के जाते ही सारा ने होटल के स्टाफ से एक बुरका मंगवाया. यूं तो सारा अपनी पहचान छुपानेवाली थी, पर फिर भी उसके श्रृंगार में कोई कमी नहीं थी. कार में बैठते ही विचारों की गाड़ी फिर पटरी पर आ गई. कैसे दिखता होगा सूजीत, क्या उसने भी शादी कर ली होगी, क्या पांच सालों बाद भी मैं उसे याद होऊंगी, क्या आज भी मां ही खाना बनाती होगी?.. सवालों के काले मेघ छटते ही उसे सामने यथार्थ खड़ा दिखा. हवेली आ गई थी. वह कई भावनाओं के मिश्रण के घूंट पीकर अंदर गई. झुमरी बाग में पानी दे रही थी. यही झुमरी पांच साल पहले नौकरानी ना होकर ससुराल में उसकी पहली सखी बनी थी.
उसने अनजाने में पूछा, “झुमरी… बड़े दादा घर पर हैं?” झुमरी ने कहा, “हां है ना, पर एक मिनट रुकिए, आपको मेरा नाम कैसे पता?” सारा झेंप गई. उसने जैसे-तैसे ख़ुद को संभालते हुए कहा, “अरे, मेरा केस काफ़ी सालों से वकील बाबू के पास है, इसलिए अक्सर मैं यहां आती-जाती हूं, तुमने देखा नहीं होगा.” किसी तरह उसे यक़ीन दिला कर वहां अंदर गई.
झुमरी ने कहा, “आप यहीं इंतज़ार करें.” दीवानखाने में बैठकर वह सोच रही थी कि आज जिस दीवानखाने में मुझे रोक दिया गया, उसी घर के कोने-कोने में मैं बेधड़क घूमती थी.


इस घर की तो दहलीज़ भी मेरे कदमों की आहट पहचानती हैं, तो क्या… तो क्या जीता जागता सुजीत मुझे सिर्फ़ एक बुरखे की वजह से नहीं पहचानेगा? और अगर उसने मुझे पहचान लिया तो? कहीं यहां आने का निर्णय ग़लत तो नहीं लिया मैंने? पर यह प्रश्न ख़ुद से पूछने में सारा ने देर कर दी थी, पीछे से आवाज़ आई, “जी नमस्कार, मैंने आपको नहीं पहचाना, क्या मैं आपका केस लड़ रहा हूं? आजकल कुछ याद नहीं रहता…” सारा ने अपने हाथ को दिल पर रख लिया जैसे कि अपनी धड़कनों को पकड़कर रखना चाहती हो. अपनी आंखें बंद कर वह सुजीत की ओर मुड़ी, धीरे से उसने अपनी आंखें खोली, अब उसका अतीत उसके सामने वर्तमान बनकर खड़ा था. सुजीत उससे उसके बारे में पूछ रहा था, पर अब सारा को कहां कुछ सुनाई दे रहा था. वह अपने मन में सुजीत से वार्तालाप कर रही थी, 'ओह! सुजीत यह तुमने अपनी क्या हालत बना ली है? तुम्हारा रुबाबदार चेहरा इतना फीका क्यों पड़ गया? बालों पर सफ़ेदी और यह तुम्हारी जादू करनेवाली आंखें इतनी पीली कैसे पड़ गईं? क्या तुम्हें मैं याद हूं?'
वह जाकर सुजीत से लिपट जाना चाहती थी, उसे छूना चाहती थी, पर वह बेबस थी. बुर्के के अंदर उसकी आंखें सावन बरसा रही थीं. कमरे के सन्नाटे को तोड़ते हुए सुजीत के शब्द खाली घड़े में कंकड़ की तरह खनके , “मोहतरमा, आपने बताया नहीं, आपको मुझसे क्या काम था.”
सारा ने स्थिति संभालते हुए कहा, “जी… जी मैं… वह मैं सोनाली की सहेली हूं. कई सालों बाद कोलकाता लौटी हूं, मेरा नाम शाहीन है, मुझे पता चला यह उसकी ससुराल है.” सुजीत के चेहरे पर ऐसी उदासी छाई मानो पहले से पतझड़ से जूझ रहे जंगल में आग लगा दी हो. सुजीत ने साहस जुटाते हुए कहा, “शायद आपको पता नहीं, आज से पांच साल पहले सोनाली जिस रेलगाड़ी से सफ़र पर निकली थी, वह रेलगाड़ी कभी वापस कोलकाता नहीं आई. वह रेल पता नहीं मेरे सोनाली को किस स्टेशन पर उतार आई. सब ख़त्म हो गया… मेरी सोनाली… मेरा जीवन, सब ख़त्म हो गया… पर शाहीनजी! पता है मुझे आज भी सोनाली के होने का एहसास होता है.”
सारा घबरा गई. उसने अपने नकाब को हर तरफ़ से ठीक किया. आगे सुजीत ने कहा, “आज भी घर के हर कोने में उसकी खिलखिलाहट है. बगीचे की गीली मिट्टी में उसके पैरों की छाप है. तानपुरे की हर तान उसकी आवाज़ की झंकार है. लोग कहते हैं कि मेरी सोना मर गई, पर मैं नहीं मानता… वह तो मेरे साथ यहीं इस छत के नीचे है.” इतना कहते ही सुजीत के सब्र का बांध टूट गया. वियोग वेदना बनकर आंखों से बह निकला.
करुणा की यह बाढ़ सारा को अपने साथ बहा कर ले ही जा रही थी कि तभी सूरज का फोन आया. सारा अतीत के कुंए से निकलकर वर्तमान की ज़मीन पर पहुंची उसने फोन उठाया, “हां, मैं बस आ रही हूं.” इतना कहकर रख दिया. वह सुजीत की ओर बढ़ी, “सुनिए मुझे माफ़ करें, जाने-अनजाने पुरानी बातें छेड़ कर मैंने आपका दिल दुखाया है. मैं आपसे बस यह कहना चाहती हूं कि ऐसा होता है. कभी-कभी एक ही रास्ते पर चलनेवाले हमसफ़रों की मंज़िल अलग हो जाती है. ना चाहते हुए भी किसी ऐसी दुनिया में जाना पड़ता है, जिससे वापसी असंभव हो जाती है. उस नई दुनिया में नई परिस्थितियां जन्म लेती हैं, जिनके अनुसार चलना ही नियति बन जाती है. मैं आपका दुख तो कम नहीं कर सकती, पर हां आपसे कहना चाहती हूं कि परछाइयों का हाथ पकड़कर अंधेरे में रास्ता ढूंढ़ना बंद कर दीजिए… चलिए अब मैं चलती हूं…” सारा ने अपना रुख मोड़ लिया. उसका एक-एक पैर जैसे कई मन भारी हो गया था. फिर से एक बार उस दहलीज़ को लांघने की हिम्मत वह करने जा रही थी. तभी सुजीत ने आवाज़ दी, “सुनिए शाहीनजी, आप कहां रहती हैं. अगर समय मिले, तो फिर आइए. आज आपसे बात करके अच्छा लगा, कृपया फिर आइएगा.” सारा अपने आपको किसी तरह समेट रही थी, उसने रोते हुए रुंधे गले से कहा, “सुजीतजी, मैं यहीं कुछ अढ़ाई कोस पर रहती हूं, पर शायद आज के बाद कभी ना आ पाऊं. हम आजकल में ही शहर छोड़कर जा रहे हैं.”


सारा वापसी की ओर चल पड़ी. वह घर से निकलकर होटल की ओर चल दी. होटल में नीचे बगीचे में ही बैठकर उसने जी भर कर विलाप किया. जैसे वह कोठी में सोनाली का अंतिम संस्कार करके आई हो. उसके वर्तमान और अतीत के बीच की दूरी सिर्फ़ अढ़ाई कोस थी. पता नहीं यह अढ़ाई कोस का रास्ता ही मंज़िल था या उसके दो छोर. आगे सफ़र शुरू करने से पहले किसी एक छोर से अपना दामन छुड़ाना ज़रूरी था.
तभी सूरज बगीचे में आया. उसने सारा का हाथ पकड़ा और कहा, “सारा, तुमने मुझे जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी दी है. मेरे खालीपन को पूरा भर दिया. परिवार इस शब्द के मायने मुझे तुमने सिखाएं.” सारा अवाक-सी उसे देख रही थी. उसे लगा जैसे वह उसके अंदर चल रही कशमकश को जानता है और रुकने को कह रहा है. पर बात कुछ और ही थी. आगे सूरज ने कहा, “सारा, अब मैं परिवार को जीऊंगा, अब मेरा भी परिवार होगा, क्योंकि हम माता-पिता बननेवाले हैं. अभी दिल्ली से डॉक्टर का फोन आया था. सारा तुमने मेरे जीवन से अनाथ का कलंक मिटा दिया.”
सारा ख़ुश थी कई दिनों बाद इस आनंद की अनुभूति उसे हुई थी. सारा अपना परिवार खो चुकी थी. ऐसे में इस ख़बर ने उसे नया जीवनदान दिया था और मन ही मन उस अढ़ाई कोस के रास्ते को एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर उसने हमेशा के लिए छोड़ दिया.

Madhavi Nibandhe
माधवी निबंधे

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Photo Courtesy: Freepik

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