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कहानी- बुनियाद (Story- Buniyad)

"… रोज़ाना मुझे कुछ नया सीखने पढ़ने को मिल रहा है, जो आगे मेरे बहुत काम आएगा. हो सकता है कोई और भी बेहतर जॉब मेरा इंतज़ार कर रही हो.”
“लेकिन बेटी, मेरे मन में तो यह अपराधबोध घर कर रहा है कि हमने बुनियाद ही सही नहीं डाली. ऐसी राह बताई, जो आज के ज़माने में इंसान को किसी गंतव्य तक ले जाने में सर्वथा असमर्थ है.”
“नहीं मां, यह राह मैंने ख़ुद चुनी है. मैं अब बच्ची नहीं जिसे उंगली पकड़कर चलाया जाए. इस राह पर चलने का फ़ैसला मेरा अपना है.”

स्कूल के औपचारिक निरीक्षण के लिए निकली प्रिंसिपल मैडम हमेशा की तरह कृष्णाजी की क्लास के बाहर आकर रूक गईं. कृष्णाजी की पढ़ाने की कला की वे कायल थीं. जिस तारतम्य और तल्लीनता से वे लड़कियों को ऐतिहासिक पात्रों के बारे में समझाती थीं लगता था, उस पात्र की आत्मा उनमें घुस गई है. आवाज़ यकायक बुलंद हो जाती और वाणी में एक ओज-सा भर जाता था. लड़कियों की तरह प्रिंसिपल मैडम भी पीरियड समाप्त होने तक उन्हें मंत्रमुग्ध सुनती रहीं, लेकिन आज उन्हें लग रहा था कि कृष्णाजी की आवाज़ में वह जोश नहीं है, जो लड़कियों में कुछ बनने और करने का जुनून जगाता है. उन्होंने खिड़की से झांककर कृष्णाजी के चेहरे पर नज़र डाली, तो वहां उदासी और हताशा के मंडराते काले बादलों ने उन्हें भी चिंता में डाल दिया. पीरियड समाप्ति पर उन्होंने कृष्णाजी को अपने कक्ष में बुलवाया और उनकी उदासी का कारण पूछा. प्रिंसिपल मैडम का मानना था कि वैसे तो स्टाफ की व्यक्तिगत ज़िंदगी में हस्तक्षेप का उन्हें कोई अधिकार नहीं है, पर यदि किसी की व्यक्तिगत ज़िंदगी से स्कूल का अध्यापन कार्य प्रभावित हो रहा है, तो उस कारण को जानना और उसका निवारण करना वे अपना फर्ज़ समझती थीं. कृष्णाजी आईं और प्रिंसिपल मैडम के थोड़ा-सा कुरेदने पर ही उनके दिल का दर्द शब्दों के प्रपात में बहकर बाहर आने लगा. “आप तो जानती ही हैं, दो दिन पहले ही मैं कृति से मिलकर लौटी हूं.”


“हां हां, कैसी है हमारी बिटिया? ख़ूब नाम कमा रही होगी नौकरी में? अच्छी बुनियाद जो डाली है हमने! सच कहूं अपने बच्चों को सफल होते देखती हूं, तो लगता है हमारी मेहनत सार्थक हो गई. छुटपन से ही हम उन्हें ईमानदारी की घुट्टी और मेहनत और शराफ़त का पाठ पढ़ाना आरंभ कर देते हैं. ये नैतिक मूल्य ही तो हैं, जो इंसान को विपरीत परिस्थितियों में भी सिर उठाकर खड़े रहने का साहस देते हैं. बुनियाद पुख्ता हो, तो इमारत की मज़बूती को लेकर कोई संशय नहीं रहता.”
“लेकिन जो कुछ मैं देखकर आई हूं मेरा इन सब बातों से विश्‍वास डिगने लगा है. हमारी दी शिक्षा हमारे बच्चों की उन्नति की राह में कांटे बो रही है. वे ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं.”
“वो कैसे? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.”
और तब कृष्णाजी को वह सब बताना पड़ा, जो वे अपनी आंखों से देखकर आ रही थीं.
कृति के दिए पते पर पहुंचते-पहुंचते कृष्णाजी को शाम हो गई थी. उन्होंने यह सोचकर उसे अपने आने की पूर्व सूचना नहीं दी थी कि उसे ख़ुशनुमा सरप्राइज देगीं. घर पहुंचीं, तो कृति तो नहीं मिली, उसकी सहेली और रूममेट प्रज्ञा ने उनका आगे बढ़कर स्वागत किया. चाय बनाकर पिलाई.

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“कृति कितने बजे लोैटती है ऑफिस से?”
“ऑफिस? वह तो शाम को दो क्लासेस लेने जाती है. बाकी पूरा दिन तो घर पर ही रहती है.” प्रज्ञा ने बताया तो कृष्णाजी हैरान रह गई थीं.
“उसने कुछ दिन पहले एक इंटरव्यू दिया था. क्या वहां भी नहीं हुआ उसका?”
“हां, आंटी. इसलिए फिर उसने शाम को क्लासेस में पढ़ाने का काम ले लिया.”
कृष्णाजी को याद आया कृति ने कहा था उसे अपना मनपसंद काम मिल गया है और वह मन लगाकर उसे कर रही है. तो उसका इशारा इस काम की ओर था. और वे कुछ और ही समझ बैठी थीं.
“आपको शायद वह सच्चाई नहीं बताना चाहती थी कहीं आपका दिल न टूट जाए. ये सब ईमानदारी, सच्चाई, मेहनत के लंबे-चौड़े पाठ आपने ही पढ़ाए हैं न उसे?” कृष्णाजी प्रज्ञा की आवाज़ में छुपे व्यंग्य के पुट और अपने ऊपर लगाए जा रहे आक्षेप को भलीभांति समझ रही थीं.
“आंटी, आजकल के ज़माने में ये नैतिक मूल्य क़िताबी चीजें रह गई हैं. इनसे परीक्षा में कॉपी के कोरे पन्ने भरे जा सकते हैं, खाली पेट नहीं. जानती हैं इंटरव्यू में क्या हुआ था? कृति के फर्स्ट क्लास रेज्यूमे, सर्टिफिकेट्स के ढेर ने उसे चयनप्रक्रिया का पहला पड़ाव बड़ी आसानी से पार करवा दिया. फिर एक विषय विशेषज्ञ ने उससे उसके विषयसंबंधी सवाल पूछे. वह पड़ाव भी उस मेधावी लड़की ने आसानी से पार कर लिया. पर आंटी यह सब तो आजकल मात्र खानापूर्ति के लिए होता है. असली खोजख़बर तो तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव में हुई. वहां कंपनी के तीन बड़े अधिकारी बैठे थे. इंटरव्यू देनेवालों की लाइन इतनी लंबी थी कि तीन-चार उम्मीदवार एक साथ ही अंदर भेजे जा रहे थे. एक अधिकारी ने प्रश्‍न किया,


“चूंकि कंपनी अभी अपनी स्थापना के आरंभिक चरण में है, इसलिए हमारे पास सीमित बजट है. हमें उत्पाद यानी प्रॉडक्ट के निर्माण, परिवहन, विज्ञापन, विक्रय आदि विभिन्न चरणों से गुज़रना है, कर्मचारियों के वेतन का भुगतान करना है, तो आपकी राय में किस मद पर ज़्यादा और फिर क्रमशः कम व्यय करना उपयुक्त रहेगा. कृति के अनुसार प्रोडक्ट के निर्माण पर सर्वाधिक व्यय किया जाना चाहिए था, क्योंकि यदि प्रोडक्ट उत्कृष्ट होगा, तो लोग स्वतः आकृष्ट होगें और आगे आकर उसे ख़रीदेगें. दूसरे उम्मीदवार ने प्रतिक्रिया के तौर पर अपने चेहरे पर हिकारत के भाव दर्शाए मानो कृति ने बहुत बेवकूफ़ीभरी बात कह दी हो. उसका कहना था कि उत्पाद के निर्माण पर अधिक व्यय करने की आवश्यकता नहीं है. सामान्य से उत्पाद के साथ भी यदि किसी सेलिब्रिटी का नाम जोड़ दिया जाए, तो उत्पाद की बिक्री वैसे ही कई गुना बढ़ जाएगी. इसलिए विज्ञापन पर ज़्यादा पैसा ख़र्च कर अल्प समय में ही पैसा और प्रसिद्धि पाना ज़्यादा बुद्धिमानी का सौदा होगा. फिर कृति से पूछा गया कि वह कितनी सेलेरी की उम्मीद रखती है? कृति जो अनुमानित राशि सोचकर गई थी वह उसने बता दी. उसने यह भी जोड़ दिया कि एक बार उसे कार्य करने का मौक़ा दिया जाए. फिर उसकी कार्यक्षमता देखकर सेलेरी का निर्धारण किया जा सकता है. फिर यही प्रश्‍न दूसरे उम्मीदवार की ओर उछाला गया, “कंपनी का अधिकांश बजट तो आपके आमंत्रित सेलिब्रिटी पर ही ख़र्च हो जाएगा. फिर कटौती तो आपके वेतन से ही करनी होगी?”
वह उम्मीदवार भी पूरा मंजा हुआ खिलाड़ी था.
“जी बिल्कुल कीजिए. मेरे लिए कंपनी का हित सर्वोपरि है.”
कृति को अपने हाथों से नौकरी साफ़ फिसलती नज़र आ रही थी, पर वह बेबस थी. उन्हें बाहर जाने का इशारा कर अधिकारीगण आपस में कानाफूसी करने लगे थे, जो कृति के कानों तक स्पष्ट पहुंच रही थी.
‘’कुछ ज़्यादा ही नहीं हांक रहा था वह? अरे, इतने कम पैसों में काम करेगा तो घर कैसे चलाएगा?”
“आपको क्या लगता है इतना चालाक और चापलूस इंसान केवल कंपनी की तनख़्वाह पर जीएगा? जो कंपनी के लिए पैसा बनाने का खेल जानता है वह अपने लिए भी जुगाड़ कर ही लेगा.”
‘’हां, और क्या? इसमें हमारा क्या जा रहा है? लड़के के पास तेज़ दिमाग़ और कुछ कर दिखाने का हौसला है. हमें ऐसे ही लोगों को मौक़ा देना चाहिए.”
निराश कृति बुझे मन से घर लौट आई थी और कहीं नौकरी मिलने तक उसने पढ़ाने का कार्य ले लिया है.
“अरे मां, आप कब आईं? पहले से बताया भी नहीं.” कृति आकर कृष्णाजी से लिपट गई, तो उनकी आंखों से आंसुओं की झड़ी फूट पड़ी. कृति को समझते देर नहीं लगी कि ये आंसू केवल मिलन का आवेग ही नहीं दर्शा रहे. इनके पीछे गहरा दर्द भी छुपा है. प्रज्ञा की आंखों में पश्‍चाताप के भाव उभर आए थे. उसे अफ़सोस था कि उसने आंटी को सब बता दिया है. कृति ने उसे आश्‍वस्त किया, “तुम नहीं बताती तो मुझे तो बताना ही था. अच्छा हुआ, तुमने मेरा काम आसान कर दिया. और मां, आप भी बिल्कुल दुखी मत होइए. मुझे अपना अध्यापन का कार्य बहुत अच्छा लग रहा है. लड़कियां मुझसे इतना जुड़ गई हैं कि उनका अपनापन देखकर लगता ही नहीं कि मैं घर से दूर किसी अपरिचित जगह आ गई हूं और फिर पढ़ाने से मेरा अपना ज्ञान भी तो बढ़ रहा है. रोज़ाना मुझे कुछ नया सीखने पढ़ने को मिल रहा है, जो आगे मेरे बहुत काम आएगा. हो सकता है कोई और भी बेहतर जॉब मेरा इंतज़ार कर रही हो.”


“लेकिन बेटी, मेरे मन में तो यह अपराधबोध घर कर रहा है कि हमने बुनियाद ही सही नहीं डाली. ऐसी राह बताई, जो आज के ज़माने में इंसान को किसी गंतव्य तक ले जाने में सर्वथा असमर्थ है.”
“नहीं मां, यह राह मैंने ख़ुद चुनी है. मैं अब बच्ची नहीं जिसे उंगली पकड़कर चलाया जाए. इस राह पर चलने का फ़ैसला मेरा अपना है.”
कृष्णाजी पूरा वाक़या बयां कर चुकी, तो प्रिंसिपल मैडम के हाथ प्रोत्साहन में स्वतः ही ताली बजाने लगे.
‘’कृष्णाजी, आपसे तो आपकी बच्ची समझदार निकली. हमने उसे बिल्कुल सही शिक्षा दी है और उसने हमारे बताए आदर्शों को बिल्कुल सही अर्थ में आत्मसात किया है. अपराधबोध पालने की बजाय आपको अपनी बेटी पर गर्व करना चाहिए. आप हिम्मत हार बैठी हैं, पर उसके हौसले अभी भी बुलंद हैं और एक सफल व्यक्ति वह होता है, जो वहां से अतिरिक्त कदम चलने का हौसला रखता है, जहां से असफल व्यक्ति निराश होकर अपनी राह बदल लेते हैं.”
कृृष्णाजी की आंखों में उम्मीद की एक किरण चमकी थी, पर अभी भी वे पूरी तरह आश्‍वस्त नहीं हो पाई थीं. ख़ुद कृति ही कहां आश्‍वस्त थी अपने भविष्य को लेकर. पर मां को आश्‍वस्त करना उसका कर्तव्य था और अपने कर्तव्य का निर्वाह कर वह संतुष्ट थी. अपनी छात्राओं का असीम स्नेह भी उसके लिए एक बड़ा संबल था. वह हर एक लड़की में अपनी छोटी बहन का अक्स देखकर उन्हें मनोयोग से पढ़ाती थी. ऐसी ही एक प्रिय शिष्या एक दिन अपनी मां को लेकर कृति मैम से मिलने उनके घर पहुंच गई. कृति नहा रही थी, तो वे वहीं टेबल पर रखी पत्रिकाएं पलटने लगी. इसी दौरान लड़की की मां के हाथ कृति की रेज्यूमे वाली फाइल आ गई, तो वह उसे गौर से पढ़ने लगी. तब तक कृति भी आ गई थी.
“कल इसके जन्मदिन पर घर पर एक छोटी-सी पार्टी रखी है. आप भी अवश्य आइएगा.”
“जी… मैं…”
“मना मत कीजिएगा. बच्ची का बहुत मन है. ड्राइवर छोड़ने लेने आ जाएगा. एक बात और कहनी थी. देखना तो नहीं चाहिए था, पर मैंने आपकी बायोडाटावाली फाइल देख ली है. आपके पास इतनी योग्यता और प्रतिभा है! आपको तो कोई भी कंपनीवाले हाथों हाथ ले लेगें और वो भी अच्छी सेलरी में… आप कल शाम अपनी यह फाइल लेकर आइएगा. मैं आपको प्रिया के पापा से मिलवाऊंगी. वे ज़रूर आपके लिए कुछ करेंगें.”
कृति की उम्मीदों को एक बार फिर पर लग गए थे. एक बार फिर सिलसिलेवार रेज्यूमे तैयार हुआ. प्रिया के लिए तोहफ़ा ख़रीदकर लाया गया और उत्साह से लबरेज कृति पहुंच गई पार्टी में. पर उसके उत्साह का गुब्बारा उस समय फुस्स हो गया, जब प्रिया की मम्मी ने उसे अपने पति से मिलवाया. ये उन्हीं तीनों में से एक शख़्स थे, जिन्होंने पिछले इंटरव्यू में उसे रिजेक्ट कर दिया था. उस बात को लगभग एक वर्ष होने को आया था, लेकिन दोनों के दिमाग़ में उस इंटरव्यू की यादें अभी तक ताज़ा थीं.
“हम पार्टी के बाद बैठते हैं.” प्रिया के पिता ने कहा.

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इसके बाद कृति का पार्टी में मन नहीं लगा, पर उसे मन मारकर अंत तक रूकना पड़ा. प्रिया की सहेलियां विदा हो गईं, तो उसे भी सोने भेज दिया गया.
“आप इनकी फाइल देखिए. मैं तब तक कॉफी लेकर आती हूं.” प्रिया की मम्मी उठने लगी, तो उनके पति ने उन्हें बैठे रहने को कहा, “कॉफी शंकर ले आएगा. रही फाइल की बात तो वह मेरे देखी हुई है और इनसे भी मैं पहले मिल चुका हूं.”
प्रिया की मम्मी आश्‍चर्य में थी, तो इधर कृति का घबराहट के मारे गला शुष्क हो रहा था. वह इंतज़ार कर रही थी, एक बार फिर उसे दुनियादारी पर लेक्चर सुनाया जाएगा और कॉॅफी के घूंट के साथ अपमान के घूंट पीकर उसे यहां से विदा होना पड़ेगा. पर प्रिया के पापा काफ़ी गंभीर हो गए थे.
"उस दिन हमने जिन चार लोगों को उनकी होशियारी और चतुराई से प्रभावित होकर सलेक्ट किया था, आज वे चारों ही हमारी कंपनी छोड़कर जा चुके हैं उन कंपनियों में जहां उन्हें ज़्यादा वेतन दिया जा रहा है. जिसका अंदाज़ा हमें तभी हो जाना चाहिए था. ख़ैर… निस्संदेह उनके सौजन्य से कंपनी ने पैसा कमाया, पर सिर्फ़ पैसा, साख नहीं. साख तो दांव पर लगी है और उसे बचाने के लिए हमें चाहिए आप जैसे मेहनती, विश्‍वासपात्र और प्रतिभाशाली कर्मचारी. आज बाज़ार में प्रतिद्वन्द्विता इतनी बढ़ गई है और आम नागरिक इतना जागरूक हो गया है कि एक अच्छा उत्पाद ही यहां टिक सकता है और अच्छा उत्पाद बनाते हैं प्रतिबद्ध कर्मचारी. हमारी ही गैरज़िम्मेदाराना हरक़तों की वजह से प्रतिबद्ध कर्मचारियों का अकाल-सा पैदा हो गया है. उस वक़्त आपको हमारी आवश्यकता थी. आज हमें आपकी सख्त आवश्यकता है. मैं आपको उससे दुगुने वेतन की ऑफर दे रहा हूं. आप कल से ही ऑफिस आ जाइए.”
प्रिया की मम्मी के चेहरे पर मुस्कान थी, तो कृति के चेहरे पर आत्मविश्‍वास और संतुष्टि की चमक.
कृष्णाजी की आवाज़ की बुलंदगी लौट आई थी. उनका जोश बता रहा था कि अभी वे कई अनुकरणीय कृतियां सृजन करने का साहस रखती हैं.

- संगीता माथुर

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Photo Courtesy: Freepik


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