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कहानी- फुलकारी (Story – Phulkari)

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          सोनाली गर्ग
शहर आकर फत्ते बंता सिंह की दुकान पर दुपट्टे और रुमाल बेचने लगा. अब हर महीने वह तीन हज़ार रुपए गुलाबो की हथेली पर धर देता. उस तीन हज़ार में गुलाबो गृहस्थी की गाड़ी कैसे खींच रही थी, उसे यह भी नहीं पता था. हां, अब न तो वह पल-पल बेहोश होती और न ही उसे पहले जैसा सिरदर्द होता.
2 कान की स़फेद चांदनी पर रंगबिरंगी फुलकारियां आपस में गड्ड-मड्ड होकर रंगीन पहाड़-सा बनाए पड़ी थीं. फत्तेसिंह के सधे हाथ नए-नए थान खोलते और सामने बैठे ग्राहकों के आगे तिलिस्म-सा बुन डालते. एक नया रंग हवा में लहराया तो सामने बैठी सरदारनी का उबाऊ-सा स्वर गूंजा, “कोई चटख-सा रंग दिखाओ जी. ये सुफियाने रंग तो नज़र में चढ़ते ही नहीं.” ‘अब कौन-से चटख रंग इस बेबे को दिखाऊं?’ यह सोचते हुए उसने नारंगी थान खोल डाला. हरे-पीले बूटों की बहार सरदारनी के कंधों से लिपट गई. सांवला चेहरा संतरे-सा खिल गया. “अब हुई न बात! देखो दारजी.” उसने साथ बैठे सरदार को कोहनी से मारा. फत्ते ने देखा कि सरदारजी किसी भी पल वहां से उठ लेंगे. उसने तुरंत सरदारनी की कमज़ोर नस पकड़ ली, “यह रंग तो लेटेस्ट है जी... लास्ट पीस बचा है. अब इसे छोड़ेंगे तो दूसरा नहीं मिलेगा.” “बस तो फिर, इसे ही पैक करवा दो सरदारजी.” सरदारनी पूरी बागोबाग थी. “अरे, पैक क्या करवाना? आप ओढ़ के जाओ.” फत्ते ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. उसने झटपट सरदारनी का पुराना दुपट्टा पॉलीथीन में लपेटा और कैश काउंटर की तरफ़उछाल दिया. सरदारनी खिली-खिली-सी उठ खड़ी हुई. उसके उठते ही जैसे फत्ते के मुंह से आह-सी निकली. वह समझ नहीं पाया कि यह तसल्ली की सांस थी या किसी अनबुझी लालसा की प्यास. उसकी आंखों के आगे अचानक गुलाबो का चेहरा आ गया. गुलाबो, उसकी वौटी... उसकी बीवी... जिसके तन पर फुलकारी की जगह सस्ती टैरीवॉयल की ओढ़नी सजी थी. रंगों में घिरा रहनेवाला फत्ते जब घर पहुंचता तो उसकी आंखों पर बस एक ही रंग की बदली छा जाती. गोरी, गुलाबी गुलाबो, जिसकी ओढ़नियों के रंग उसके चेहरे की चमक के आगे फीके-से लगते. ‘अगर गुलाबो ये पीली फुलकारी ओढ़े तो सरसों के फूल जैसी लगेगी.’ फत्ते हाथ में दुपट्टा लिए मुस्कुरा उठा. “अबे ओ...” साथ वाले सेल्समैन रौनक सिंह ने उसे छेड़ा, “अब मुस्किया के किसे रिझा रहा है? चली गई सरदारनी.” फत्ते का जी हुआ दुपट्टा रौनक सिंह के गले में लपेट फांसी लगा दे. एक तो वैसे ही सारा दिन कस्टमर्स जान खाए रहते हैं. ऊपर से ज़रा-सा सुस्ता लो तो बंता सिंह जी आवाज़ मार देते हैं. गांव में बाप की चालीस किल्ले ज़मीन थी. सारा दिन खेतों पर गधे की तरह मेहनत करता और फिर सौतेली मां के ताने सुनता. जब से बाऊजी पर फालिज गिरा था, तब से वह ख़ुद को घर-ज़मीन की मुख्तार समझती थी. तड़के ही खेतों में पानी लगाने के लिए वह फत्ते को उठा देती. बेचारा फटा कंबल ओढ़ निरीह पशु-सा चल देता. लौटने पर मिलता बासी रोटी और खट्टी लस्सी का नाश्ता. फिर पता नहीं वाहे गुरु को क्या सूझी कि उसकी मां के भेजे में उसके ब्याह का फितूर डाल दिया. फत्ते ब्याह की बात सुनता तो घबरा जाता. उसकी नज़र में सारी औरतें उसकी सौतेली मां जैसी लड़ाकी और ज़ालिम थीं. घर के मर्दों के लिए रोटियां थापना उसकी सौतेली मां को चुभने लगा था. फत्ते की वौटी आए तो चूल्हा फूंके और वह गांव की सुध ले. बगल के गांव के नंबरदार की अनाथ भानजी थी. नंबरदारनी को भी गुलाब कौर दिन-प्रतिदिन भारी हो रही थी. फत्ते की मां को वह किसी सत्संग में मिली. दोनों में बहनों-सा प्यार हो गया. उस प्यार के ख़ुमार में प्रीतो ने लड़की देखना भी ज़रूरी न समझा. थोड़े दिनों बाद ही फत्ते के आंगन में गुलाब कौर की डोली उतरी. लाल शनील के सूट में लिपटी गुलाब कौर कलीरे छनकाती जब आंगन में दा़िख़ल हुई तो गांव की बहनें-भरजाइयां उसे घेरकर खड़ी हो गईं. जैसे-तैसे रीति-रिवाज पूरे हुए. फत्ते ने गुलाब का घूंघट पलटा तो ‘हाय मां मेरिये’ उसके मुंह से आह निकली. कहीं न कहीं एक दबी-सी आस उसके मन में थी कि प्रीतो किसी सुंदर लड़की को तो उसके पल्ले बांधने से रही. तो जो भी टेढ़ा-मेढ़ा बर्तन उसे मिलेगा, पीट-पाटकर वह अपने हिसाब का बना लेगा. पर इस गुलाब की गठरी को वह कहां खोले, कहां समेटे? उसने झक से घूंघट वापस ढांप दिया. गुलाबो को लगा शायद सरदार को नींद चढ़ी है, सो उसने बिल्कुल भी बुरा नहीं माना. उसने भी अपने ऊपर रजाई खींच ली. बस, फत्ते समझ गया कि इक नासमझ जनानी उसके गले आ पड़ी है. “अरे, ओ वौटीवाले... तेरी गुलाबो की नींद पूरी नहीं हुई क्या? अब रोटी-शोटी भी क्या खाट पर परोसनी पड़ेगी?” फत्ते को उठते ही प्रीतो की कर्कश आवाज़ से दो-चार होना पड़ा. घबराकर उसने जल्दी-जल्दी गुलाबो को जगाया. “आय-हाय! मेरा सिर...” गुलाबो ज़ोर से चीखी तो फत्ते डर के मारे परे हो गया. “देखो, कितनी पीड़ा हो रही है.” फत्ते ने झुककर देखना चाहा तो उसने चुन्नी हटाकर सिर को हल्का-सा झटका दिया. पल भर में रातभर का बंधा जूड़ा तकिये पर बिखर गया. फत्ते को तो गुंग हो गई. उसने दबाने के लिए हाथ उठाया तो गुलाबो आहें भरती वापिस लेट गई. उधर प्रीतो ने सोचा कि नई बहू को ख़ुद ही जगा दे. पर कमरे में झांका तो सन्न रह गई. शहज़ादियों-सी पसरी गुलाबो और पूरे जी-जान से सिर में तेल लगाता फत्ते. प्रीतो कुछ बोल पाती, इससे पहले ही गुलाबो की दो-तीन दर्दनाक चीखों ने कमरे की चूलें हिला डाली थीं. अब तो यह रोज़ का शग़ल हो गया. गुलाबो रोज़ सुबह नहा-धोकर संज-संवरकर चूल्हे के पास बैठती. पर घंटा बीतने से पहले ही उसकी नाक-मुंह सब तप कर लाल अंगारा हो जाते. प्रीतो भी ज़्यादा ध्यान न देती. पर सिरदर्द से ज़्यादा बहू को चक्कर खाकर गिरने का मर्ज़ था. फिर ऐसा बवाल मचता कि प्रीतो ख़ुद ही पछताती कि उसने बेकार ही अपना काम बढ़ाया. पहले तो फत्ते बीमारी में चूल्हा-चौका भी संभाल लेता था. पर बहू के आने के बाद उसी की तीमारदारी में जुटा रहता. अब इस सारे झमेले में जान फंसी थी फत्ते की. सुबह-शाम खेतों में खटने के अलावा अब उसकी फेहरिस्त में एक और काम जुड़ गया था प्रीतो और गुलाबो की खींचातानी में गूंगे ख़ली़फे की भूमिका निभाना. हां, दोनों की शिकायतों में एक फ़र्क ज़रूर था. प्रीतो एक ही बोली दोहराती रहती, “तेरी बहू एक नंबर की नौटंकीबाज़ है. चक्कर खाने को इसे मेरा ही घर मिला था? तू इसे छोड़, मैं तेरा दूजा ब्याह रचाऊंगी.” 1 फत्ते बेचारा सोचता, एक ब्याह ने तो उसे ऐसी कलाबाज़ियां खिलवाई थीं कि दूसरा करने की सोचकर ही जूड़ी चढ़ने लगती थी. इसी घरेलू उठापटक में तकरीबन एक साल निकल गया. प्रीतो को लगा कि फत्ते ऐसे तो सुनने वाला नहीं, सो उसने दूजी तान छेड़ी, “इस बांझ को गले में लटकाकर क्या मिलेगा तुझे? अभी भी टैम है, मेरी होशियारपुर वाली भैनजी ने बड़ा अच्छा रिश्ता बताया है. इसे वापिस छोड़ आ, फिर आगे की सोचेंगे.” फत्ते ने सोचना क्या था. वह चुपचाप खाली दीवारों को घूरता रहता. कभी-कभी लगता, गुलाबो का हाथ उसके हाथ में देकर वाहे गुरु ने उसके साथ भी नाइंसाफ़ी की है. पर फिर लगता कि उसके भोले चेहरे में भी रब की मेहर झलकती है, जो खेतों से लौटते वक़्त उसकी साइकिल को जैसे पर लगा देती. उसके चेहरे की एक झलक देखकर वह अपने सारे ग़म भूल जाता. शायद आगे भी भूला ही रहता अगर वक़्त की एक ज़ालिम करवट उसे कुछ सोचने पर मजबूर न करती तो. कुछ दिनों से वह देख रहा था कि गुलाबो कुछ अनमनी-सी है. एक रात उसने देखा कि गुलाबो पलंग पर पड़ी सिसक रही है. “क्या हुआ अब तुझे?” फत्ते को खीझ-सी हुई. आशा के विपरीत गुलाबो चट से उठ बैठी और उसका हाथ पकड़कर बोली, “सुनो जी, आप दूसरा ब्याह मत करो. मुझे वापिस मत भेजो. मामी मुझे मार डालेगी. मुझे अपनी सौं, मैं बेबे की इत्ती सेवा करूंगी कि उसे नई बहू की याद भी नहीं आएगी.” फत्ते को जैसे सांप सूंघ गया. दो पल उसने गुलाबो को घूरा और फिर बोला, “आधे घंटे में सामान बांध और आंगन में ले आ. एक मिनट भी और देर की तो मैं अकेला ही चला जाऊंगा.” गुलाबो को कुछ समझ नहीं आया. वह पंद्रह मिनट में अपना ट्रंक और बिस्तरबंद लिए आंगन में हाज़िर हो गई. फत्ते ने आख़िरी बार अपने पुरखों के बनाए मकान को देखा और अपने आंसुओं से आंगन की मिट्टी गीली कर दी. शहर आकर फत्ते बंता सिंह की दुकान पर दुपट्टे और रुमाल बेचने लगा. अब हर महीने तीन हज़ार रुपए वह गुलाबो की हथेली पर धर देता. उस तीन हज़ार में गुलाबो गृहस्थी की गाड़ी कैसे खींच रही थी, उसे यह भी नहीं पता था. हां, लेकिन अब न तो वह पल-पल बेहोश होती और न ही उसे पहले जैसा सिरदर्द होता. किराए पर ली एक कमरे की कोठरी को उसने राजमहल बना डाला था. वहीं एक कोने में छोटी-सी रसोई सजाई थी. फत्ते की जूठी थाली में खा वह अपने हाथ का बुना खेस मंजी पर बिछा देती और ख़ुद नीचे दरी पर लेट जाती. शायद दोनों के बाकी दिन भी इसी तरह कट जाते, पर वाहे गुरु की करनी कौन जाने? बंता सिंह जी को अचानक लगा दुकान पर काम कम और नौकर ज़्यादा हैं. सो उन्होंने पहली फुर्सत में फत्ते का हिसाब कर डाला. मुंह लटकाए वह घर लौटा तो पूरे घर में उबले हुए साग की महक भरी थी. गुलाबो ने सधे हाथों से थाली लगाई. पर फत्ते से खाई न गई. गुलाबो ने बिना कहे ही समझ लिया कि सरदार के जी में कुछ और ही अटका है. सो खाना गले से नहीं उतरेगा. “क्या हुआ जी?” “अब तो रूखी रोटी भी नसीब नहीं होगी गुलाबो. बंता सिंह जी ने मेरा हिसाब कर दिया.” गुलाबो पल भर को तो चौंकी. पर फिर अचानक ही अपने पुराने लहजे में लौट आई. “एक नौकरी गई तो दूजी ढूंढ़ लेना. अपनी कौन-सी फसल मारी गई, जो खाना-पीना छोड़ दें.” कहने को तो वह कह गई. पर ‘फसल’ का नाम सुनते ही फत्ते की आंखों में उसने पनियाला तूफ़ान देखा तो सहम गई. किसान की बीवी थी और आज वही किसान दर-बदर ठोकरें खाने को मजबूर था. उसने झट से फत्ते की थाली सरकाई और पास आकर उसका हाथ थाम लिया. “आप चिंता न करो जी. बाबाजी एक दरवाज़ा बंद करते हैं तो दस खोलते भी हैं. आप और मैं, कुल मिलाकर चार हाथ हैं. भूखे तो नहीं मरेंगे चाहे जो भी हो जाए.” फत्ते ने सुनने भर को सुना और वापिस लेट गया. गुलाबो समझ गई कि यह कुछ न कर पाने की टूटन है. इसे दोबारा जुड़ने में समय लगेगा. रातभर उसका दिमाग़ चक्कर खाता रहा. सुबह फत्ते उठा तो सुबह की चाय के साथ गुलाबो भी हाज़िर थी. “हाथ आगे लाओ जी.” फत्ते ने हाथ बढ़ाया तो दो सोने की बालियां टप से उसके हाथ में गिरीं. “यह क्या है?” “नज़र कम आने लगा?” “देख गुलाबो, सुबह-सुबह मेरा दिमाग़ न ख़राब कर.” “दिमाग़ तो चलाना पड़ता ही है जी, तभी ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ती है. यह सोना बेचकर हर क़िस्म की फुलकारी ख़रीद लाओ. मैं क्रोशिए की लेसें लगाकर ऐसा सजा दूंगी कि हाथोंहाथ बिकेंगी. फिर चाहे दुकानों पर सप्लाई करना या ख़ुद बेचना. हमारी दो वक़्त की रोटी कहीं नहीं गई.” इसके बाद न गुलाबो ने दिन देखा न फत्ते ने रात. आसपास वाले बस इतना जानते थे कि एक सांवला सरदार और उसकी गोरी-चिट्टी सरदारनी दुपट्टों में घिरे जोड़-तोड़ करते रहते हैं. उसके आगे क्या हुआ, उन्हें भी नहीं पता, क्योंकि फत्ते को जल्दी ही वह कोठरी छोड़नी पड़ गई. आज ‘गुलाब फुलकारी कॉर्नर’ के गल्ले पर जो दारजी बैठते हैं, उनका पूरा नाम उनके नौकरों को भी पता नहीं. वे बस इतना जानते हैं कि दारजी किसी की नहीं सुनते, सुनते हैं तो बस सरदारनीजी की. अलबत्ता वो दुकान पर कम ही आती हैं. दारजी कहते हैं कि गुलाब घर की चिलमन में महके तो ही अच्छा है, दुकान सजाने को रंगबिरंगी फुलकारियां जो हैं.

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