“वे भविष्य में भी ऐसे ही समझदार और ज़िम्मेदार बने रहें, इसके लिए हमें भी तो अपनी ज़िम्मेदारी समझदारी से निभानी होगी. आए दिन घर में शराब-जुए की पार्टी करके हम उनके सामने कौन-सा आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं?”“लेकिन ये पार्टीज़ हमारी सोसायटी का एक अहम् हिस्सा हैं.”“बच्चे हमारी ज़िंदगी का सबसे अहम् हिस्सा हैं. सोसायटी से कटकर ज़िंदगी जी जा सकती है, पर ज़िंदगी का अहम् हिस्सा ही कट गया तो...”“तुम बेकार की ज़िद ले बैठी हो. बच्चों को बिगड़ना होगा, तो वे वैसे ही बिगड़ जाएंगे. क्या दुनिया में जितने भी अपराधी हुए हैं, उनके लिए उनके माता-पिता कसूरवार थे? बगावत और बुरी आदतों का झोंका कभी भी कहीं से भी आ सकता है.”
बच्चों की समझदारी और ज़िम्मेदारी पर मुझे फ़ख़्र था, पर अंदर से कहीं मन बहुत टूटा-टूटा और उद्विग्न-सा हो रहा था. पलक ठीक ही तो कहती है, हम लड़कियों को लेकर ज़रूरत से ज़्यादा सतर्क और जागरूक हो गए हैं. यह तो भूल ही जाते हैं कि बेटे, भाई, पति आदि भी तो हैं. उन्हें भी तो कुछ सदाचार सिखाने और समझाने की ज़रूरत है. समस्या के निवारण के ही उपाय किए जाते हैं, समस्या के मूल में जाकर उसके रोकथाम के प्रयास क्यों नहीं किए जाते? जबकि उपचार से रोकथाम हमेशा ही ज़्यादा ज़रूरी होता है.
जैसे-जैसे मेरी सोच का दायरा बढ़ता गया, दिमाग़ की खिड़कियां खुलती चली गईं और मैं अतुल के लौटने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी.
मुझसे भी ज़्यादा बेसब्री शायद अतुल को हो रही थी. प्रशिक्षण का सब विस्तृत ब्योरा देकर उन्होंने बड़े ही अच्छे मूड में अपने प्रमोशन की संभावना व्यक्त की. “बॉस मुझसे बहुत ख़ुश हैं. क्यों न हम एक पार्टी आयोजित कर उन्हें और ख़ुश कर दें? मैंने तो इस बार उनके लिए शैंपेन खोलने की सोची है. ड्रिंक्स, स्नैक्स, कार्ड्स, डांस, डिनर वगैरह... क्यों, तुम्हारा क्या ख़्याल है?”
“मेरा ख़्याल कुछ अलग है अतुल! स्नैक्स, डांस और डिनर तक तो ठीक है, लेकिन यह ड्रिंक्स, कार्ड्स, स्मोकिंग वगैरह अब हमें बंद कर देने चाहिए.” मैं गंभीर हो उठी थी.
“क्यों? क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?”
“मैं ठीक हूं अतुल! समस्या मेरी नहीं, बच्चों की है. घर में बड़े हो रहे बच्चों के सामने अब यह शराब-सिगरेट पीना, जुआ खेलना मुझे ठीक नहीं लगता.” मैंने उन्हें उनकी अनुपस्थिति में हुए घटनाक्रम का ब्योरा सुना दिया.
“यह तो बहुत छोटी-सी बात है डार्लिंग! तुम बेकार ही इतना सीरियस हो रही हो. हमारे बच्चे समझदार हैं. देखो, कितनी समझदारी से उन्होंने अपनी ग़लती मान ली और वक़्त पर अपनी ज़िम्मेदारी भी संभाल ली.”
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“वे भविष्य में भी ऐसे ही समझदार और ज़िम्मेदार बने रहें, इसके लिए हमें भी तो अपनी ज़िम्मेदारी समझदारी से निभानी होगी. आए दिन घर में शराब-जुए की पार्टी करके हम उनके सामने कौन-सा आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं?”
“लेकिन ये पार्टीज़ हमारी सोसायटी का एक अहम् हिस्सा हैं.”
“बच्चे हमारी ज़िंदगी का सबसे अहम् हिस्सा हैं. सोसायटी से कटकर ज़िंदगी जी जा सकती है, पर ज़िंदगी का अहम् हिस्सा ही कट गया तो...”
“तुम बेकार की ज़िद ले बैठी हो. बच्चों को बिगड़ना होगा, तो वे वैसे ही बिगड़ जाएंगे. क्या दुनिया में जितने भी अपराधी हुए हैं, उनके लिए उनके माता-पिता कसूरवार थे? बगावत और बुरी आदतों का झोंका कभी भी कहीं से भी आ सकता है.”
“पर हमें तो अपनी ओर से ज़्यादा से ज़्यादा खिड़कियां बंद रखने का प्रयास करना चाहिए. आंधी आती है, तो हम क्या दरवाज़ा खोलकर उसका स्वागत करते हैं? यह जानते हुए भी कि वह पूरे घर में अपनी बर्बादी के निशान छोड़ जाएगी. हम सारे खिड़की-दरवाज़े बंद कर परदे खींचकर उसे रोकने का प्रयास तो करते ही हैं, ताकि वह बर्बादी के चिह्न कम से कम छोड़े और उसके चले जाने के बाद उसके छोड़े चिह्नों यानी धूल-मिट्टी को साफ़ भी करते हैं. इंसान को तो वो सब कुछ करना ही चाहिए ना, जो उसके बस में है और वह कर सकता है. जवानी की आंधी को रोकना हमारे बस में नहीं है, पर उससे अपने घर को, समाज को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित रखना तो हमारे बस में है.”
मैं नहीं जानती अतुल मेरी बातों से कितना सहमत हुए थे? हुए भी थे या नहीं? क्योंकि दो दिनों तक हमारे बीच मौन पसरा रहा.
तीसरे दिन मैं किसी पुस्तक में खोई थी कि बाहर ठक-ठक की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई. बाहर आकर देखा अतुल एक कारपेंटर से खिड़की-दरवाज़ों की दरारें ठीक करवा रहे थे.
“काली-पीली आंधी आती है, तो पूरा घर धूल-मिट्टी से भर जाता है.” वे कह रहे थे.
“साहब, थोड़ी धूल तो फिर भी कहीं न कहीं से आ ही जाएगी.”
“कोई बात नहीं, मगर अपनी तरफ़ से कोई कसर न रखना. सारी दरारें पाट दो.”
कारपेंटर काम में जुट गया, तो मैं भी अनमनी- सी लौट पड़ी. अतुल को शराब और सिगरेट के सारे पैकेट घर से बाहर ले जाते देख मैं चौंक उठी.
“यह क्या?”
“आंधी धूल भरी हो या जवानी के जोश से भरी... उससे नुक़सान कम से कम हो, इसकी रोकथाम के उपाय कर रहा हूं.”
संगीता माथुर
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