कहानी- आए तुम याद मुझे 3 (Story Series- Aaye Tum Yaad Mujhe 3)
मुझे लगा जैसे व़क्त ठहर-सा गया है और हम वहीं रुके हुए हैं. आज भी जया अपने उसी सौंदर्य, उसी छवि को संजोए हुए थी. उर्वशी ने अपनी मौसी का ही सौंदर्य और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण व्यक्तित्व पाया था, बल्कि वो अपनी मौसी का ही प्रतिरूप थी. मुझे अब एहसास हुआ कि मेरा अचेतन मन उर्वशी में छिपी जया को पहचानकर ही आकर्षित हो रहा था. हम दिनभर बातें करते रहे, न तो किसी को भूख-प्यास, न थकान का एहसास, जैसे दोनों को ही जुदाई के वर्षों को चंद लम्हों में जी लेने की ख़्वाहिश थी.
“कल मेरी मौसी आ रही हैं. आपके एज ग्रुप की हैं और कविताएं भी लिखती हैं. आपको उनका साथ अच्छा लगेगा.” मन हुआ कह दूं, मुझको तो बस तुम्हारा साथ अच्छा लगता है, पर चुप रहा.
अगले दिन उर्वशी अपनी मौसी को लेकर आई. हम दोनों दरवाज़े पर ही एक-दूसरे को पहचानने की कोशिश करने लगे. “जया तुम?” मेरा स्वर उल्लास से भर गया, तभी वो चहककर बोली, “अरे अनिरुद्ध तुम?”
“लीजिए आप दोनों तो परिचित निकले, अब मेरी क्या ज़रूरत?” कहकर उर्वशी चली गई. कितना अजीब होता है हमारा मन. इस समय उर्वशी के जाने का जैसे मुझ पर कोई असर ही नहीं हुआ, न मैंने उसकी ओर देखा. जया और मैं कई वर्ष साथ पढ़े थे. समान रुचियां और स्वभाव में गज़ब की साम्यता. हम दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने थे. दोनों न केवल कविताएं लिखते, बल्कि दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र पढ़ते और बौद्धिक बहस करते थे.
जया के पिता न होने के कारण दो छोटी बहनों की ज़िम्मेदारियों ने उसे ग्रेजुएशन के बाद शॉर्टहैंड सीखकर नौकरी करने पर मजबूर कर दिया. उसने बड़ी साफ़गोई से मुझसे कह दिया था, “मैं तुमको किसी भुलावे में नहीं रखना चाहती. मैं तो शायद कभी विवाह न कर सकूं, पर तुम अपने जीवन के प्रति अन्याय न करो.” कायरता कहा जाए, व्यावहारिकता या परिवार की अपेक्षाएं, मैंने विवाह कर लिया था. मुझे लगा जैसे व़क्त ठहर-सा गया है और हम वहीं रुके हुए हैं. आज भी जया अपने उसी सौंदर्य, उसी छवि को संजोए हुए थी. उर्वशी ने अपनी मौसी का ही सौंदर्य और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण व्यक्तित्व पाया था, बल्कि वो अपनी मौसी का ही प्रतिरूप थी. मुझे अब एहसास हुआ कि मेरा अचेतन मन उर्वशी में छिपी जया को पहचानकर ही आकर्षित हो रहा था. हम दिनभर बातें करते रहे, न तो किसी को भूख-प्यास, न थकान का एहसास, जैसे दोनों को ही जुदाई के वर्षों को चंद लम्हों में जी लेने की ख़्वाहिश थी.
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दोनों बहनों का विवाह हो जाने के बाद एक तो अधिक आयु और मां उसके साथ ही रहती थीं, इसलिए अच्छा रिश्ता मिल न सका. मानसिक रूप से पहले ही तैयार रहने से जया को अविवाहित जीवन जीने में कोई समस्या नहीं हुई, लेकिन पिछले साल मां के गुज़रने के बाद इस आयु में अकेलेपन से अवसाद-सा होने लगा. मनोचिकित्सक ने कुछ दिन नौकरी से छुट्टी लेकर कहीं घूमने की सलाह दी, तो अकेली जया पर्यटन की बजाय अपनी भांजी के यहां आ गई.
दो दिन हम लोग साथ-साथ रहे, बल्कि पूरा शहर घूम डाला. मुझे लगने लगा कि मेरे जीवन के खालीपन को जया भर सकती है, पर सबसे बड़ा सवाल था कि क्या वो भी ऐसा सोचती है? मेरे मन में गाने की अगली पंक्तियां गूंजने लगीं. हर पल मन मेरा मुझसे कहता है, जिसकी धुन में तू खोया रहता है, भर दे फूलों से उसका दामन... आख़िर मैंने ही पूछ लिया, “जया, तुमने जीवन में आगे क्या सोचा है?”
“क्या बताऊं अनिरुद्ध, हक़ीक़त यही है कि मैं आज तक अपने जीवन के बारे में कुछ सोच ही नहीं पाई. मैं तो समय के हाथों का खिलौना बनकर रह गई थी और हवा में सूखे पत्ते की तरह उड़ती रही. अपनी सारी इच्छाओं को दबाकर अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए पूरा जीवन गंवा दिया.
आज मुड़कर देखती हूं, तो पाती हूं कि सारी रेत दरक गई है और मेरी हथेलियां आज भी खाली की खाली हैं.” जया की आंखें भीग गईं.
मैं समझ गया कि जया अपने बीते जीवन से अधिक भविष्य के अकेलेपन और सूने जीवन की निराशा व पीड़ा से व्यथित है. मैंने आगे बढ़कर उसकी हथेलियां थाम लीं और बोला, “जया, तुम्हारी हथेलियां खाली नहीं हैं. आज से हम दोनों एक-दूसरे के साथी हैं. बोलो मेरा साथ दोगी?” जया की हथेलियां थरथरा गईं, आंखें चमक उठीं और उसने किसी किशोरी की तरह लाज से चेहरा झुका लिया.
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अभी उसकी छुट्टियों के पंद्रह दिन बाकी थे, इसलिए हमने शिमला-मनाली घूमने का प्रोग्राम बना लिया और तय किया कि इसके बाद जया नौकरी से त्यागपत्र दे देगी. अब हम लोग इंतज़ार कर रहे हैं कि शाम को उर्वशी आए, तो उसके लिए यह सरप्राइज़ होगा.
अनूप श्रीवास्तव