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कहानी- अब लंदन दूर कहां 1 (Story Series- Ab London Dur Kahan 1)

लंदन में गर्मी का मौसम बहुत सुहावना और कुछ ही महीनों के लिए होता है, इसलिए घरों में पंखे तक दिखाई नहीं देते. इस मौसम का लोग भरपूर आनंद लेते हैं और इन दिनों लोग अधिक-से-अधिक बाहर घूमने जाते हैं. वहां मौसम का मिज़ाज निश्‍चित नहीं है, गर्मी में भी अचानक ठंड हो जाती है. बारिश भी मुंबई की बरसात की तरह है, इसलिए घर से निकलते समय लोग पहनने के लिए कोई मोटा कपड़ा और छतरी अधिकतर साथ रखते हैं. कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो जाता है, जो ख़ूबसूरत सपने के सच होने से भी अधिक चमत्कृत कर देता है. ऐसा ही कुछ मुझे अनुभव हुआ, जब मैं भारत से कंपनी की तरफ़ से भेजे गए अपने बेटे नितीश के पास लंदन पहुंची. मुझे अपार्टमेंट में पहुंचते-पहुंचते देर रात हो गई थी. यात्रा की थकान के कारण बिस्तर पर लेटते ही गहरी नींद ने मुझे अपनी आगोश में ले लिया. मुझे यह सोच अद्भुत व सुखद अनुभूति दे रही थी कि मैं लंदन में हूं, इसलिए सुबह उठते ही अपने पांचवीं मंज़िल के अपार्टमेंट की बालकनी से बाहर का दृश्य देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. नीचे सड़क पर कारों और बसों का आवागमन, छोटे बच्चों को प्रैम से प्ले स्कूल छोड़ने के लिए जाती हुई अधिकतर महिलाएं, बड़े बच्चे दो और तीन पहिए की एक पैर से चलानेवाली गाड़ी, जिसे वहां स्कूटर कहा जाता है, से स्कूल जाते हुए. बैग संभाले हुए कार्यक्षेत्र के लिए ट्रेन या बस पकड़ने के लिए सड़क पर चलते हुए युवा. दूर खिलौने जैसी दिखती आती-जाती ट्रेनें. मैं ट्रेन के डिब्बे गिनने लगी एक, दो, तीन... कुल छह थे. रातभर बारिश होने के कारण सड़कें नहाई हुई-सी, सब कुछ नया और अद्भुत लग रहा था. सुबह बहू के हाथ से चाय का प्याला पीकर मन और भी पुलकित हो गया. धीरे-धीरे उस शहर की जीवनशैली से परिचित होने लगी. लंदन जाने से पहले ही नितीश ने मुझे जानकारी दे दी थी कि वहां कार ख़रीदना आसान है, लेकिन उसका रख-रखाव और पार्किंग इतनी अधिक महंगी और मुश्किल है कि उसको रखना सिरदर्द मोल लेना है और वहां सार्वजनिक यातायात की इतनी अधिक सुविधा है कि कार रखने की आवश्यकता भी नहीं है. मैं यह सोचकर घबरा रही थी कि लंदन में पैदल कैसे चलूंगी, क्योंकि भारत में तो कहीं भी गाड़ी से ही जाना होता था, सड़क पर तो पैदल चलना जैसे भूल से गए थे, यह सोचकर अच्छा भी लगा कि इसी बहाने पैदल चलेंगे, क्योंकि यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहेगा. घर से बाहर निकलकर लगभग एक किलोमीटर के अंदर बस स्टैंड और ट्रेन पकड़ने जाने के लिए साफ़-सुथरी चौड़ी सड़कों के दोनों ओर पटरियों पर नियमों का पालन करते हुए पैदल चलना सुखद अनुभूति दे रहा था. ट्रेन या बस में चढ़ने तथा अंदर बैठने के लिए प्रैम में बैठे छोटे बच्चों, व्हीलचेयर इस्तेमाल करनेवाले वृद्धों तथा विकलांगों के लिए विशेष व्यवस्था होती थी. यातायात के साधन बहुतायत में होने के कारण भीड़ का सामना भी नहीं करना पड़ता था, इसलिए यात्रा बहुत सुविधाजनक लगती थी. यह भी पढ़ेलाइफस्टाइल ने कितने बदले रिश्ते? (How Lifestyle Has Changed Your Relationships?) मुझे यह देखकर बहुत आश्‍चर्य हुआ कि लंदन में बहुत से दर्शनीय तथा सार्वजनिक स्थानों में जगह-जगह सड़क के बीचोंबीच और किनारे लकड़ी, लोहे और सीमेंट से निर्मित बेंचें लगी थीं, जिनमें कुछ गोलाकार भी थीं, जिन पर पैदल चलते हुए थक जाने पर बैठकर थोड़ी देर के लिए विश्राम किया जा सकता था. मुझे यह सोचकर बहुत सुकून मिला कि वहां अनावश्यक थकने की आवश्यकता भी नहीं थी. उन सड़कों पर बच्चों के प्रैम, पैर से चलानेवाले लकड़ी से बने स्कूटर और साइकिल के अतिरिक्त अन्य यातायात के साधन ही निषिद्ध थे. लंदन भयंकर जाड़े की लिए प्रसिद्ध है. उन दिनों सूरज दोपहर को तीन बजे ही ढल जाता और रात का अंधेरा पसर जाता. अंधेरा और शीत लहर होने के कारण लोग घरों में कैद हो जाते, इसलिए वहां कोई कहीं बाहर जाने के लिए शाम का इंतज़ार नहीं करता. यहां लोग धूप के लिए तरसते हैं, इसलिए ज़रा-सी धूप निकलते ही घरों से निकल पड़ते हैं और धूप का भरपूर आनंद लेते हैं. उन दिनों को वहां सनी-डे कहा जाता है. दुकानें भी शाम को छह से अधिकतम आठ बजे तक खुली रहती हैं. लंदन में गर्मी का मौसम बहुत सुहावना और कुछ ही महीनों के लिए होता है, इसलिए घरों में पंखे तक दिखाई नहीं देते. इस मौसम का लोग भरपूर आनंद लेते हैं और इन दिनों लोग अधिक-से-अधिक बाहर घूमने जाते हैं. वहां मौसम का मिज़ाज निश्‍चित नहीं है, गर्मी में भी अचानक ठंड हो जाती है. बारिश भी मुंबई की बरसात की तरह है, इसलिए घर से निकलते समय लोग पहनने के लिए कोई मोटा कपड़ा और छतरी अधिकतर साथ रखते हैं. घर से आधे किलोमीटर की दूरी पर ही हाई स्ट्रीट नाम से बाज़ार था. इस नाम का बाज़ार लंदन के प्रत्येक एरिया में होता है. वहां जाकर मैंने देखा कि सड़क के दोनों ओर घर-गृहस्थी से संबंधित सभी सामान के स्टोर और हर प्रकार के रेस्तरां थे, जिनके बाहर भी लोग कुर्सियों पर बैठे हुए खाने के साथ बातचीत का आनंद ले रहे थे. देखकर नहीं लग रहा था कि किसी को भी वहां से उठने की जल्दी है.       सुधा कसेरा

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