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कहानी- अपने 3 (Story Series- Apne 3)

“शायद आप ठीक कहते हैं. हम इंसान हैं. जिस तरह ज़िंदा रहने के लिए खाना ज़रूरी होता है, उसी तरह हमारे अंदर की भावनाओं को भी जीवित रखने के लिए अपनों की आत्मीयता, स्नेह और प्यार आवश्यक होता है. इनके अभाव में भावनाएं शुष्क हो जाती हैं और शनै: शनै: ख़त्म होने लगती हैं और बिन भावनाओं के मानव का कोई अस्तित्व नहीं होता. आज की भाषा में कहा जाए, तो वह ठीक ऐसा होता है, जैसे पूरी बैटरी ख़त्म हुआ मोबाइल.” “यानी तुम कहना चाहती हो अपने मानव रूपी मोबाइल को स्नेह, प्रेम, अपनेपन और आत्मीयता जैसी भावनाओं से हमेशा रीचार्ज करते रहना चाहिए.” रवि ने ठहाका लगाया. बस, औपचारिक रूप से अपने मम्मी-पापा और भाई के गले लगकर हल्की-सी इमोशनल हो गई. उससे गले लगना तो दूर, उसकी तरफ़ देखा तक नहीं. लेकिन मेरा जी भर आया. जिस बच्ची को अपने हाथों से खिलाया था, उसे विदा होते देख ख़ुद को रोक ना सकी. “सृष्टि” कहते हुए ज़ोर से मेरी रुलाई फूट पड़ी. सभी मुझे ऐसे देखने लगे, जैसे मैंने कोई अजूबा कर दिया हो. “रिलैक्स बुआ, आप ऐसे क्यों रो रही हैं? मैं कोई हमेशा के लिए थोड़ी जा रही हूं? चलो प्रॉमिस करती हूं बुआ. डेली नाइट 10 से 11 व्हाट्सऐप पर ऑनलाइन मिलूंगी और बुआ स्काइप कनेक्ट करते ही आपको ऐसा लगेगा जैसे मैं आपके सामने ही हूं. ओके बाय.” कहते ही वह कार में बैठ गई. धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार जाने लगे. “दीदी, आपका सामान तो घर पर है. आप तो वहां से जाएंगी,” भाभी ने जब यह कहा, तो कोफ़्त हुई, क्यों नहीं अपना सामान यहां लाई. यहीं से निकल लेते. घर पहुंचते ही बड़े भैया यह कहते हुए अपने कमरे में घुस गए, “बहुत थक गया हूं, अब सोऊंगा. प्लीज़ कोई डिस्टर्ब मत करना.” उन्हें रवि का भी ध्यान नहीं आया. बड़ी भाभी ने एक मिठाई का डिब्बा और लिफ़ाफ़ा पकड़ाते हुए कहा, “दीदी-जीजाजी बहुत अच्छा लगा जो आप लोग शादी में आए. अब जल्दी ही सूर्यांश की शादी में भी आना है आप लोगों को. लड़की तो उसने पसंद कर ही ली है. बस, शादी की डेट फाइनल करनी है.” हम पति-पत्नी ने वहां से निकलने के बाद रेलवे स्टेशन के लिए ऑटो कर लिया. पता चला गाड़ी दो घंटे लेट है. वहीं सीट पर बैठ गए. रवि चाय ले आए. चाय देते हुए बोले, “क्या बात है राधिका? बड़ी अपसेट-सी नज़र आ रही हो?” मैं भरे गले से बोली, “क्या आप भी यह मानते हैं कि आज इंसान के पास व़क्त नहीं अपनों से मिलने का, उनसे दो मीठे बोल बोलने का? क्या यह सब मोबाइल, व्हाट्सऐप और फेसबुक पर मिल जाता है?” “मैं तुम्हारी भावनाओं और विचारों की कद्र करता हूं. जानता हूं तुम अपनों के लिए सब कुछ लुटाने को आतुर रहती हो. लेकिन इसके बदले में तुम्हें क्या मिलता है? एक रूखी उपेक्षा और कभी-कभी तो अपमान भी? लेकिन तुम यह सब बर्दाश्त करती हो, क्योंकि तुम अपनों को हृदय से चाहती हो.” “शायद आप ठीक कहते हैं. हम इंसान हैं. जिस तरह ज़िंदा रहने के लिए खाना ज़रूरी होता है, उसी तरह हमारे अंदर की भावनाओं को भी जीवित रखने के लिए अपनों की आत्मीयता, स्नेह और प्यार आवश्यक होता है. इनके अभाव में भावनाएं शुष्क हो जाती हैं और शनै: शनै: ख़त्म होने लगती हैं और बिन भावनाओं के मानव का कोई अस्तित्व नहीं होता. आज की भाषा में कहा जाए, तो वह ठीक ऐसा होता है, जैसे पूरी बैटरी ख़त्म हुआ मोबाइल.” “यानी तुम कहना चाहती हो अपने मानव रूपी मोबाइल को स्नेह, प्रेम, अपनेपन और आत्मीयता जैसी भावनाओं से हमेशा रीचार्ज करते रहना चाहिए.” रवि ने ठहाका लगाया. यह भी पढ़ेघर को मकां बनाते चले गए… रिश्ते छूटते चले गए… (Home And Family- How To Move From Conflict To Harmony) उनकी इस बात पर हल्के से मुस्कुरा पड़ी मैं. “ठीक कह रहे हैं आप, लेकिन आज सब व़क्त का रोना रोते रहते हैं. आज संतान के पास पैरेंट्स के लिए व़क्त नहीं है, लेकिन मोबाइल से घंटों चिपकने के लिए है. इस तरह वह उनके आशीर्वाद और क़ीमती अनुभव से वंचित हो रहे हैं. पति-पत्नी भी और अधिक कमाने की चाह, प्रमोशन आदि की वजह से अपना सुंदर व़क्त ज़ाया कर रहे हैं. ऐसा पैसा किस काम का जो एक-दूसरे को वह हसीन व़क्त ही ना दे पाए, जो उनकी ज़िंदगी के ख़ूबसूरत और यादगार पल बनकर उनके अंतस में मह़फूज़ हो जाएं और व़क्त-व़क्त पर उनको और उनकी भावनाओं को गुदगुदाकर रोमांचित कर जाएं. इस सुखद एहसास की सुखद अनुभूति से उनका रोम-रोम खिल उठेगा और आजीवन उनके संबंधों में नवीनता, जीवंतता, भरपूर ऊर्जा और उत्साह का संचार होता रहेगा. आज दोस्तों से मिलने का व़क्त नहीं है, लेकिन फेसबुक पर फ्रेंड बनाने का जुनून सवार है. गुरु के ज्ञान पर भरोसा नहीं है, गूगल पर सर्च करने में अटूट विश्‍वास है. मैं मानती हूं स़िर्फ एक उंगली से क्लिक करते ही दुनिया आपके सामने है, लेकिन इतना सब कुछ होने के बावजूद हम दूर होते जा रहे हैं अपनों से, अपनों के प्यार से.” रेलवे स्टेशन पर ट्रेन आ चुकी थी. ट्रेन में चढ़ते व़क्त मेरी आंखों में आंसू थे. यह मायके से विदाई के थे या अपनों की उपेक्षा के, मैं ख़ुद भी नहीं समझ पा रही थी. चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गई. ट्रेन ने अपनी गति पकड़ ली. डॉ. अनिता राठौर ‘मंजरी’

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