कहानी- बिना चेहरे की याद 2 (Story Series- Bina Chehre Ki Yaad 2)
अब तक उसके चेहरे पर हमेशा ही एक खोयापन छाया हुआ देखता आया था. आज उसका चेहरा धूप में खिला हुआ, ताज़गी से भरा लग रहा था. बातचीत के दौरान कई बार उससे पूछने की इच्छा हुई कि हमेशा किसकी याद में खोई रहती हो? पर अभी तक व्यक्तिगत सवाल पूछने जितनी घनिष्ठता नहीं हुई थी, इसलिए अपने आपको रोक लिया.
दो-चार औपचारिक बातों के बाद मैंने पिछली रात के लिए उससे खेद प्रकट किया. “कल रात के अपने रूखेपन और कठोरता के लिए माफ़ी चाहता हूं. दरअसल, इतनी रात गए आपको वहां अकेले देखकर एकदम से टेंशन में आ गया था.”
“आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं सर. मैंने भी रात में सोचा तो महसूस किया कि सचमुच मैंने कितनी बड़ी मूर्खता की थी कि इतनी रात गए अकेली सुनसान जगह पर बैठी थी. आप न आते तो पता नहीं मैं कितनी देर यूं ही बैठी रहती.” वह झेंपकर बोली.
मेरे मन से बोझ उतर गया. वह सहज लग रही थी. दूर से वह जितनी असहज लगती थी, पास आने पर पता चल रहा था कि उतनी थी नहीं. सब्जेक्ट, कॉलेज और स्टूडेंट्स के विषय में हमारे बीच काफ़ी देर तक बातें होती रहीं. उससे बातें करना अच्छा लग रहा था. पता नहीं था कि वह इतने सारे विषयों पर सोचती है और अपनी स्पष्ट व मज़बूत राय भी रखती है.
अंजना से बात करते हुए महसूस हुआ कि वह उतनी भी अजनबी नहीं है. हम ही शायद अब तक उसकी ओर आत्मीयता का हाथ नहीं बढ़ा पाए थे. कुछ लोग होते हैं, जो अपनी सारी आत्मीयता लेकर अपने खोल में छिपे रहते हैं. आपको ही प्रयास करके उनकी खोल से उन्हें बाहर लाना पड़ता है, अंजना भी उन्हीं में से एक लगी. अब तक उसके चेहरे पर हमेशा ही एक खोयापन छाया हुआ देखता आया था. आज उसका चेहरा धूप में खिला हुआ, ताज़गी से भरा लग रहा था. बातचीत के दौरान कई बार उससे पूछने की इच्छा हुई कि हमेशा किसकी याद में खोई रहती हो? पर अभी तक व्यक्तिगत सवाल पूछने जितनी घनिष्ठता नहीं हुई थी, इसलिए अपने आपको रोक लिया.
दूसरे दिन हम मुक्तेश्वर चले गए. दिनभर स्टडी करने के बाद स्टूडेंट्स अपने-अपने कमरों में सोने चले गए. उनका इरादा रात में फिर कैंप फ़ायर करने का था. साथी प्रो़फेसर्स भी रजाइयों में दुबक गए.
अंजना बाहर गार्डन में बैठी दूर-दूर तक फैली पर्वतों की शृंखलाओं को निहार रही थी. इस समय भी उसके चेहरे पर वही खोया-सा भाव था. मैं पास ही एक कुर्सी खींचकर बैठ गया. चौकीदार को दो चाय लाने को कह दिया.
चाय पीते हुए हम बातें करने लगे. पहले का खोया-खोया-सा भाव अंजना के चेहरे से चला गया था, उसके स्थान पर एक स्वाभाविक निर्मलता आ गई थी. थोड़ी देर की बातचीत के बाद आख़िर मैंने अंजना से वह सवाल पूछ ही लिया, जो महीनों से मेरे दिलो-दिमाग़ में कुलबुला रहा था.
“तुम हर समय किन ख़यालों में खोई रहती हो? किसकी याद आती रहती है?” मैंने उसे छेड़ा. दो बरसों का साथ और पिछले तीन दिनों की घनिष्ठता में इतना अधिकार तो मैं पा ही गया था.
“किसी की भी नहीं सर. मुझे शुरू से ही आदत है, बस यूं ही चुपचाप बैठे रहने की.” वह झेंप गई.
“यूं ही चुपचाप कोई नहीं बैठता. मन में जब कुछ चल रहा हो, तभी आदमी इस तरह खोया-खोया रहता है. बताओ किसकी यादों में खोई रहती हो हर समय?” मैं कब पीछा छोड़नेवाला था.
“आप भी सर. कहां मेरी यादों के पीछे पड़ गए.” वह बड़ी देर तक हंसते हुए मेरे प्रश्न को टालती रही, पर जब मैं अपने प्रश्न बार-बार दोहराता रहा, तब अचानक ही गंभीर होकर अनमने ढंग से बोली, “मेरी यादों का कोई चेहरा नहीं सर, इसलिए मैं आपको नहीं बता सकती कि मैं किसकी यादों में खोई रहती हूं.”
सुनकर अजीब-सा लगा. अक्सर जब भी हम यादों के सागर में डुबकियां लगाते हैं, तो कुछ जाने-पहचाने चेहरे या जगह या घटनाएं सामने आ जाती हैं. लेकिन क्या कभी कोई ऐसी भी याद होती है, जिसका चेहरा ही न हो?
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शायद!
अंजना का जवाब दिलचस्प लगा. आगे बात करने से ख़ुद को रोक नहीं पाया, “क्या कभी यादें भी बिना चेहरे की हो सकती हैं? मतलब यह कि हमें ही पता न हो कि हम किसे याद कर रहे हैं?” मुझे न चाहते हुए भी हंसी आ गई, जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से नियंत्रित किया.
“क्यों नहीं सर?” वो बड़े ही संजीदा स्वर में बोली.
“ये ज़रूरी थोड़े ही है कि आदमी हर व़क़्त किसी घटना, जगह या किसी व्यक्ति का चेहरा ही याद करता रहे. कभी वो न जाने क्या याद करना चाहता है, इसलिए उस समय उसकी यादों का कोई भी चेहरा नहीं होता.”
“फिर भी कम से कम उसे यह तो पता होता है कि वह क्या याद करना चाहता है या यह भी पता नहीं होता?” अब की बार मैं खुलकर हंस दिया.
“पता होता भी है और नहीं भी होता.”
डॉ. विनिता राहुरीकर
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