“अब थोड़ा हंसने लगे हो भइया. भाभी, भइया तुम पर लट्टू हैं. मैं हौसला न बढ़ाता, तो कुंआरे रह जाते.” जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. यह हो जाता, तो विधाता शायद मेरा संयोग तुमसे जोड़ देते संयम... जानकी करारी लौटी. अम्मा गदगद. “दोनों भाइयों में बहुत प्रेम है. जानकी तुम संयम को संभव से कम न मानना.”“संयम को कम नहीं बढ़कर मानती हूं.”मैथिली बोली, “न सास-ससुर की रोक-टोक, न ननद की दादागिरी. जानकी मुझे जो ऐसा घर मिल जाए, तो ख़ूब मौज उड़ाऊं.”“मेरा विवाह संयम से होता, तो मैं भी उड़ाती.” अम्मा ने मैथिली को डपट दिया, “कुछ भी बोलती है.
“थी. मुझसे छोटी, संयम से बड़ी थी. मेडिकल कर रही थी. पापा-मां उसे छोड़ने हॉस्टल जा रहे थे. कार का एक्सीडेंट हो गया. तीनों नहीं रहे. मैं और संयम अचानक बेसहारा हो गए. पैसे की कमी नहीं थी, पर मानसिक संबल की ज़रूरत थी. चाचाजी ने बड़ा सहारा दिया. वे तुम्हें देखने आते, पर उन्हें छुट्टी नहीं मिली. मैंने संयम को बच्चे की तरह संभाला है. नादानी करे, तो अपना बच्चा समझकर माफ़ कर देना.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है, जिसे पहली नज़र में दिल दे बैठी, जो आयु में उससे बड़ा है, उसे अपना बच्चा कैसे समझ सकती है? जिसे चाचाजी समझा, उसे पति कैसे समझ ले?
“जब मैं तुम्हें देखने आया तुम नाज़ुक लग रही थी. घर आकर मैंने साफ़ कह दिया था कि मिस मैच हो जाएगा. शादी नहीं करना चाहता था, पर संयम अड़ गया कि वह तुम्हें पसंद कर चुका है. चाचाजी अड़ गए कि उन्होंने तुम्हारे बाबूजी को उम्मीद दी है.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. मैं संयम की पसंद और बाबूजी को दी गई उम्मीद की भेंट चढ़ गई.
“मां के बाद यह घर कभी घर नहीं लगा. वे पता नहीं कैसे इतना संभाल लेती थीं. मैं तो चाबियां देखते ही घबरा जाता हूं. संयम की स्थिति तो मुझसे भी दयनीय है. तुम हंसोगी, पर मुंह दिखाई में मैं तुम्हें चाबियां दूंगा. संभालो अपना घर.”
“चाबियां नहीं ले सकती. अभी आप मुझे ठीक तरह से नहीं जानते हैं, उस पर...”
“सात फेरों का बंधन मज़बूत होता है. घर तुम्हारा, ज़िम्मेदारी तुम्हारी. मैं मुक्त हुआ.”
जानकी संगतपुर में 10 दिन रही. संभव उसकी सहूलियत का ख़्याल रखते. संयम उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करता, “अरे भाभी, तुम अच्छा आ गई. घर में मर्दाने चेहरे देखकर मैं संन्यासी बनता जा रहा था. यहां कामवाली बाई भी नहीं है कि उसका मुख देख लूं. खाना बनाने से लेकर बगीचे मेें पानी देने तक सारा काम बुढ़ऊ काका करते हैं.”
संभव मुस्कुरा दिए, “अब घर कैसा लगता है?”
“जन्नत. कचहरी जाने की इच्छा नहीं होती. लगता है भाभी के पास डटा रहूं.”
“शादी के बाद मेरे पैरों में बेड़ियां पड़नी चाहिए, पड़ गई तुम्हारे पैरों में.”
“सही फ़रमाते हो भइया. मां होतीं, तो भाभी को रसोई के राज-रहस्य बतातीं. आजकल मैं सास के रोल में हूं.”
संभव कृतज्ञ थे. “जानकी, दिनों बाद घर में रौनक़ लौटी है. इसी तरह मुझे सहयोग और संयम को स्नेह देती रहना.”
संयम ने अभूतपूर्व बयान दिया, “भइया के मुख से अब जाकर सहयोग, स्नेह, सहभागिता जैसे शब्द सुन रहा हूं, वरना वही एक्स रे, एमआरआई, ईसीजी, सिरिंज, ड्रिप. बाप रे! इसीलिए मैं डॉक्टर नहीं बना. डॉक्टर लोग बहुत कम हंसते हैं.” संभव हंसते हुए बोले, “मैं हंस रहा हूं.”
“अब थोड़ा हंसने लगे हो भइया. भाभी, भइया तुम पर लट्टू हैं. मैं हौसला न बढ़ाता, तो कुंआरे रह जाते.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. यह हो जाता, तो विधाता शायद मेरा संयोग तुमसे जोड़ देते संयम...
जानकी करारी लौटी. अम्मा गदगद.
“दोनों भाइयों में बहुत प्रेम है. जानकी तुम संयम को संभव से कम न मानना.”
“संयम को कम नहीं बढ़कर मानती हूं.”
मैथिली बोली, “न सास-ससुर की रोक-टोक, न ननद की दादागिरी. जानकी मुझे जो ऐसा घर मिल जाए, तो ख़ूब
मौज उड़ाऊं.”
“मेरा विवाह संयम से होता, तो मैं भी उड़ाती.”
अम्मा ने मैथिली को डपट दिया, “कुछ भी बोलती है. जानकी, बाबूजी से कहूंगी डॉक्टर साहब को फोन करके कहें कि तुम्हें लेने दोनों भाई आएं.”
मेरी नज़र तो संयम पर टिक गई है. चाहती हूं कि डॉक्टर साहब नहीं, संयम आएं.
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लेकिन संभव आए. जानकी निरुत्साहित.
कार ड्राइव कर रहे संभव ने उसके निरुत्साह को लक्ष्य किया, “उदास हो?”
“संयम को भी लाते.”
“उसे बुख़ार है.”
“कब से?”
“उदास थी, अब घबरा गई?”
घर पहुंचकर संभव ने संयम का टेंपरेचर चेक किया.
“मैं इसकी हाय-तौबा से परेशान हो गया हूं. जानकी अब तुम करो इसकी सेवा.”
संयम ने मुस्कुराते हुए कहा, “भाभी, तुमने मेरी केयर भइया से कम की, तो मैं तहलका मचा दूंगा. देवर का अर्थ जानती हो? दूसरा वर. मैं तुम्हारा दूसरा वर हूं.”
जानकी उसे अपलक देखती रही. संकेत तो नहीं दे रहा है? इस तरह घेरे रहता है जैसे समीपता चाहता है. इसी को मन में बसाकर तो यहां रहने की कोशिश कर रही हूं, पर जानकी की क़िस्मत में सदमे ही
लिखे हैं.
बाबूजी अचानक आए, “डॉक्टर साहब, मैथिली ने बीएससी कर लिया है. एमएससी बायो टेक में करना चाहती है. करारी में यह विषय नहीं है. कहें तो यहां रहकर पढ़े. जानकी को अकेलापन नहीं लगेगा.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. बाबूजी ने मेरा इस्तेमाल करने के लिए ही मुझे अधेड़ से ब्याह दिया है. सास-ससुर का झमेला नहीं है, इसलिए इन लोगों को चाहे जब टपक पड़ने की पात्रता मिल गई है. अभी अम्मा बीमार पड़ीं, बाबूजी यहां पटक गए कि करारी के डॉक्टर बेव़कूफ़ हैं. संभव अच्छा इलाज करेंगे. क्षीण बुद्धि संभव ने उपचार किया और माता जैसा आदर दिया. अब मैथिली पढ़ना चाहती है. फिर वैदेही फिर छोटी सिया. मैं अपने घर में, ख़ासकर संयम को लेकर दख़ल नहीं चाहती. बोली, “बाबूजी, सुनो तो...”
लेकिन क्या करे इस क्षीण बुद्धि प्राणनाथ का. अविलंब कहा, “बाबूजी, सुनना क्या है? आपका घर है. मैथिली रहेगी, तो चहल-पहल बनी रहेगी.”
बाबूजी उद्देश्य पूरा कर चलते बने. जानकी सदमे में. संभव ने हाल पूछा, “जानकी परेशान लगती हो.”
“बाबूजी आप पर भार डाल रहे हैं. मुझे संकोच होता है.”
“संकोच क्यों? इस घर में तुम्हारा अधिकार है.”
संयम ख़ुश हो गया, “बुला लो भाभी. मैथिली ने शादी में बहुत सताया था. गिन-गिनकर बदला लूंगा.”
मैथिली आकर माहौल में रंग भरने लगी. जानकी को संदेह नहीं पुख्ता विश्वास है कि मैथिली, संयम को लपेटे में लेने के लिए यहां स्थापित हुई है. उसमें रुचि लेकर संयम चालबाज़ी दिखा रहा है. फोर्थ सेमिस्टर पूरा होते-होते समझ में आ गया रचना रची जा चुकी है. राज़ खोलने का भार संयम पर डाल फोर्थ सेम की परीक्षा होते ही मैथिली करारी खिसक ली कि उसकी अनुपस्थिति में संयम प्रस्ताव पारित करा ले.
संयम प्रस्ताव लेकर जानकी के सम्मुख आया, “भाभी, कुछ कहना है.”
“कहो.”
“भइया से कहने की हिम्मत नहीं हो रही है. तुम मेरी अर्जी उनके दरबार में लगा देना.”
जानकी सब समझ रही है, पर फिर भी कहा, “अर्जी का मजमून तो सुनूं.”
“मैं मैथिली से शादी करना चाहता हूं.”
सुषमामुनीन्द्र
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