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कहानी- घंटी 3 (Story Series- Ghanti 3)

“दुखी मत होइए. बड़े-बुज़ुर्ग चाहे साथ रहें, दूर रहें या बहुत दूर चले जाएं, उनका आशीर्वाद अपने बच्चों पर हमेशा बना रहता है. वह भी बिना किसी गिले-शिकवे के.” दीप्ति अपलक उन्हें देखे जा रही थी. लग रहा था मांजी ही उसे अपराधबोध से उबारने के लिए सामने आ खड़ी हुई हैं. उसकी आंखें डबडबा आईं. संध्या की सास शायद दीप्ति की मन:स्थिति भांप गई थी. उन्होंने अपना वरद हस्त दीप्ति के सर पर रखते हुए उसे अपने पास खींच लिया. “तुम मुझमें उनका प्रतिरूप देख सकती हो बेटी.” ‘आज तो मांजी भी भाई-भाभी को रवाना कर, तानकर सोई लगती हैं. चलो सोने दो. चाय बनाकर ही उठाऊंगी, तब तक सारा काम समेट लेती हूं.’ रसोई समेटी तब तक कपड़े धुल गए थे. उन्हें फैलाकर दीप्ति नहाने घुस गई. ‘कमाल है, मांजी आज अभी तक सो रही हैं. हमेशा तो अब तक घंटी बजा ही देती हैं.’ चाय चढ़ाती दीप्ति ने सोचा, ‘अब तो सुनीता भी आनेवाली है. चलो उसकी भी बना देती हूं.’ दीप्ति ने चाय में पानी डाला ही था कि सुनीता आ गई. “तुम्हें ही याद कर रही थी. फटाफट मांजी को तैयार कर, तब तक चाय तैयार हुई जाती है.” दरवाज़ा बंद कर दीप्ति प्लेट में रस्क निकाल रही थी कि सुनीता की हड़बड़ाहट भरी पुकार ने उसे चौंका दिया. सुनीता ने नींद में ही मांजी के गुज़र जाने की सूचना दी, तो दीप्ति स्तब्ध खड़ी रह गई. “प...र अभी तड़के मामाजी-मामीजी रवाना हुए, तब तो उन्होंने उनसे बात की थी.” “फिर?” “फिर वापिस सो गई थीं.” बुत बनी दीप्ति को कब सुनीता ने बैठाया, अजय को फोन कर बुलाया, दीप्ति को कुछ भी याद नहीं था. सारे रिश्तेदार एकत्रित हुए, दाह संस्कार हुआ. दीप्ति कठपुतली की तरह रिश्तेदारों के निर्देशानुसार सब करती रही.रिश्तेदार उसे ढांढस बंधाते, “तुमने तो बहुत सेवा की उनकी. तुम्हारी वजह से ही इतने दिन और जी लीं, वरना तो शरीर में शेष ही क्या रह गया था?” प्रत्युत्तर में दीप्ति खोई-खोई-सी उन्हें ताकती रहती. वह किससे कहे कि अपराधबोध का एक कांटा उसके सीने में गहरे तक धंस गया है, जो उसे न चैन से सोने देता है, न उठने देता है, न बैठने. क्या उस दिन गहरी नींद में उसने सचमुच मांजी की घंटी की आवाज़ सुनी थी? या वह एक सपना मात्र था? यदि मांजी ने सचमुच घंटी बजाई होती और उसने अनसुना किया होता, तो मांजी और ज़ोर-ज़ोर से तब तक घंटी बजाती रहतीं जब तक कि वह रजाई छोड़कर उठ न जाती, दीप्ति की अंतरात्मा ने तर्क किया. यह भी पढ़े: कमज़ोर बनाता है डर (Kamzore Banata Hai Dar) ‘हां तो उन्होंने बजाई थी. खूब ज़ोर-ज़ोर से बजाई थी. तुम्हीं घोड़े बेचकर सोती रही. उन्हें स्ट्रोक आया और सब ख़त्म.’ अंदर से दूसरी आवाज़ ने प्रतिकार किया. ‘नहीं’ दीप्ति अकेले में ही ज़ोर से चिल्ला उठी. आसपास देखा, कोई भी तो नहीं था. आज सवेरे ही तो अंतिम रिश्तेदार कानपुरवाली मौसीजी रवाना हुई थीं. पार्थ को स्कूल छोड़कर आज से अजय ने भी ऑफिस जॉइन कर लिया था. वह घर में अकेली है, नितांत अकेली. ज़िंदगी में पहली बार. मांजी भी नहीं हैं. दीप्ति की सहमी-सी निगाहें मांजी के कमरे की ओर उठ गईं. यह क्या? उसके कानों में अचानक मांजी की घंटी की आवाज़ कैसे गूंजने लगी? ‘उफ़्फ़, मैं पागल हो जाऊंगी.’ दीप्ति ने दोनों कानों पर हाथ धर दिए, पर घंटी की आवाज़ आती रही. वह फिर सपना देख रही है, वह भी जागती आंखों से! दीप्ति ने ख़ुद को चिकोटी काटी. ‘नहीं, यह सपना नहीं है. तो फिर... क्या मांजी की भटकती आत्मा घंटी बजा रही है?’ भय से दीप्ति के रोंगटे खड़े हो गए. इतनी ठंड में भी वह पसीने से नहा उठी. ‘अरे यह आवाज़ तो दीवार के उस ओर से आ रही लगती है.’ आवाज़ की दिशा में दीप्ति के क़दम अपने फ्लैट से निकलकर पड़ोस के फ्लैट की ओर बढ़ गए थे. वह तो भूल ही गई थी अजय ने दो दिन पूर्व उसे बताया था कि पड़ोसवाले फ्लैट में रिनोवेशन पूरा करवाकर नए पड़ोसी आ गए हैं. दीप्ति जाकर उनसे मिल आए कि उन्हें कुछ चाहिए तो नहीं? दरवाज़ा दीप्ति की ही हमउम्र संध्या ने खोला. दीप्ति के परिचय देने पर वह उसे ससम्मान अंदर ले गई. “संवेदना व्यक्त करने आना तो हमें था, पर घर व्यवस्थित करने में इतना उलझे रहे...” दीप्ति का ध्यान अंदर से आती घंटी की आवाज़ पर लगा देख वह बोल उठी, “मेरी सास हैं, पूजा कर रही हैं.” तब तक मांजी की ही उम्र, क़द-काठी की महिला धूप लेकर बाहर आ गईं. दीप्ति ने धूप लेकर उनके चरण स्पर्श किए, तो संध्या ने दीप्ति का परिचय दिया. “ओह, कब से संध्या को आपके यहां चलने का बोल रही हूं, पर यह बेचारी भी क्या करे? पूरा घर फैला हुआ है... बहुत दुख हुआ आपकी मांजी का सुनकर. सुना है बहुत प्यार था आप दोनों में. मैं आपका दर्द समझ सकती हूं. दुखी मत होइए. बड़े-बुज़ुर्ग चाहे साथ रहें, दूर रहें या बहुत दूर चले जाएं, उनका आशीर्वाद अपने बच्चों पर हमेशा बना रहता है. वह भी बिना किसी गिले-शिकवे के.” दीप्ति अपलक उन्हें देखे जा रही थी. लग रहा था मांजी ही उसे अपराधबोध से उबारने के लिए सामने आ खड़ी हुई हैं. उसकी आंखें डबडबा आईं. संध्या की सास शायद दीप्ति की मन:स्थिति भांप गई थी. उन्होंने अपना वरद हस्त दीप्ति के सर पर रखते हुए उसे अपने पास खींच लिया. “तुम मुझमें उनका प्रतिरूप देख सकती हो बेटी.” दीप्ति अब स्वयं को रोक न सकी. उनके गले लग वह फूट-फूटकर रो पड़ी. बहते आंसुओं के साथ मन में घर कर गया अपराधबोध भी बहता चला गया.  Sangeeta Mathur      संगीता माथुर

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