बचपन में शायद तुम्हारे जज़्बात नहीं समझती थी, पर समय-समय पर मिलते रहने और बढ़ती उम्र के साथ बहुत कुछ समझने लगी थी. पर स्पष्ट शब्दों में मन की बात मुझसे कभी कही ही नहीं तुमने. क्यों? कह नहीं पाए या अपनी मां पर इतना विश्वास था तुम्हें? आंखों की भाषा कोई कितनी पढ़ सकता है? आज की तरह खुलेआम मिलना तो तब सोच भी नहीं सकते थे.
... ऐसे ही एक प्यार होता है- बचपन का. बहुत पवित्र होता है यौवन से पहले का वह प्यार. ‘निश्छल’ बस , यही एक शब्द है उसे बखान करने के लिए. न तो वह यौवन का अर्थ जानता है, न सौन्दर्य का पैमाना. ऐसे ही मासूम से दिनों में जन्मा और पनपा था हमारा प्यार. मैं तब चौथी कक्षा में पढ़ती थी और मेरे बड़े भाई के मित्र होने के नाते तुम प्रायः ही हमारे घर आते. गर्मी की लम्बी छुट्टियों में तब ढेर सारा समय रहता, क्योंकि वह तब न तो होमवर्क के पर्वत तले दबे हुए आतीं, न ही टीवी, कम्प्यूटर का ज़माना था, बस दिनभर मौज-मस्ती. हम अपने लिए नए-नए खेल ईजाद करते और दिनभर खेलते. मैं तो तब काफ़ी नादान थी. आज की भाषा में तो बेवकूफ़ ही कहेंगे, बस इतना समझती थी कि तुम्हारे संग खेलना बहुत अच्छा लगता है. पर मुझ से चार वर्ष बड़े तुम कुछ परिपक्व थे. इस पर हाल में ही तुम्हारे भाई का विवाह हुआ था. सो एक दिन मेरा हाथ पकड़कर तुम मुझे अपने घर ले गए और ऐलान कर दिया था कि विवाह करोगे, तो सिर्फ़ मुझसे ही. ज़िद देखकर तुम्हारी मां ने कहा, '‘ठीक है, पर इससे पहले तुम्हें पढ़-लिख के कुछ बन कर दिखाना होगा." यह भी पढ़ें: इस महाशिवरात्रि यूं प्रसन्न करें भगवान शिव को (Mahashivratri Puja-Vidhi For All) शायद तुम्हें प्रोत्साहित करने के लिए एक सरल-सा नुस्ख़ा मिल गया था उन्हें. मज़ाक़ में हुई यह बात सभी भूल गए सिवा तुम्हारे. तुम पर तो बस कुछ बन कर दिखाने की धुन चढ़ गई. अपने अधिकारिक रवैये के बावजूद बहुत ही चुप्पे थे तुम. बचपन में शायद तुम्हारे जज़्बात नहीं समझती थी, पर समय-समय पर मिलते रहने और बढ़ती उम्र के साथ बहुत कुछ समझने लगी थी. पर स्पष्ट शब्दों में मन की बात मुझसे कभी कही ही नहीं तुमने. क्यों? कह नहीं पाए या अपनी मां पर इतना विश्वास था तुम्हें? आंखों की भाषा कोई कितनी पढ़ सकता है? आज की तरह खुलेआम मिलना तो तब सोच भी नहीं सकते थे. अपनेपन का एहसास तो तुमने हमेशा जतलाया, पर यह कैसे मान लिया कि स्पष्ट रूप से कहने पर मैं बुरा ही मान जाऊंगी? मैं कभी-कभी सोचती- ‘तुम्हारी चाहत मेरा भ्रम तो नही?’ हद ही हो गई जब तुम अपना प्यार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए बग़ैर आगे पढ़ने के लिए विदेश चले गए. पर फिर उससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता? अपनी ज़िंदगी अपनी इच्छा से जी ही कब मैंने? और मेरी डोर किन्ही अजनबी हाथों में सौंप दी गई. यह भी पढ़ें: एकतरफ़ा प्यार के साइड इफेक्ट्स… (How One Sided Love Can Affect Your Mental Health?..) फिर अचानक एक दिन तुम आन खड़े हुए मेरी ससुराल. यह तो अच्छा हुआ कि द्वार मैंने ही खोला. तुमने मुझे सिर से पांव तक देखा, दीर्घ क्षण तक देखते ही रहे, बिना कुछ बोले. मानो तुम मेरे विवाह की पुष्टि करना चाह रहे थे. चाह रहे थे कि ख़बर झूठी हो और फिर बिना कुछ कहे लौट गए. क्या कहते? कहने को कुछ रह ही क्या गया था. कहने का लाभ ही क्या था.अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें
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