कहानी- किसी से जुड़कर 3 (Story Series- Kisi Se Judkar 3)
“वह भावुक होकर सोच रही है. बाद में पछताएगी.”“तो यही होगा न, हम फिर वहीं आ जाएंगे जहां से चले थे. इस डर से हम चलना नहीं छोड़ देंगे. बेटे, अब जो भी होगा, उतना बुरा नहीं होगा, जितना हो चुका है. सच कहती हूं. इस घर को तीसरे की ज़रूरत है. कुछ उम्मीद जागेगी. किसी के किए की सज़ा हम क्यों भोगें? हमें ज़िंदगी को सही तरी़के से जीने का हक़ है.”“पर मौसी...”“निर्गुण, मेरे भी कुछ अरमान हैं.”“मौसी, मैं शून्य में बदल चुका हूं. मुझसे किसी को कोई लाभ न होगा.”“शून्य कहीं पर जुड़ता है, तो बढ़त दिलाता है.”
अब उसे लगता है कि वह समस्या ठीक से बता नहीं पाया था, पर अधिक जानकारी रखने के कारण विराम समझ गया था.
“निर्गुण, तू बेव़कूफ़ है क्या? मौसा को दो लात रसीद कर. मौसी को बता. बेव़कूफ़, बताने से मां-बाप नहीं मरते. चीख-चिल्ला, शोर मचा. मेरा बड़ा भाई शहर का दादा है. कहे तो चार जूते मौसा को मरवा दूं...”
मौसा को कल्पना नहीं थी कि निर्गुण योजना बना रहा है. निर्गुण ने मौसा की भुजा पर दांत गड़ा दिए और तब तक काटता-चिल्लाता रहा, जब तक जागकर मौसी न आई. मौसी के आदर्श पुरुष का यह अब तक का सबसे घिनौना रूप था. वे डर और अविश्वास से मौसा को देखती रह गई थी. यह बच्चा पता नहीं कब से यातना सह रहा है और इस पिशाच को झिझक न हुई. मौसी ख़ूब रोने लगी थी. फिर निर्गुण को लेकर अपने कमरे में आ गई थी. वह नहीं जानता मौसी और मौसा के बीच फिर क्या बहस हुई. बस, इतना जानता है कि दोनों फिर अजनबियों की तरह रहने लगे थे. आज सोचता है, तो हैरान होता है. अल्प शिक्षित मौसी में दृढ़ता आ गई थी या मौसी में मौसा का सामना करने का साहस नहीं था. मौसी की वह कई स्तरों पर हार थी. मौसी का विश्वास भंग हुआ था. बच्चा गोद में लेने-देने जैसी सामाजिक आस्था को धक्का लगा था. वे तो मौसा के साथ रहना ही नहीं चाहती थी, किंतु नितांत निजी फैसले भी व्यक्ति ख़ुद नहीं कर पाता. कुटुंब की राय को मानना पड़ता है. अब उसे लगता है कि ननिहाल में यह बात मौसी ने ही बताई होगी. मौसा का जादू सभी पर चल जाता था, अतः कोई भी सहसा विश्वास न कर सका. किया तो सुझाव दिए जाने लगे. नाना बोले, “गंगा, तुम्हारी बेव़कूफ़ी और लापरवाही कम नहीं रही, जो तुमने जानने की कोशिश नहीं की कि निर्गुण डरा हुआ रहने लगा है. अब चुप रहने में बेहतरी है. इस कलंक का असर पूरे परिवार पर पड़ेगा. हम लोगों को क्या जवाब देंगे? निर्गुण की ज़िंदगी भी कठिन हो जाएगी?”
मामा ने विरोध किया, “जीजा को समाज से बेदख़ल करना चाहिए.”
निर्गुण की मां व्याकुल थी, “गंगा, मैं सोचती थी कि निर्गुण सुख से है. मैं इसे वापस घर ले जाऊंगी.”
मौसी अकुला गई, “लीला, मेरे पास अब निर्गुण के अलावा कोई आधार नहीं है. तुम्हें डर है, तो मैं उस घर में नहीं रहूंगी.”
नाना ने चेताया, “...तो कहां रहोगी? अलग रहने का लोगों को कारण क्या बताओगी? शांति से काम लो और सतर्कता बरतो.”
उस समय तो वह इन बातों का मतलब समझ नहीं पाया था. आज सोचता है कि अपने कहे जानेवाले लोग भी अपनी पोज़ीशन, हित, स्वार्थ ही देखते हैं. तभी तो नाना को कुटुंब की चिंता हो आई थी. मामा मौखिक विरोध करके रह गए. मां ज़िद कर उसे वापस न मांग सकी. मौसा कुछ भी न बोल सके. मौसी की नज़र में गिरने से मौसा की ताक़त जाती रही या ग्लानि महसूस हो रही थी. नींद की गोलियां खाईं या हृदयाघात हुआ. वे एक रात कमरे में मृत पाए गए. मौसी यही बोली, “लोग ऐसा काम करते क्यों हैं कि फिर जी नहीं पाते.”
निर्गुण ने बी.कॉम अंतिम साल की तैयारी और परिमल बुक सेंटर एक साथ संभाला. कभी इस प्रतिष्ठान में मौसा की कुर्सी पर बैठना उसका सपना था. अब उसने वह रिवॉल्विंग चेयर बदल दी, जिस पर मौसा बैठा करते थे. उसे चेयर में मौसा के होने का बोध होता था. जल्दी ही वह बुक सेंटर स्थापित हो गया. उसे अपने काम में आनंद आने लगा था. वह तो इसी तरह से ज़िंदगी बिता देना चाहता था, लेकिन लहर का पत्र आने से घर परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था. मौसी उत्साहित थी, “निर्गुण, मैं लहर के बारे में बात करना चाहती हूं.”
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“वह भावुक होकर सोच रही है. बाद में पछताएगी.”
“तो यही होगा न, हम फिर वहीं आ जाएंगे जहां से चले थे. इस डर से हम चलना नहीं छोड़ देंगे. बेटे, अब जो भी होगा, उतना बुरा नहीं होगा, जितना हो चुका है. सच कहती हूं. इस घर को तीसरे की ज़रूरत है. कुछ उम्मीद जागेगी. किसी के किए की सज़ा हम क्यों भोगें? हमें ज़िंदगी को सही तरी़के से जीने का हक़ है.”
“पर मौसी...”
“निर्गुण, मेरे भी कुछ अरमान हैं.”
“मौसी, मैं शून्य में बदल चुका हूं.
मुझसे किसी को कोई लाभ न होगा.”
“शून्य कहीं पर जुड़ता है, तो बढ़त दिलाता है.”
“तुम्हें विश्वास है मौसी?”
“यह तो मानी हुई बात है.”
“तो क्या इस मानी हुई बात को आज़माया जाना चाहिए?”
निर्गुण के भीतर इच्छा हो आई है, यह जानने की कि किसी से जुड़ने पर अंततः लगता कैसा है?
सुषमामुनीन्द्र