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कहानी- मन्नत के सिक्के 5 (Story Series- Mannat ke sikke 5)

“पोता होगा इस बात से मैं आश्‍वस्त थी, इसीलिए पहले से ही एक सौ एक, मन्नत के चांदी के सिक्के ग़रीबों में बांटने के लिए ख़रीदे थे. सोचा था, घर का चिराग़ आएगा, तो पहले मन्नत के सिक्के बांटूंगी, फिर उसका मुंह देखूंगी. पर हुई पोती, सो सिक्के वैसे ही पड़े रह गए. लेकिन आज मन्नत पूरी कर आई हूं. बांट आई एक सौ एक चांदी के सिक्के ग़रीबों में... इसी कारण मन्नत से पहले पलक को नहीं निहारा. अब बुला लाओ नज़रभर निहारूं इस घर के चिराग़ को...” बोलते-बोलते दमयंतीजी सहसा रो पड़ीं. “बड़े पाप से बचा लिया रे साकेत तूने... इसी में पंद्रह दिन बीत गए. उस दिन सब पलक के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. तभी पलक का फोन आया, “मम्मी, मैं स्टेशन से घर के लिए निकल पड़ी हूं. दस मिनट में पहुंच जाऊंगी.” यह सुनकर अमृता बेसब्र हो गई. सहसा दमयंतीजी की गंभीर आवाज़ आई, “मंदिर जा रही हूं. देर हो जाएगी.” “अम्मा, पलक दस मिनट में पहुंच रही है. आज उसका बर्थडे है, उसे बधाई देकर जाना...” अमृता के कहने पर दमयंतीजी, “अभी फुर्सत नहीं है, बाद में मिलूंगी.” कहते हुए चली गईं. तो अमृता को अच्छा नहीं लगा. कम से कम पलक से दो शब्द बोलकर जातीं... यह सोच-सोचकर उसे आज अपनी सास पर ग़ुस्सा आ रहा था. दो घंटे बाद दमयंतीजी वापस लौटीं, तो पलक दिखाई नहीं दी. वह शायद तैयार होने चली गई थी. अलबत्ता नाराज़ अमृता दमयंतीजी के साथ आए पंडितजी को देखकर चौंकी, “सुन बहू, आज पलक का जन्मदिन है, इसीलिए उसके नाम की पूजा रखवाई है. फ़टाफ़ट तुम लोग तैयार होकर आ जाओ. आओ पंडितजी हम तैयारी कर लें.” कहते हुए दमयंतीजी पूजाघर की ओर बढ़ीं, तो साकेत-अमृता इस अप्रत्याशित कार्यक्रम से विस्मित हो उनके पीछे चले आए. पूजा की थाली लगाते हुए दमयंतीजी बिना बेटे-बहू की ओर देखे बोलीं, “पोता होगा इस बात से मैं आश्‍वस्त थी, इसीलिए पहले से ही एक सौ एक, मन्नत के चांदी के सिक्के ग़रीबों में बांटने के लिए ख़रीदे थे. सोचा था, घर का चिराग़ आएगा, तो पहले मन्नत के सिक्के बांटूंगी, फिर उसका मुंह देखूंगी. पर हुई पोती, सो सिक्के वैसे ही पड़े रह गए. लेकिन आज मन्नत पूरी कर आई हूं. बांट आई एक सौ एक चांदी के सिक्के ग़रीबों में... इसी कारण मन्नत से पहले पलक को नहीं निहारा. अब बुला लाओ नज़रभर निहारूं इस घर के चिराग़ को...” बोलते-बोलते दमयंतीजी सहसा रो पड़ीं. “बड़े पाप से बचा लिया रे साकेत तूने... भली करी, जो जांच न करवाई, वरना किसके कांधे पर तारा जड़ती? तेरे पिता की इच्छा को कौन पूरा करता? सच कहूं, तो मन में उथल-पुथल काफ़ी समय से थी, पर आज मन्नत के सिक्कों का बोझ ना सहा गया, सो बांट आई. चलो-चलो अब पूजा की तैयारी में जुट जाओ. पंडितजी बढ़िया-सी पूजा करवाओ पलक सिसौदिया के नाम से...” बोलती हुई दमयंतीजी बाहर आईं, तो दरवाज़े पर खड़ी पलक पर नज़र पड़ी, जो स्नेह और मुग्ध भाव से उनके नए मनमोहक रूप को निहार रही थी. उसे देखकर दमयंतीजी ने अपनी कमज़ोर-सी झूलती बांहें फैला दीं. “अब आ जा, क्या वहीं खड़ी-खड़ी देखेगी मुझे...?” यह सुनते ही पलक उनके गले लगकर धीमे से फुसफुसाई, “लव यू मेरी प्यारी दादी और हां थैंक्यू...” यह सुनकर वे उसकी पीठ पर हाथ फेरती बोलीं, “थैंक्यू तो तुझे है बिटिया. इस घर आने के लिए और हां हैप्पी बर्थडे भी...” यह सुनकर एक पल को वहां मौजूद सभी लोगों को लगा जैसे इस घर में आज पहली बार कोइॅ जन्मा हो और उसकी ख़ुशियां चारों ओर से बरस रही हों. जन्मदिन बेशक पलक का था, पर उपहार सभी को मिला.       मीनू त्रिपाठी
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