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कहानी- पीढ़ियों का नज़रिया… 5 (Story Series- Pidhiyon Ka Nazariya… 5)

 

Pidhiyon Ka Nazariya ताऊजी का चेहरा थोड़ा नर्म हुआ और सबने लोहे को गर्म पाकर अपने-अपने हथौड़े ले लिए, “पापा, आज लड़कियां आधुनिक हो गई हैं. उन्हें भी पूरी ज़िंदगी के लिए बंधने से पहले अपने विचार-विमर्श करने के लिए समय चाहिए होता है.” “हमें पहले से ही लग रहा था कि वो लोग सुलझे हुए हैं. उस लड़की को हमारे ज़माने की तरह कोई बुरा-वुरा नहीं लग रहा.” “बच्चों की पूरी ज़िंदगी का सवाल है, जो हुआ वो ग़लत था, पर इसके लिए पूरी ज़िंदगी के फ़ैसले को लेकर जल्दबाज़ी करना सही नहीं है.”

        “मतलब क्या है तुम्हारा? मैंने? मैंने सैंडी से दबाव में हां कराई? और तुम क्या कर रहे थे वहां? तुम भी तो समय मांग सकते थे?” “हां, ग़लती तो हमसे हो गई. समय तो हमें मांगना ही चाहिए था, लेकिन ख़ैर जो कल न हो सका, वो आज किया जा सकता है. आख़िर उसकी मांग में इतना भी ग़लत क्या है? शादी के मामले में तानाशाही...” लेकिन बड़े भाई के चेहरे पर सदमेग्रस्त से भाव देखकर छोटे को वाक्य अधूरा छोड़ना पड़ा. “छोटे तुम भी? तो तुम्हारी शह पर... तो तुम भी एक पीढ़ी पहले के टिपिकल सामंतवादी विचार के लड़केवालों की तरह दस लड़कियां देखकर सबको एक साल लटकाए रखना चाहते हो? अपना महत्व जताना चाहते हो कि तुम लड़केवाले हो? भूल गए कि जब हम बहनों-बेटियों की शादी के लिए दौड़ते थे. जब उन्हें देखकर लड़केवाले कहते थे कि अभी इन्हें भी दिखा लें, कुछ और सोच लें, तो कैसा लगता था? क्या गुज़रती थी हम पर?” “नहीं भूला मैं कुछ. पचासियों चक्कर लगाए हैं मैंने भी, लेकिन आज जब अपने बच्चे के दिल पर बीत रही है, तो मैं समझ सकता हूं कि उन्हें फ़ैसला लेने में इतना समय क्यों लगता था. आप समझ नहीं पा रहे क्योंकि...”   यह भी पढ़ें: नौकरी के मामले में शादीशुदा महिलाएं हैं आगे, मगर बेटे को लेकर नहीं बदली सोच (More married women than single women are working)     “क्योंकि...” इस बार छोटे ने वाक्य अधूरा छोड़कर एक उपन्यास पूरा कर दिया था. बाहर सन्नाटा छा गया था. अब वही भाव चक्रवात बनकर दिलों को मथ रहे थे. ताऊजी धम्म से बैठ गए. ये क्या कह दिया छोटे ने! क्या ये वही लड़का है, जिसे छोटे ने हमेशा उनका बेटा कहा? कितना चाहते थे उसे. और क्यों न चाहते. खानदान का पहला लड़का था. उसका मुंडन, अन्नप्राशन, हर संस्कार उनके हाथों हुआ. पढ़ाई में हमेशा उन्होंने ही उसे अनुशासित किया और सैंडी ने भी हमेशा रिपोर्ट कार्ड लाकर उन्हें ही दिखाया. सैंडी को अपना समझते हैं, इसलिए नहीं चाहते कि इतना अच्छा रिश्ता हाथ से जाए, क्या यही उनका दोष है? छोटे के दिल में भी कम उथल-पुथल नहीं थी. भैया क्या समझते हैं कि बहनों की शादी अकेले उन्होंने कराई है? वो ख़ुद भी तो कितना दौड़े हैं सबकी शादी में. हां, ये ठीक है कि रिश्ते ढू़ंढे हमेशा भैया ने थे, पर निभाने का ज़िम्मा हमेशा उसका ही रहा है. उनकी लड़कियों के समय में तो उसने चाचा नहीं, बाप बनकर सोचा, बाप की तरह सारी दौड़-भाग की और आज उसके लड़के के समय में वो ताऊ भी नहीं, लड़कीवाले बनकर सोचने लगे हैं. उथल-पुथल ताऊजी की बेटियों के मन में भी कम न थी. वो पिता को समझाने के लिए मन ही मन वाक्य बना रही थीं, “ज़माना बदल गया है. अब लड़कियां भी अपने दिल की बात खुलकर करना चाहती हैं. सैंडी की एक बात तो बिल्कुल ठीक है कि हो सकता है वो लड़की भी...” तभी ताऊजी कुछ निश्‍चय करके फोन की ओर बढ़े और सबकी मुद्रा बिल्कुल वैसी ही बन गई जैसे दीवाली पर जब कोई बम में आग लगाने जा रहा होता है और सब कान बंद कर लेते हैं. ताऊजी फोन उठाते, इससे पहले ही घंटी बज उठी. कहना न होगा कि फोन वहीं से था. फोन स्पीकर पर था और उसके पिता की आवाज़ सबके दिल की धड़कनें बढ़ाती जा रही थीं. शुभकामनाओं से शुरू हुई बात खैरियत से आगे न बढ़ते कुछ मिनट हो गए, तो सीधी बात पसंद ताऊजी बोल ही पड़े, “स्पष्ट कहिए, क्या कहना है?” “...जी वो आजकल के बच्चे... हालांकि हमने पहले ही कहा था बेटी से कि वो भी लड़के से मुलाक़ात कर रही है...! समझाया था कि कोई पुरातनपंथी ढंग से दिखाया नहीं जा रहा उसे. किसी तरह का दबाव नहीं बनाया, फिर भी कल ख़ुद हां करके आज... आज कह रही है कि वो मिलना कोई मिलना नहीं था... नहीं, नहीं, ना तो बिल्कुल नहीं कर रही वो. हमारी तरह उसे भी आप लोग और आपका बेटा बहुत अच्छे इंसान लगे पर... हो सके तो एक बार और... कहीं... जहां... पता नहीं बात करने का माहौल होने से क्या मतलब है आज की पीढ़ी का...”   यह भी पढ़ें: लॉकडाउन- संयुक्त परिवार में रहने के फ़ायदे… (Lockdown- Advantages Of Living In A Joint Family)   ताऊजी का चेहरा थोड़ा नर्म हुआ और सबने लोहे को गर्म पाकर अपने-अपने हथौड़े ले लिए, “पापा, आज लड़कियां आधुनिक हो गई हैं. उन्हें भी पूरी ज़िंदगी के लिए बंधने से पहले अपने विचार-विमर्श करने के लिए समय चाहिए होता है.” “हमें पहले से ही लग रहा था कि वो लोग सुलझे हुए हैं. उस लड़की को हमारे ज़माने की तरह कोई बुरा-वुरा नहीं लग रहा.” “बच्चों की पूरी ज़िंदगी का सवाल है, जो हुआ वो ग़लत था, पर इसके लिए पूरी ज़िंदगी के फ़ैसले को लेकर जल्दबाज़ी करना सही नहीं है.” ताऊजी ने जल्द सबको इशारे से चुप कराया और सैंडी की ओर देखकर मुस्कुरा उठे, “वो कौन-सा संवाद है तुम लोगों की पसंद की फिल्म का- जा बेटा जी ले अपनी ज़िंदगी...” भावना प्रकाश     अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

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