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कहानी- प्रतिध्वनि 4 (Story Series- Pratidhwani 4)

“ये आप क्या कह रहे हैं?” ''एक कड़वी हक़ीक़त बयान कर रहा हूं.” कुछ पल ठहरकर वे पुन: बोलने लगे. “... जीवन छोटी-छोटी घटनाओं का जमावड़ा है. धूप-छांव हर एक के जीवन में आता है. मिल-बांटकर इस लुका-छुपी के खेल को खेलें, तो एक सुंदर यादों का गुलदस्ता तैयार होता है. परंतु मेरी तरह अपनी ही दुनिया में जो जीता है, वह स्वयं अपनी हरी-भरी बगिया को बियावान बनानेवाला माली सिद्ध होता है.” "मैं कभी भी उसे दुखी नहीं करना चाहता था. वह जब मेरी पत्नी बन कर आई, हर पल चहकनेवाली बुलबुल थी. धीरे-धीरे वह अपनी खोल के अंदर छुपती चली गई, परंतु उसका अंतर्मुखी होना मुझे क्यों नहीं दिखाई दिया? उसने हर बात, हर चीज़ मेरी इच्छा के अनुरूप किया, पर याद करने की कोशिश करता हूं, तो याद नहीं पड़ता कभी मैंने उसकी इच्छा या पसंद जानने की कोशिश की हो... कभी उसके रंग में रंगने की इच्छा भी मेरे मन में आई हो. कभी तुम्हारे मन में यह इच्छा आई विवेक कि तुम अपनी पत्नी की इच्छा के अनुरूप ढलो?” “अ... क... कभी ऐसे सोचा नहीं.” अपने घुंघराले बालों में बेमतलब उंगलियां फेरते हुए विवेक बोला. “यही... बेटा यही... हम अपनी जीवनसंगिनी को, वो क्या कहते हैं, अंग्रेज़ी में, ‘फॉर ग्रान्टेड’ ले लेते हैं. और आज मैं मुड़कर देखता हूं, तो पाता हूं कि उसने जीवन में जब-जब मेरा साथ चाहा, मैंने उसे रुपया और दूसरे का हाथ पकड़ाया है... अब अगर अंत में उसने पूर्ण रूप से मेरा साथ छोड़ने का निर्णय ले लिया, तो क्या ग़लत किया?” “ये आप क्या कह रहे हैं?” ''एक कड़वी हक़ीक़त बयान कर रहा हूं.” कुछ पल ठहरकर वे पुन: बोलने लगे. “... जीवन छोटी-छोटी घटनाओं का जमावड़ा है. धूप-छांव हर एक के जीवन में आता है. मिल-बांटकर इस लुका-छुपी के खेल को खेलें, तो एक सुंदर यादों का गुलदस्ता तैयार होता है. परंतु मेरी तरह अपनी ही दुनिया में जो जीता है, वह स्वयं अपनी हरी-भरी बगिया को बियावान बनानेवाला माली सिद्ध होता है.” यह भी पढ़े: आर्थराइटिस से जुड़े 10 मिथकों की सच्चाई अतीत उन पर अब पूरी तरह से हावी हो गया था. अत: विवेक को मौन श्रोता होना ही ठीक लगा. वे सुदूर क्षितिज की ओर देखते हुए कहने लगे, “उसे फिल्में देखने का शौक़ था और मुझे नाम कमाने का. वह जब भी फिल्म देखने की बात करती, मैं व्यस्तता की बात कर उसे रुपये पकड़ाकर सहेलियों के साथ देख आने की नेक सलाह दे देता... जब मेरे आंगन की दो कलियां यानी मेरी बेटियां जन्मीं, उस समय मेरी सहचरी को सबसे ज़्यादा यदि कुछ चाहिए था, तो वो था मेरा साथ. किन्तु मैंने क्या दिया जानते हो? रुपये देकर उसे एक बार अपने मां-बाप के पास, दूसरी बार भी उसके मां-बाप के पास पहुंचा दिया. बेटियां मेरी जन्मीं, वंश-बेल मेरी फूली, परंतु सारी भागदौड़, सारा तनाव दूसरों ने झेला, अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों के कंधों पर रखकर मैं बाप बन गया. इतना ही नहीं, ये कलियां जब मेरे आंगन में कुहुकने लगीं, तब मेरा मन मोर नाच उठा. उनकी तोतली बोली, उनकी खनकती हंसी मेरा मनोरंजन थी, परंतु उनकी बीमारी, उनके स्कूल की सारी ज़िम्मेदारी मेरी सहचरी की थी. मेरी ज़िम्मेदारी बस उसे पैसे देना और गाड़ी देना थी... उसके परिवार में कोई भी शादी-ब्याह या ग़मीं पड़ी, मुझे कभी भी छुट्टी नहीं मिली. शुरू-शुरू में अकेले बच्चों के साथ वह चली जाती थी. फिर कार्ड या फोन आते ही बहाने बनाने लगी. एक बार मैंने टोका था, किसी की परीक्षा तो है नहीं, चली जाओ न बच्चों के साथ, थोड़ा मन बहल जाएगा. कुछ पल मेरी ओर देखकर उसने सपाट चेहरे के साथ कहा था, ‘अकेले अच्छा नहीं लगता.’ उस पल इन शब्दों में छुपे दर्द को मैं महसूस नहीं कर पाया. पर बेटा, आज ये सब मेरा सीना छलनी करते हैं. विवेक, मैंने उसे प्यार किया है. आज भी करता हूं. उसने मुझे छोड़ दिया, परंतु मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है... दरअसल, मैं शिकायत करने की स्थिति में ही नहीं हूं. ये तो मेरी सज़ा है और इसे मैंने सिर झुकाकर स्वीकार लिया है. अब तो बस दिन-रात यही दुआ करता हूं कि वह जीवन के शेष दिनों को अपने ढंग से जीए और संगीत जो उसकी आत्मा में रचा-बसा था, उसका पूरा आनंद उठाए.” “लेकिन अंकल, उन्होंने आपको छोड़ा क्यों? वो आपके प्यार को क्यों नहीं समझ पाईं?”         नीलम राकेश
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