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कहानी- प्रिया का घर 1 (Story Series- Priya Ka Ghar 1)

विक्की मेरी ओर देखकर, एक उदास मुस्कान फेंकता और हाथ में पकड़ी किताब में फिर से खो जाता... अक्सर मैं इन उदासियों के खोए सिरे तलाशती और अपने सवालों के जवाब ढूंढ़ने लगती. बीते सालों में वापस जाती... विक्की हमेशा से तो ऐसा नहीं था, क्या मेरी ही वजह से ये उदासी के बादल छाए रहते हैं मेरे घर पर? अपने सवालों के जवाब ढूंढ़ने निकलती, तो मन में घुटन-सी होने लगती.   आजकल के डिजिटल ज़माने में तस्वीरें कैमरे या फोन में खिंचती भले हों, लेकिन उन सैकड़ों तस्वीरों में से कोई भी एल्बम तक का सफ़र नहीं तय कर पाती हैं... और घर के एल्बम मायूस होकर सोचते रह जाते हैं कि हमारे खानदान में नए सदस्य क्यों नहीं जुड़ पाते? इन्हीं मायूस एल्बमों की गठरी जब-तब खोलकर मैं बैठ जाया करती थी और बीते सालों की दूरी कुछ मिनटों में तय कर आती थी... भले ही अकेले ही सही! "ये देखिए,विक्की कितना रोया था मुंडन में" मैं "ये फोटो देखिए, जिस दिन नई साइकिल आई थी... कितना रोया था इस साइकिल के लिए..." विक्की के पापा को उत्साह से भरकर दिखाती, तो वो 'हूं' से ज़्यादा कुछ न कहते, मैं अक्सर इस रवैये पर लड़ने को तैयार हो जाती, तो ये बिफर पड़ते, "क्या सुषमा! कितनी बार देखें यार वही एल्बम... शादी की उम्र में लड़का है, ये देख रही हैं मुंडन की फोटो..." और बस यहीं पर मेरी ज़ुबान अपने आप सिल जाती थी, कोई दुखती रग जैसे थोड़ी और दुखने लगती थी... विक्की शादी के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता था, किसी लड़की से मिलना तो दूर की बात थी... कितने ही रिश्तों की बात मैंने छेड़ी, कभी सीधे, कभी बहाने से... हर कोशिश नाकाम रही! बस सुबह ऑफिस निकल जाना, शाम को घर आकर ज़्यादातर वक़्त अपने कमरे में बिताना... मैं कभी-कभी टोक भी दिया करती थी, "तुम दोनों बाप-बेटे अपने में ही खोए रहते हो, मैं किसको ढूढ़ूं बात करने के लिए..." विक्की मेरी ओर देखकर, एक उदास मुस्कान फेंकता और हाथ में पकड़ी किताब में फिर से खो जाता... अक्सर मैं इन उदासियों के खोए सिरे तलाशती और अपने सवालों के जवाब ढूंढ़ने लगती. बीते सालों में वापस जाती... विक्की हमेशा से तो ऐसा नहीं था, क्या मेरी ही वजह से ये उदासी के बादल छाए रहते हैं मेरे घर पर? अपने सवालों के जवाब ढूंढ़ने निकलती, तो मन में घुटन-सी होने लगती. और फिर इसी घुटन से आज़ाद होने के लिए या तो मंदिर चली जाती या अपनी किराएदार के यहां जाकर थोड़ी देर बैठ लेती. आज भी मंदिर जाने के लिए सीढ़ियां उतरी, तो किराएदार का घर खुला देखकर हैरत हुई. मैंने हल्का-सा खटखटाया, "प्रिया की मम्मी... क्या हुआ, दरवाज़ा खुला हुआ है?" वो हड़बड़ाकर बाहर निकलीं और तुरंत बोलीं, "बस डॉक्टर के यहां से अभी आए, तभी खुला था... आइए ना अंदर." यह भी पढ़ें: रिश्तों में बदल रहे हैं कमिटमेंट के मायने… (Changing Essence Of Commitments In Relationships Today) उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि अपने हाथ की चोट संभालते हुए प्रिया मुझे सामने सोफे पर बैठी दिख गई. उतरा हुआ चेहरा, बदरंग-सा सूट, कोई बनाव-श्रृंगार नहीं, कौन कहेगा इस लड़की की छह महीने पहले शादी हुई है. मुझे देखकर हल्का-सा मुस्कुरा दी! "अभी तक ठीक नहीं हुआ तुम्हारा हाथ? ध्यान रखो. कल परसों तो तुम्हें वापस भी जाना है ना." मैंने वहीं दरवाज़े पर खड़े होकर कहा. उसकी मम्मी फुसफुसाते हुए बोलीं, "परसों की थी टिकट. कैंसिल करवा‌ दी इसने, कह रही अभी नहीं जाएगी." मैं उस समय तो सिर हिलाकर रह गई, लेकिन दिमाग़ में एक ख़तरे की घंटी बज चुकी थी. ये दूसरी बार टिकट कैंसिल कराई गई थी, आख़िर बात क्या थी? अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें... Lucky Rajiv लकी राजीव   अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES

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