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कहानी- सभीता से निर्भया तक 4 (Story Series- Sabhita Se Nirbhaya Tak 4)

  विमर्श आगे बढ़ गया और मेरा दिमाग़ भी अपनी गति से चलने लगा," ये विधायक और राजनेता बहुत बुरे होते हैं." मैंने भी काफ़ी देर बाद अपनी टिप्पणी जोड़ ही दी. मेरी आवाज़ सुनकर सबका ध्यान गया कि वहां एक बच्चा भी बैठा है. अचानक सब चुप हो गए. मैं इस समाचार से विशेष रूप से डर गई, क्योंकि एक लड़का ऐसा भी था, जो रोज़ अकादमी से निकलते ही मेरे साथ हो लेता और घर तक मेरी साइकिल की कुछ दूरी पर साइकिल चलाता रहता. उसके अभद्र शब्द-बाणों की उपेक्षा जब असहनीय हो गई, तो एक दिन मैंने पलट कर ग़ुस्से में कहा, "मेरे पिता पुलिस इन्स्पेक्टर हैं." "मैं किसी से नहीं डरता, मेरे पिता पुलिस कमिश्नर हैं." दो टूक जवाब हाज़िर था. मम्मी को बताया, तो पहले तो उन्हें हंसी आ गई फिर प्यार से समझाते हुए बोलीं, "बेटा, इसीलिए मैंने उपेक्षा की सलाह दी थी, क्योंकि तुम ऐसे लड़कों से बातों से नहीं जीत सकतीं. सतर्क रहो और उपेक्षा करो. अगर कभी वो इससे आगे बढ़ने की कोशिश करे, तो तुरंत बताओ." जल्दी ही वो दिन भी आ पहुंचा. एक सुनसान जगह पर उसने मेरी साइकिल के आगे अपनी साइकिल अड़ा दी और मैं साइकिल समेत गिर पड़ी. इस पर उसने पूरी हीरोगिरी के साथ मुझे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया. मेरा रोम-रोम सुलग उठा. अंग-अंग में चिंगारियां जलने लगीं. मैं कब उठी और कब मेरे झन्नाटेदार थप्पड़ ने उसके गाल पर पांचों उंगलियां छाप दीं, मुझे पता ही नहीं चला था. तभी एक कार और दो स्कूटर पर एक परिवार वहां से गुज़रा. वो लोग हालात की गंभीरता देखकर वहीं रुक गए, लेकिन उसके वो आग्नेय नेत्र और वो वाक्य 'बहुत मंहगा पड़ेगा' मेरे मन में किसी भयानक सपने की तरह अंकित हो गए. पापा ने सुना तो वे मुझे लेकर तुरंत पुलिस स्टेशन पहुंचे. छोटे शहर और ऊंचे प्रशासनिक पद के कारण पापा का स्वागत तो अच्छे से हुआ, पर मेरे द्वारा लड़के की फोटो पहचानने के बाद पुलिस के स्वर थोड़े से व्यावहारिक हो गए. उसकी पहचान 'ऊपर' तक थी या वो स्वयं किसी 'विशिष्ट' कहलानेवाले व्यक्ति की बिगड़ी संतान था, ऐसा कुछ स्पष्ट तो नहीं बताया था इन्स्पेक्टर ने. लेकिन हाथ जोड़कर लाचारी ज़रूर जताई थी कि जब तक वो 'कुछ' करता नहीं, तब तक कम्प्लेंट नहीं लिखी जा सकती है. वे पापा को ये हिदायत देना भी नहीं भूले थे कि वो अपनी बेटी का ख़्याल रखें. तब घर में एक अहम बैठक हुई. मुद्दा था मेरी सुरक्षा के मामले में कोई समझौता न करते हुए कैसे मेरी अकादमी की कक्षाओं को जारी रखा जाए. ये समूह जब एकत्र होता था, घंटों चाय की चुस्कियों के साथ ज़ोरदार बहसें और विचार-विमर्श चलता था. पर हम भाई-बहन को बचपन से इनका एकत्र होना सिर्फ़ इसलिए अच्छा लगता था, क्योंकि उस दिन समोसे, जलेबी, सुहाल और भी कई नाश्ते बाहर से आते थे. मम्मी-पापा बहस में व्यस्त हो जाते थे और हम भाई-बहन को खेल की पूरी आज़ादी मिल जाती थी. पर उस दिन क्योंकि मुद्दा मुझसे संबंधित था, मैं भी उत्सुकतावश सबके बीच जाकर बैठ गई. पापा के सबसे घनिष्ठ मित्र, अवि अंकल को तो आना ही था. वे पेशे से पत्रकार थे और आसपास से लेकर दीन-दुनिया की पूरी जानकारी रखते थे. वे पूरी तैयारी के साथ आए थे. "जहां तक मेरा अनुमान है, आगामी चुनावों में हमारा शहर किसी बड़े चुनावी दंगल का अखाड़ा बननेवाला है. उसी के लिए 'बाहुबल' एकत्र करने के लिए कई राजनेताओं ने अपने-अपने गुण्डों को एकत्र और सक्रिय किया है. वो जो इंसिडेंट हुआ था न, उसका आरोपी तुरंत पकड़ा गया था, पर तीन ही दिन में जमानत पर छूट गया. ज़रा सोचिए! बताया जाता है कि एक ग़ैराज में मैकेनिक था. एक मैकेनिक की इतने गंभीर मामले में इतनी ऊंची जमानत कौन और क्यों देगा." विमर्श आगे बढ़ गया और मेरा दिमाग़ भी अपनी गति से चलने लगा," ये विधायक और राजनेता बहुत बुरे होते हैं." मैंने भी काफ़ी देर बाद अपनी टिप्पणी जोड़ ही दी. मेरी आवाज़ सुनकर सबका ध्यान गया कि वहां एक बच्चा भी बैठा है. अचानक सब चुप हो गए. कुछ सेकंड बाद अवि अंकल ही बोले, "अरे नहीं बेटा, वो जिन्होंने तुम्हारा संगीत नाटक अकादमी स्थापित किया है, वो भी हमारे शहर के एक विधायक ही हैं. बड़ी ही बुद्धिमत्ता से एक पंथ दो काज निभते हैं उससे. सुविधा संपन्न बच्चों की प्रतिभा को पंख मिलते हैं और एकत्र धन से साधन हीन की सहायता होती है. और भी राजनेताओ के अच्छे कार्यों पर बनाई डाॅक्यूमेंट्री दिखाऊंगा तुम्हें. फिर बेटा, ये सब सिर्फ़ हमारे अनुमान हैं. वो लड़का किसी आम घर का बिगड़ा लड़का भी हो सकता है. " विमर्श आगे बढ़ गया. पुलिस की लाचारी, व्यवस्था का लचरपन, भ्रष्टाचार और न जाने कौन-कौन-सी चर्चाएं... तभी मेरे दिमाग़ में एक और घंटी बजी, "ये जो बाहुबल एकत्र करनेवाले राजनेता हैं, उनकी भी तो बेटियां होगी. वो कैसे बाहर निकलती है?" इस बार मैंने जैसे अवि अंकल की दुखती रग पर हाथ रख दिया. "हुन्ह! दो पुलिस वैन और दस सिपाही आगे-पीछे चलते हैं उसकी कार के. अभी इस इंसिडेंट के बाद हमने इतनी मुश्किलें झेलकर डाॅक्यूमेंट्री बनाई थी लोकतंत्र के इस मज़ाक पर. लेकिन क्या हुआ! आप में से कितनों ने तो देखी भी नहीं होगी."... कुछ पल की ख़ामोशी के बाद चर्चाएं फिर चल निकलीं, चलती रहीं, विमर्श होते रहे, लेकिन पापा के इशारे पर मम्मी मुझे बड़े प्यार से वहां से उठा कर ले गईं. सब चले गए थे. अंत में अवि अंकल ने पापा का हाथ अपने हाथों में लेकर निष्कर्ष परोसा था. "जितना मेरा अनुभव कहता है, वो साइकिल से चलता है, तो बस साइकिल की लड़कियों को छेड़ने की औकात है उसकी. पर केवल छेड़ने की औकात है, ये सोचना उसकी ताक़त को कम करके आंकना होगा. आप बता रहे हैं कि उसकी फोटो पुलिस स्टेशन में थी और बिटिया ने पहचानी. उसके बाद इंस्पेक्टर लाचारी दिखाने लगा. इसका मतलब यही निकलता है कि वो कोई आपराधिक तत्व है, जिसके ऊपर कोई वरदहस्त है. नहीं तो उसकी फोटो पुलिस स्टेशन में कैसे आई?" फिर एक लंबी ठंडी सांस के साथ अगला वाक्य जोड़ा, "और इस वरद हस्त का कोई इलाज फ़िलहाल हमारे पास नहीं है, इसलिए बिटिया को साइकिल से या अकेले तो कहीं भेजना ठीक नहीं ही होगा." यह भी पढ़ें: रिश्तों में तय करें बेटों की भी ज़िम्मेदारियां (How To Make Your Son More Responsible) मेरा दिल बैठ गया. हाॅरर मूवी के अनजान साए की तरह एक अनजाना डर मन में पांव पसारने लगा. अगले दिन से दशहरे की छुट्टी थी, पर अबकी रावण दहन देखने में मेरी कोई रूचि नहीं थी. सारा दिन मैं रोती रही. जब मम्मी-पापा चुप कराकर थक गए, तो दादी ने कमान सम्हाली. पहले उन्होने पंचतंत्र की बहुत सी कहानियां सुनाई. मेरा मन थोड़ा स्थिर हुआ. कई सालों से पढ़ाई और अकादमी के सम्मिलित दबाव में दादी की कहानियों से दूर हो गई थी मैं. मेरे चेहरे पर आए सकारात्मक परिवर्तन को पढ़ कर दादी ने बोलना शुरू किया, "और तू तो इतने हिम्मती परिवार की बेटी है, तू क्यों डरती है? तेरे बाबा स्वतंत्रता सेनानी थे. कैसे-कैसे अत्याचार उन्होंने निडर होकर सहे थे." अब मन थोड़ा और शांत हुआ, तो एहसास हुआ कि मुझे भूख लगी है. मम्मी ने मेरी पसंद का नाश्ता पहले से ही बना कर रखा था, तुरंत माहौल बना दिया. चाय की चुस्कियों के साथ दादी ने बात आगे बढ़ाई, "मेरा बचपन गांवों में बीता. रोज़ कड़ी दोपहर में मैं मां-बाबूजी के लिए खाना लेकर घर से खेत जाती थी. किसी हिरन के नुकीले सींगों की तरह की पेड़ की शाखा अपने पास रखी हुई थी. जाने कितने मनचलों को वो भोंक कर और कितनों को थप्पड़ मार कर ठीक कर दिया, पर कभी डरी नहीं. डर कर बैठने का विकल्प ही नहीं था मेरे पास... " अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें... bhaavana prakaash भावना प्रकाश अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES

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