तुम बुरी तरह घबरा गई थीं. कहां तो दिन-रात बेटे के सपने देखने में मग्न रहती थीं और कहां तनूजा ने संशय में डालकर सारे सपने बिखेर दिए थे. तनूजा के ही साथ तुम उसी दिन डॉक्टर के पास दौड़ी थीं. जब डॉक्टर ने बताया तुम्हारे गर्भ में पुत्र नहीं, बल्कि पुत्री है तो तुम्हें गश आ गया. आंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली थी.
तुम हताश और क्रोध से उबल पड़ती, “एक होती तो उसका मनाती भी, यहां तो तीन-तीन की कतार लगी हुई है. किसका मनाऊं किसका छोडूं.” एक बार बड़ी बेटी ने ग़ुस्से में कह ही डाला था, “लड़कियों से इतना क्यों चिढ़ती हो मां? आख़िर तुम भी तो लड़की ही हो न.” तब तुमने उसे कितना बुरा-भला कहा था. केवल हाथ उठाने की कमी रह गयी थी. उसके पश्चात बेटियां भी फूट-फूटकर रोई थीं और तुम भी. तुम अपनी बदक़िस्मती पर रो रही थीं- बेटा पैदा न होने पर और बेटियां अपनी उपेक्षा पर, तुम्हारे पक्षपातपूर्ण रवैये पर, जो बेटा होने से पहले ही आरम्भ हो गया था.
तनूजा को जब पता चला कि इस बार तुमने भ्रूण परीक्षण नहीं करवाया है, क्योंकि पुत्र रत्न की दवा तुम खा चुकी हो तो उसने तुम्हें कितना फटकारा था, “कितनी बेवकूफ़ हो. अगर दवा खाने से पुत्र पैदा होने लगे, फिर तो सभी मनपसंद औलाद प्राप्त कर लेंगे. दुनिया की आबादी का संतुलन ही नहीं गड़बड़ा जाएगा? जब मूर्खता कर ही बैठी हो तो अब भ्रूण परीक्षण जल्दी से करवा लो. कहीं देर हो गई तो पछताना न पड़ जाए.” तुम बुरी तरह घबरा गई थीं. कहां तो दिन-रात बेटे के सपने देखने में मग्न रहती थीं और कहां तनूजा ने संशय में डालकर सारे सपने बिखेर दिए थे. तनूजा के ही साथ तुम उसी दिन डॉक्टर के पास दौड़ी थीं. जब डॉक्टर ने बताया तुम्हारे गर्भ में पुत्र नहीं, बल्कि पुत्री है तो तुम्हें गश आ गया. आंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली थी. डॉक्टर ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि समय अधिक बीत जाने के कारण अब गर्भपात भी नहीं किया जा सकता. उस घड़ी तो तुम्हारी स्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी, जब डॉक्टर के पैरों पर गिरकर रोते हुए तुम गिड़गिड़ा रही थीं, “डॉक्टर साहब, कुछ भी करिए, मुझे लड़की नहीं चाहिए. किसी भी क़ीमत पर मुझे इससे छुटकारा चाहिए...” फिर तुम्हारी तथा पापा की स्वीकृति पर डॉक्टर ने ख़तरनाक क़दम उठाया था. लड़की को इंजेक्शन देकर पहले मारा, फिर प्रसव क्रिया द्वारा उस मरी बच्ची को बाहर निकाला. बाहर निकालने के लिए भी उसके अंगों को काटना-छांटना पड़ा था.
कितनी क्रूर हो गयी थीं तुम और तुम्हारी ममता. दो-तीन दिन तुम्हें अस्पताल रहना पड़ा था. बड़ी बेटी को सारी बात समझ आ गयी थी. तुम्हारे प्रति दया या तरस के स्थान पर उसके मन में घृणा के भाव पैदा हो गए थे, तभी तो उसने कितनी हिकारत से तुम्हें देखा था. तुम उसकी नज़रों का सामना नहीं कर पाई थीं. चुपचाप आंखें बंद कर मुंह फेर लिया था.
सहज होने के पश्चात कई बार तुमने फैसला किया, अब कोई चांस नहीं लोगी. तीन-तीन बेटियों की हत्या की अपराधिन बनने के बाद तुम डरने लगी थीं, अगर फिर लड़की हो गयी तो? इसी कशमकश में दो साल बीत गए थे. बेटियां भी फिर से तुमसे जुड़ने लगी थीं, कदाचित यह मानकर कि अब तुम परिवार बढ़ाने के बजाय पुत्र के मोह को त्यागकर लड़कियों पर ही समुचित ध्यान दोगी. पर पता नहीं विधाता भी क्या-क्या खेल रचाते हैं? उन्होंने तुम्हें इतनी प्यारी, गुणी समझदार बेटियां दीं, लेकिन स्वयं को गर्वित महसूस करने के स्थान पर तुम तो अपने को सबसे बदनसीब मानती थीं. विधाता से सदा शिकायत थी तुम्हें कि उसने तुम्हें पुत्र-सुख से वंचित रखकर तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है.
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फिर पता नहीं कैसे तुम्हारी कोख में मेरा अवतरण हो गया. जब तुम्हें मेरी उपस्थिति का एहसास हुआ तो तुम तनूजा के पास दौड़ीं. दोनों मिलकर डॉक्टर के पास गयीं और भ्रूण परीक्षण के बाद जब डॉक्टर ने कहा, “बधाई हो, इस बार आपकी मुराद पूरी हो गयी, शिशु लड़का है.” तो मारे ख़ुशी के तुम रो पड़ी थीं. संयत होने पर दोबारा पूछा था तुमने- “डॉक्टर साहब, ठीक से देखा न आपने. लड़का ही है न?” डॉक्टर मुस्कुरा दिया था. उसकी स्वीकृति पर तुम तनूजा के गले से लिपट गई थीं. कंठ अवरुद्ध हो गया था, कुछ बोल नहीं पा रही थीं. लगभग बीस वर्षों की तुम्हारी लालसा, अभिलाषा पूर्ण होने जा रही थी. पलभर में ही तुम्हारी विधाता से की गई तमाम शिकायतें आभार में परिवर्तित हो गई थीं. तनूजा ने भी बधाई देते हुए तुम्हारी पीठ थपथपाई थी.
मां, तुम्हारे संबंधियों, रिश्तेदारों में ऐसे बेटों की कमी नहीं रही, जिन्होंने मां-बाप की बुढ़ापे की लाठी बनने के स्थान पर उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया. उनकी संपत्ति जबरन हथिया ली, उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर किया, उनसे संबंध तोड़ लिए. एक के बेटे ने तो संपत्ति के लिए बाप की हत्या ही कर डाली. क्या तुम यह सब नहीं जानतीं?
नरेंद्र कौर छाबड़ा