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कहानी- स्पर्श की भाषा… २ (Story Series- Sparsh Ki Bhasha… 2)

आज उसने पहला कौर अपने हाथ से मिष्टी को खिलाया, तो नौ वर्षीय मिष्टी के चेहरे पर प्रसन्नता के अनगिनत रंग छलक पड़े. रेवती को वे रंग बड़े भले लगे. जब से मिष्टी अपने हाथ से खाना सीख गई थी, तब से रेवती ने कभी उसे अपने हाथ से नहीं खिलाया था. हमेशा सोचती थी कि अब वह बड़ी हो गई है, अपने हाथ से खा लेती है. बच्चे के पोषण के लिए उसे तब तक खिलाना मां का दायित्व होता है, जब तक कि वह स्वयं अपने आप खाना नहीं सीख जाता. लेकिन दायित्व से भी अधिक महत्वपूर्ण स्नेह होता है, ममत्व होता है. एक कौर अपने हाथ से खिलाने से ही मिष्टी के चेहरे पर छाई ख़ुशी रेवती को इस बात का एहसास करा रही थी.
स्पर्श रिश्ते को अटूट बंधन में बांधता है, उसे प्रगाढ़ बनाता है. फिर मां और बच्चे के बीच तो स्पर्श का एक विशिष्ट बंधन होता है. बच्चा तो आकार ही मां की कोख के स्पर्श में लेता है. संसार में वह अपनी मां को सर्वप्रथम स्पर्श से ही तो पहचानता है. मां की गोद उसे संसार का सबसे सुरक्षित स्थान लगती है. बच्चा तब तक रोता रहता है, जब तक मां उसे गोद में उठा न ले. मां का स्पर्श पाकर, उसके गले लग कर ही वह पूर्णतः आश्वस्त होता है. दूर से मां चाहे जितना पुचकार ले, स्नेह भरे बोल बोल ले, लेकिन जब तक मां गोद नहीं लेती, गले नहीं लगाती बच्चा चुप कहां होता है.
रेवती को याद है बचपन में जब वह गिर जाती थी या उसे चोट लग जाती थी, तब मां चोट को सहला देती या आंचल से उस पर फाहा रख देती थी, तब तुरंत ही उसका दर्द गायब हो जाता था. कैसी जादुई औषधि होता है मां का स्पर्श, जो संतान की सारी पीड़ा हर लेता है. चाहे खरोंच लगी हो, चाहे आंख में किरकिरी पड़ी हो, मां का हाथ लगते ही सारा दर्द छू हो जाता था. बढ़ती उम्र भी क्या वही आश्वासन चाहती है, जो बचपन चाहता है, स्पर्श का आश्वासन.
तीन बजे मिष्टी की आवाज़ सुनकर उसकी तंद्रा भंग हुई. वह दरवाज़े पर खड़ी थी.
“मां दरवाज़ा खोलो ना.”
रेवती ने उठकर दरवाज़ा खोला, मिष्टी का बैग संभाला. जब तक मिष्टी ने जूते-मोजे उतारकर कपड़े बदले, तब तक उसने खाना गर्म करके दो थालियां परोस दी.
“आज दो थालियां, तुमने खाना नहीं खाया मां?” मिष्टी ने पूछा, “क्यों नहीं खाया आज, रोज़ तो खा लेती हो.”
“बस ऐसे ही आज मन किया अपनी बिटिया के साथ खाने का.” रेवती बोली.
आज उसने पहला कौर अपने हाथ से मिष्टी को खिलाया, तो नौ वर्षीय मिष्टी के चेहरे पर प्रसन्नता के अनगिनत रंग छलक पड़े. रेवती को वे रंग बड़े भले लगे. जब से मिष्टी अपने हाथ से खाना सीख गई थी, तब से रेवती ने कभी उसे अपने हाथ से नहीं खिलाया था. हमेशा सोचती थी कि अब वह बड़ी हो गई है, अपने हाथ से खा लेती है. बच्चे के पोषण के लिए उसे तब तक खिलाना मां का दायित्व होता है, जब तक कि वह स्वयं अपने आप खाना नहीं सीख जाता.
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लेकिन दायित्व से भी अधिक महत्वपूर्ण स्नेह होता है, ममत्व होता है. एक कौर अपने हाथ से खिलाने से ही मिष्टी के चेहरे पर छाई ख़ुशी रेवती को इस बात का एहसास करा रही थी. इन छोटी-छोटी बातों में स्नेह की अपार सांत्वना छुपी होती है, वह तो भूल ही गई थी.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें
डॉ. विनीता राहुरीकर
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