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कहानी- स्वप्न 1 (Story Series- Swapan 1) 

अतीत के परदे हटाते-हटाते अनायास ही मेरा मन अपने स्कूल दिनों तक पहुंचकर थम गया. आंखों के सम्मुख एक मोहक व्यक्तित्व आ खड़ा हुआ- मृदुला मैडम. दुनिया में मां के बाद यदि किसी और नारी ने मेरे दिल को छुआ था, तो वे मृदुला मैडम थीं. नाम राशि के अनुरूप ही बेहद मृदु और सौम्य. मुझ पर उनका विशेष अनुग्रह था. यह कहूं कि उनकी तारीफ़ों ने ही मुझे ख़ुद पर इठलाना सिखा दिया था, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. हर वक़्त ‘मेरी प्रिय शिष्या’ ‘बहुत अच्छी बेटी’ जैसे विशेषण मेरे लिए प्रयुक्त कर उन्होंने मेरे दिल में बेहद विशिष्ट स्थान बना लिया था. 

 

      साक्षात्कार के लिए खचाखच भरा हॉल धीरे-धीरे खाली होने के कगार तक आ पहुंचा था. मुझे मिलाकर कुल पांच ही उम्मीदवार शेष रह गए थे. उम्मीदवारों की घटती संख्या के साथ-साथ मेरे दिल की धड़कनें बढ़ती ही जा रही थीं. मुझे हर हाल में यह नौकरी चाहिए थी. मां की गिरती हालत देखते हुए मैं उन्हें और काम नहीं करने देना चाहती थी. कई बार उनसे नौकरी छोड़ने का आग्रह भी कर चुकी थी, पर मां हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाती थी. मेरे आग्रह की सीमा शायद वह कटु सत्य था, जो मैं मां के मुंह से उगलवाना चाहती थी कि जब तक मुझे नौकरी न मिल जाए उनका नौकरी पर जाना मजबूरी है. इधर-उधर बेचैनी से भटकती मेरी आंखें रिसेप्शन के पास खड़े एक युवक पर जाकर टिक गईं. काफ़ी पहचाना-सा चेहरा लग रहा था. कुछ देर गौर से देखने के साथ ही मेरे मस्तिष्क में बिजली कौंधी, ‘अरे, यह तो प्रणव है. मृदुला मैडम का बेटा.’ फोन पर बात करते-करते उस युवक की खोजी निगाहें भी मुझ पर आकर जम गई थीं. उसकी आंखों में पहचान के चिह्न उभरते देखकर मैं सकपका गई और तुरंत अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया. दिल की धड़कनें और विचारों का घोड़ा बेकाबू गति से भागे जा रहे थे.  प्रणव यहां क्या कर रहा है?.. अरे बेवकूफ़, वही जो तू कर रही है. साक्षात्कार के लिए अपनी बारी का इंतज़ार... उफ़! यह यहां भी मेरा प्रतिस्पर्धी बनकर आ गया. अंदर से उभरते एक के बाद एक स्वर मेरे उत्साह के गुब्बारे में पिन चुभोते जा रहे थे. मैं ख़ुद को बेहद निस्सहाय महसूस करने लगी थी. उत्साह और उम्मीदों से लबरेज मन डूबने-उतराने लगा था. मैं नहीं चाहती थी साक्षात्कार के पूर्व उससे आमना-सामना हो ओैर मुझे उससे बात करनी पड़ जाए, क्योंकि मैंने सुन रखा था कि साक्षात्कार से पूर्व अन्य अभ्यर्थियों से ज्यादा बातचीत करने से व्यक्ति अपनी एकाग्रता और आत्मविश्वास खो बैठता है. और अभ्यर्थी भी यदि प्रणव जैसा टक्कर वाला प्रतिभाशाली और आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी हो, तो मानसिक संतुलन गड़बड़ाना लाज़मी है. नहीं, नहीं... यहां तक पहुंचकर अब मैं पिछली बार की तरह अपने कदम पीछे नहीं हटाऊंगी. अतीत के परदे हटाते-हटाते अनायास ही मेरा मन अपने स्कूल दिनों तक पहुंचकर थम गया. आंखों के सम्मुख एक मोहक व्यक्तित्व आ खड़ा हुआ- मृदुला मैडम. दुनिया में मां के बाद यदि किसी और नारी ने मेरे दिल को छुआ था, तो वे मृदुला मैडम थीं. नाम राशि के अनुरूप ही बेहद मृदु और सौम्य. मुझ पर उनका विशेष अनुग्रह था. यह कहूं कि उनकी तारीफ़ों ने ही मुझे ख़ुद पर इठलाना सिखा दिया था, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. हर वक़्त ‘मेरी प्रिय शिष्या’ ‘बहुत अच्छी बेटी’ जैसे विशेषण मेरे लिए प्रयुक्त कर उन्होंने मेरे दिल में बेहद विशिष्ट स्थान बना लिया था.    

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  पापा की स्थानान्तरण वाली नौकरी के कारण मैं उस विद्यालय में नई-नई ही थी. स्कूली शिक्षा का यह अंतिम वर्ष था. मृदुला मैडम की तारीफ़ों की वजह से मेरी आंखों में स्कूल टॉपर बनने का सपना सजने लगा था. खेलकूद जैसी गतिविधियों को परे रख मैंने अपने आपको पूरी तरह पढ़ाई में डुबो डाला था. अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मेरे बहुत अच्छे नंबर आए थे. ऐसे ही खेलकूद के एक कालांश में मैं मैदान में अकेली एक कोने में पुस्तक में नज़रें गड़ाए तल्लीन बैठी थी कि मेरी ख़ास सहेली पूर्वी ने आकर मेरी किताबें खींचकर एक ओर पटक दी और खेलने चलने का आग्रह करने लगी. मेरे बार बार के इंकार से वह बुरी तरह झुंझला उठी.  "तू क्या सोचती है इस तरह किताबों में आंखें गड़ाकर तू स्कूल टॉप कर लेगी? अरे, कुछ भी कर ले, टॉप  प्रणव ही करेगा.  मेरी आंखों में प्रश्नवाचक चिह्न उभरता देख वह आगे बोली, "मृदुला मैडम का बेटा है प्रणव. तेरे जैसा ही टक्कर का मेधावी लड़का है.  "कौन?" 

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  [caption id="attachment_182852" align="alignnone" width="246"]Sangeeta Mathur संगीता माथुर [/caption]    

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