“बेटे अपने फ़र्ज़ से विमुख हो जाएं, तो क्या किया जाए? माता-पिता को यूं ही छोड़ दिया जाए, बेसहारा तिल-तिल मरने को? तुम जानते हो, भाभी मम्मी को साथ रखना नहीं चाहती और भैया की उनके आगे चलती नहीं.”“अनु, तुम एक बार मम्मी को अपने साथ ले आई, तो फिर भैया मम्मी की ओर से बिल्कुल बेपरवाह हो जाएंगे.”“राजीव, तुम्हें क्या भैया-भाभी का एटीट्यूड दिखाई नहीं दे रहा? इतने दिनों से मम्मी बीमार हैं, पर उन्होंने मम्मी को देखने आना भीआवश्यक नहीं समझा. एक-दो बार बस फोन कर औपचारिकता निभा दी.”
पिछली दोनों एनीवर्सरी यूं ही गुज़र गई थी, उदास और ख़ामोश. परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थीं कि कुछ करने का दिल ही नहीं किया. और अब आनेवाली थी, हमारी तीसरी मैरिज एनीवर्सरी, जिसमें अपने सभी अरमान हम पूरे करना चाहते थे. लेकिन इस बार भी नियति को शायद ये मंज़ूर नहीं था, तभी तो एनीवर्सरी से पंद्रह दिन पूर्व हम दोनों के बीच झगड़ा हो गया और अनु नाराज़ होकर अपने मायके चली गई.
झगड़े की वजह बेहद संजीदा थी. पिछले माह अनु की मम्मी को हार्ट अटैक हुआ था. कुछ दिनों तक हम उनकी देखभाल करते रहे. जब तबीयत कुछ सम्भली, तो मैं अनु को लेकर घर आ गया, पर घर आकर वह सहज नहीं रह पा रही थी. उसे हर पल मम्मी की चिंता सताती रहती थी. उसके पापा का कुछ वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो चुका था. एक बड़ा भाई व भाभी थे, जो विदेश में सैटल्ड थे. अनु अपनी मम्मी को अब अपने साथ रखना चाहती थी. किंतु इस सन्दर्भ में मेरी अवधारणा बिल्कुल स्पष्ट है. मेरा मानना है कि माता-पिता की देखभाल करने का फ़र्ज़ बेटे का होता है, न कि बेटी और दामाद का.
उस दिन भी हम दोनों में बहस छिड़ गई थी. अनु बोली थी, “बेटे अपने फ़र्ज़ से विमुख हो जाएं, तो क्या किया जाए? माता-पिता को यूं ही छोड़ दिया जाए, बेसहारा तिल-तिल मरने को? तुम जानते हो, भाभी मम्मी को साथ रखना नहीं चाहती और भैया की उनके आगे चलती नहीं.”
“अनु, तुम एक बार मम्मी को अपने साथ ले आई, तो फिर भैया मम्मी की ओर से बिल्कुल बेपरवाह हो जाएंगे.”
“राजीव, तुम्हें क्या भैया-भाभी का एटीट्यूड दिखाई नहीं दे रहा? इतने दिनों से मम्मी बीमार हैं, पर उन्होंने मम्मी को देखने आना भी
आवश्यक नहीं समझा. एक-दो बार बस फोन कर औपचारिकता निभा दी.”
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया. उसने प्रतीक्षा की. आख़िरकार एक दिन उसके सब्र का पैमाना छलक गया और वह बोली, “राजीव, तुम्हारे भी दो बड़े भाई हैं, लेकिन मैंने विवाह के बाद तुमसे कभी नहीं कहा कि मम्मी-पापा का दायित्व अकेले मैं ही क्यों उठाऊं? तुम्हारे भाइयों का भी फ़र्ज़ है कि मम्मी-पापा को अपने पास बुलाएं. मैंने पूरे मन से अपने सास-ससुर की सेवा की, तो क्या अब अपनी मम्मी के प्रति अपने फ़र्ज़ से मैं पीछे हट जाऊं?”
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उसका इस तरह अपनी मम्मी से अपने सास-ससुर की तुलना करना मुझे बेहद नागवार गुज़रा और ग़ुस्से में मैंने उससे कह दिया कि उसे अपनी मम्मी की इतनी ही चिंता है, तो वह अपने घर जाकर उनकी देखभाल करे. अनु कुछ पल कातर दृष्टि से मुझे देखती रही और अगली सुबह सचमुच अटैची लेकर चली गई.
उसका चले जाना मेरे पुरुषोचित अहम् को छिन्न-भिन्न कर गया था. मुझे लगा, क्या यही है उसकी नज़र में मेरे प्यार का मोल? मैं उससे ख़फ़ा था, बेहद ख़फ़ा. दिन गुज़रने लगे. इस दरमियान न अनु का फोन आया और न ही मैंने उससे संपर्क करने का कोई प्रयास किया. किंतु वक़्त एक अजीब शै है. ज्यों-ज्यों गुज़रता है, बड़ी से बड़ी घटना की चुभन भी कम होने लगती है.
मैरिज एनीवर्सरी की तारी़ख़ नज़दीक आ रही थी और इसी के साथ मन की बेचैनी बढ़ रही थी. क्या इस बार भी यह दिन मायूस-सा लौट जाएगा? क्या मुझे अनु को मनाकर वापस ले आना चाहिए? किंतु उसकी वह बेवजह की ज़िद...
उस दिन रविवार था.
सुबह-सवेरे ही आंख खुल गई और फिर चाहकर भी मैं सो न सका. अकेलापन ज़िंदगी के हर पहलू पर असर डालता है, फिर वह नींद ही क्यों न हो. चाय ले मैं लॉन में आ बैठा, तभी मेरी नज़र सामनेवाले घर की ओर उठी. बालकनी में गुप्ताजी बैठे नज़र आए. इसका मतलब वह नर्सिंग होम से वापस लौट आए थे.
आठ दिन पूर्व एक शाम गुप्ताजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी. उनकी कार उस दिन गैराज में थी, इसलिए उनका बेटा अंकित
बदहवास-सा मुझे बुलाने आया था और फिर हम दोनों उन्हें नर्सिंग होम ले गए थे. शिष्टाचारवश मैं उनका हाल जानने उनके घर की ओर चल पड़ा.
मुझे आया देख वे लोग बहुत ख़ुश हुए. अंकित उन्हें गर्म दलिया खिला रहा था. मैंने कहा, “गुप्ताजी, आप बहुत ख़ुशक़िस्मत हैं. आपके बेटा-बहू आपकी बहुत सेवा करते हैं.” गुप्ताजी मुस्कुराए और बोले, “अंकित मेरा बेटा नहीं, दामाद है और श्रुति मेरी बेटी.” मैं अचंभित रह गया. जब चलने को हुआ, तो अंकित और श्रुति ने आग्रहपूर्वक नाश्ते के लिए रोक लिया. श्रुति चाय बनाने किचन में गई. मैं और अंकित ड्रॉइंगरूम में बैठे थे.
रेनू मंडल
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