“अम्मा, आपने ये कैसी बात कह दी? मुन्ना मुझे जान से प्यारा है. इस उम्र में तुम्हें उसे पालने की ज़िम्मेदारी देकर मैं किसी कुंवारी लड़की से विवाह करके विदेश चला जाऊंगा? आपने मुझे इतना स्वार्थी व असंवेदनशील कैसे समझ लिया? मैं ऐसी लड़की से विवाह करूंगा, जो मुन्ने की ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार हो और आप भी अच्छी तरह से जानती हो कि कोई कुंवारी लड़की विवाह की पहली रात को ही मां का दायित्व संभालना पसंद नहीं करेगी... और जबरन किसी लड़की से ब्याहकर उसके ज़ज़्बातों से खेलना और उस पर अपने बच्चे का बोझ लादना नहीं चाहता मैं.”
आज नीति का विदाई समारोह था. छोटा भाई पार्थ अपने कमरे में बैठा जार-जार रो रहा था. सुशील की आंखें भी गीली थीं, पर रचना एकदम शांत, संतुष्ट-सी दिखाई दे रही थी. वो पार्थ की पीठ को सहलाते हुए उसे सांत्वना दे रही थी, “अरे मेरा बहादुर बेटा, लड़कियों की तरह क्यों रो रहा है? दीदी की शादी हो गयी तो क्या हुआ? इसी शहर में उसका ससुराल है, आती-जाती रहेगी.” अठारह वर्षीय पार्थ छोटे बच्चे-सा लिपट गया, “मां, मैं दीदी के बिना कैसे रहूंगा?” तभी दामाद संजय ने मुस्कुराते हुए उससे बड़े प्यार से कहा, “साले साहब, आप भी हमारे साथ चलो. हमारे साथ ही रहना. उधर तुम्हारी दीदी ‘पार्थ-पार्थ’ कहकर बिलख रही है और इधर तुम ‘दीदी-दीदी’ करके रो रहे हो. भाई, हमें तो लग रहा है कि हम खामखां आप दोनों भाई-बहन के बीच विलेन बन बैठे हैं.” संजय की बात सुनकर सभी के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई. विदाई की बेला सहज हो उठी थी. फिर से सभी हंसी-मज़ाक करने लगे. लेकिन मेरा मन आत्मग्लानि से भर उठा था. एक औरत होकर दूसरी औरत की भावनाओं, उसकी अच्छाइयों को जान-बूझकर न समझने का पश्चाताप मुझे काफ़ी समय से साल रहा था. मैं सोच रही थी कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? क्यों एक-दूसरे के प्रति इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठती हैं? विगत की परछाइयां मुझे फिर से घेरने लगी थीं. मेरे देवर के लड़के रचित ने माता-पिता के विरोध के बावजूद साधारण परिवार की लड़की रचना से विवाह करने का फैसला किया था. इकलौते बेटे की ज़िद के आगे देवरानी निशि झुक तो गयी थीं, परंतु रचना को बहू का सम्मान नहीं दे पायी थीं. विवाह के सालभर बाद ही रचना ने फूल-सी बच्ची नीति को जन्म दिया था, लेकिन पोता न होने के मलाल ने देवरानी को नीति से भी मोह नहीं होने दिया. रचना ने हिम्मत नहीं हारी थी. वो एक सुशील व सुघड़ गृहिणी का कर्त्तव्य भली-भांति निभा रही थी. बच्ची के पालन-पोषण के साथ-साथ सास-ससुर, पति तथा जब-तब वहां डेरा जमानेवाली अपनी विवाहिता ननद वीना का भी वो पूरा ख़याल रखती थी. अपनी मां व बहन के रचना व बच्ची के प्रति रूखे व अपमानित व्यवहार से व्यथित रचित अक्सर मेरे यानी अपनी बड़ी मां के पास आकर जी हल्का करता था. मैं भी उसे सांत्वना देने के सिवाय कर ही क्या सकती थी कि धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा. लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था. विवाह के दो वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे कि रचित की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई. रचना पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा. इकलौते बेटे के ग़म ने निशि को और भी उग्र बना दिया था. उसका कहना था कि अगर रचित ने रचना से विवाह न किया होता तो वो इस तरह अकाल मौत न मरता. अपनी पोती नीति को भी उसने मनहूस की उपाधि दे डाली, जिसने पैदा होते ही अपने पिता को खा लिया. इतने आरोपों के बावजूद रचना ने सास-ननद की मनःस्थिति समझते हुए सास-ससुर की सेवा करके वहीं रहने का दृढ़ निश्चय किया था, लेकिन निशि और वीना ने उसके इस त्याग को भी जायदाद हड़पने का षड्यंत्र समझा और उसे जबरन मासूम बच्ची के साथ धक्के मारकर घर से निकाल दिया. रचना के पिता ने दौड़-धूप करके रचित के रिक्त स्थान पर रचना को नौकरी दिलवा दी थी. रचना का पीहर मेरे घर के पास ही था, अतः उसकी खैर-ख़बर मिलती रहती. उस समय मेरे दोनों ब्याहता बेटे मुझसे दूर रहते थे. बड़ा बेटा सुशील व बहू महिमा इंग्लैंड में रहते थे. विवाह के आठ वर्ष होने को आए थे, लेकिन उनके कोई बच्चा नहीं था. छोटा बेटा सुनील व छोटी बहू प्रिया बैंगलोर में रहते थे. उनके दो बच्चे थे. समय निकलता जा रहा था तभी एक दिन बड़े बेटे ने फ़ोन से बहू के गर्भवती होने की ख़बर सुनाई. मैंने तुरंत उसे ढेर सारी हिदायतें दे डालीं, साथ ही तुरंत बहू को घर भेजने का आदेश दे डाला. छठे महीने से बड़ी बहू महिमा मेरे पास आ गई. उसे डॉक्टर ने बेड रेस्ट करने को कहा था, सो मैंने रचना को कहलवा दिया कि कभी-कभी आकर मेरी मदद कर जाया करे. रचना अपनी तीन साल की बिटिया को लेकर अक्सर मेरे यहां आ जाती. महिमा से उसकी अच्छी-खासी मित्रता हो गई थी. उसको जो खाने की इच्छा होती, बेझिझक रचना से कहकर बनवा लेती. कुछ समय बाद महिमा ने एक गोल-मटोल बेटे को जन्म दिया. बच्चा ऑपरेशन से हुआ था. ऐसे समय रचना ने मेरी बहुत मदद की. एक महीने की छुट्टी लेकर सारा घर संभाल लिया था. मेरे दिल से उसके लिए ढेरों आशीष निकलते. अक्सर मैं महिमा और सुशील से रचना की तारीफ़ करती और इतनी सुघड़ व सुशील बहू की बेक़द्री के लिए देवरानी निशि को बुरा-भला कहती. छह महीने का गोल-मटोल पार्थ रचना की बेटी नीति के साथ हिल-मिल गया था. उसे देखते ही ख़ुशी से किलकारियां मारने लगता. तभी महिमा पार्थ को विदेश ले जाने की तैयारियां करने लगी. सारा सामान क़रीब-क़रीब बंध चुका था कि अचानक महिमा को तेज़ बुखार हो गया और दो दिन के तेज़ ज्वर में ही महिमा इस दुनिया को छोड़ गई. सारा घर स्तब्ध रह गया. सुशील उल्टे पांव विदेश से लौट आया. छोटा बेटा भी अपने परिवार सहित पहुंच गया. मेरे आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. बेटे और पोते को देखकर कलेजा मुंह को आने लगता. विवाह के इतने सालों बाद बेटे को मिली ख़ुशी को न जाने किसकी नज़र लग गई थी. सुशील इतने बड़े सदमे से एकदम गुमसुम हो गया था. मेरे पैरों की भी सारी ताक़त जैसे किसी ने छीन ली थी. उठना-बैठना दुश्वार हो गया था. छोटे बेटा-बहू तो ग्यारहवें के बाद बैंगलोर चले गए. ऐसे में एक बार फिर रचना ने इस घर को सहारा दिया था. रचित का मुझसे अथाह प्रेम था. उसी की वजह से रचना भी मेरी इ़ज़्ज़त करती थी, वरना आज के इस कलयुग में जहां सगे रिश्ते-नाते साथ छोड़ देते हैं, वहां एक पराई लड़की से अपनापन व मान की आशा कैसे कर सकते हैं? दबी ज़ुबान से सभी रिश्तेदार सुशील को दूसरा विवाह करने की सलाह देने लगे. सुशील विदेश में कार्यरत इंजीनियर है, सुनकर ही कुछ रिश्ते भी आने लगे थे. लेकिन सुशील ने किसी भी लड़की को देखने से इंकार कर दिया. वह मन ही मन क्या खिचड़ी पका रहा था, मैं इस बात से बेख़बर थी. आख़िर एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया, “बेटा ऐसे कब तक चलेगा? मुन्ने को तो मैं महरी रखकर किसी तरह पाल लूंगी, पर तेरे सामने तो पूरा जीवन पड़ा है.” इतने दिनों से भरा बैठा सुशील फट पड़ा, “अम्मा, आपने ये कैसी बात कह दी? मुन्ना मुझे जान से प्यारा है. इस उम्र में तुम्हें उसे पालने की ज़िम्मेदारी देकर मैं किसी कुंवारी लड़की से विवाह करके विदेश चला जाऊंगा? आपने मुझे इतना स्वार्थी व असंवेदनशील कैसे समझ लिया? मैं ऐसी लड़की से विवाह करूंगा, जो मुन्ने की ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार हो और आप भी अच्छी तरह से जानती हो कि कोई कुंवारी लड़की विवाह की पहली रात को ही मां का दायित्व संभालना पसंद नहीं करेगी... और जबरन किसी लड़की से ब्याहकर उसके ज़ज़्बातों से खेलना और उस पर अपने बच्चे का बोझ लादना नहीं चाहता मैं, इसलिए मैं अगर विवाह करूंगा तो किसी ऐसी विधवा या तलाक़शुदा औरत से करूंगा, जिसका अपना भी कोई बच्चा हो.” मैं जैसे आसमान से नीचे गिर पड़ी थी, “क्या कह रहा है? दुनिया में कुंवारी लड़कियों का अकाल पड़ गया है, जो तुझे विधवा, वो भी बच्चेवाली औरत से विवाह करना पड़ेगा? अरे जिसके अपना बच्चा होगा, वो भला तेरे बच्चे से प्यार क्यों करेगी? तू विदेश में अच्छी नौकरी कर रहा है और फिर हम बिना दहेज के शादी करेंगे, लाइन लग जाएगी लड़कीवालों की...” मेरी बात बीच में ही काटते हुए उसने अपना निर्णय सुना दिया था, “नहीं मां, अब मैं विदेश में नहीं, यहीं रहूंगा. महिमा की याद के साथ मुझसे वहां नहीं रहा जाएगा.” मैं झुंझलायी, “ठीक है, तू विदेश न जा. यहीं नौकरी कर ले, पर विवाह के संबंध में इतनी जल्दबाज़ी मत कर.” पार्थ के लिए महरी का इंतज़ाम कर लिया था, फिर भी छोटे बच्चे को संभालना बड़ा मुश्किल काम था. पार्थ एक साल का हो गया था. रचना अक्सर उसको देखने आ जाती थी. नीति तो रोज़ ही उससे खेलने आती थी. दिन किसी तरह कट रहे थे. एक दिन अचानक देवरानी निशि अपनी बेटी वीना के साथ मुझसे मिलने आयी. दोपहर का समय था. घर में कोई नहीं था. निशि ने मुझे सावधान-सा करते हुए कहा, “जेठानीजी, मैं जानती हूं कि आप मुझे कसूरवार समझती हैं और रचना को बेकसूर, लेकिन जिसने असमय ही अपना इकलौता बेटा खो दिया हो, उसका दुख आप नहीं समझ सकतीं. मैं आपको सावधान करने आयी हूं. इस रचना नाम की चिंगारी को अपने घर में आग मत लगाने दो. मेरा तो घर उजड़ गया, अपना बचा लो.” मैंने हैरानी से उसे देखा तो वो पुनः बोली, “आप अब भी नहीं समझीं. ये अच्छी बनकर आपके बेटे की गृहस्थी में घुसने की कोशिश कर रही है. मैंने तो अपना बेटा खो दिया, आप तो अपना संभालकर रखो.” निशि की बात समझते ही मैं ठगी-सी रह गयी. मेरे तन-मन में आग-सी लग गई. सुंदर, सुघड़ व सुशील रचना व उसकी सलीकेदार बेटी नीति मुझे मनहूस नज़र आने लगे. ये तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था. लेकिन अब रचना का समय-समय पर मेरा घर संभालना व सेवा करना उसकी योजनाबद्ध चाल-सी नज़र आने लगी थी मुझे. ओह! कहीं मेरा बेटा उसके चंगुल में न पड़ जाए, कहीं उसे कुछ हो गया तो. हां, निशि सही कह रही है. रचित को तो खो चुके, अब कहीं सुशील... सोचकर ही मेरे सारे शरीर में झुरझुरी पैदा हो गई. निशि तो चली गई, लेकिन मेरे सोचने-समझने की शक्ति कुंद कर गई. अब रचना के आने पर मैं घर का या पार्थ का कोई भी कार्य उससे नहीं करवाती, बल्कि उसके आने पर खेलते हुए पार्थ को भी ज़बरदस्ती सुलाने के बहाने अंदर ले जाती. एक दिन तो मैंने रचना से कह ही दिया, “यूं रोज़-रोज़ तकलीफ़ मत उठाया करो. जब ज़रूरत होगी तो तुम्हें बुलवा लूंगी.” मेरी बात सुनकर रचना बुझ-सी गई थी. उसके बाद वो कुछ दिन नहीं आयी. मैं मन ही मन ख़ुश थी कि चलो बला टली, लेकिन एक शाम सुशील के साथ रचना व नीति को आया देख मैं हैरान हो उठी. मेरी चढ़ी भौंहें देखकर रचना सहम-सी गई. किंतु सुशील इन सबसे बेख़बर अपनी रौ में बोलता जा रहा था, “देखो तो मां रचना को, एक तो इतने दिनों से आयी नहीं, उस पर नीति को भी नहीं भेज रही थी. मैं ज़बरदस्ती पकड़कर लाया हूं. क्यों मां, अच्छा किया ना मैंने? पार्थ भी नीति को कितना याद करता है, अकेला पड़ जाता है इसके बिना.” मेरा माथा ठनक गया. देवरानी निशि बिल्कुल ठीक कह रही थी. इस रचना नाम की जादूगरनी ने मेरे बेटे पर भी अपना जादू चला दिया है. इसकी हिम्मत तो देखो, सुशील का सहारा लेकर मेरे घर में फिर से घुस आई. मुझे चुप देखकर सुशील चिंतित हो उठा, “मां तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना.” फिर रचना की तरफ़ देखता हुआ अपनत्व भरे अधिकार से बोला, “भई खड़ी-खड़ी मुंह क्या देख रही हो? जाओ, सबके लिए अदरकवाली चाय बना लाओ.” रचना सिर झुकाए रसोई में चली गई. नन्हा पार्थ किलकारियां मारता हुआ नीति के साथ खेल रहा था. सुशील मुग्ध भाव से दोनों को खेलते हुए देख रहा था. लेकिन मुझे न जाने क्या हो गया था. रचना द्वारा बनाई गई चाय मुझे ज़हर के समान लग रही थी. मैंने चाय पीने से मना कर दिया व ‘तबियत ठीक नहीं है’ कहकर कमरे में चली गई. उस रात सुशील और मेरी खुलकर बात हुई. सुशील रचना से विवाह करना चाहता था. मैंने उसे काफ़ी समझाया. ये भी कहा कि उसकी अपनी लड़की है, वो भला तुम्हारे बच्चे से ममत्व कैसे रख पाएगी, लेकिन सुशील मेरी बातें सुनकर परेशान व हैरान हो उठा था, “मां तुम ही तो हर समय रचना की तारीफ़ों के पुल बांधा करती थीं, निशि चाची को उनके ग़लत व्यवहार के लिए सदा दोषी ठहराती रही हो, फिर अब स्वयं कैसे निशि चाची की तरह सोचने लगी हो?” फिर मुझे समझाता-मनाता-सा बोला, “जब पार्थ पैदा हुआ था तब भी रचना ने महिमा, तुम्हें व उसे अच्छी तरह से संभाल रखा था. महिमा भी उससे छोटी बहन-सा स्नेह रखती थी. अब भी रचना कितनी अच्छी तरह घर व बच्ची को संभाल रही है. साथ ही बैंक में नौकरी भी कर रही है. तुम्हारा व बाबूजी का भी कितना ख़याल रखती है.” सुशील के समझाने का मुझ पर विपरीत असर हो रहा था. सुशील जितनी रचना की खूबियां गिनवा रहा था, रचना मुझे उतनी ही चालाक व कूटनी लग रही थी. थककर दोनों हाथ सिर से लगा ‘तेरी जैसी मर्ज़ी’ कहकर मैंने गेंद सुशील के पाले में फेंक दी. एक सादे समारोह में सुशील व रचना का विवाह हो गया. देवरानी निशि की व्यंग्य से बेधती निगाहें मैं सहन नहीं कर पा रही थी. इसी बीच मन को कठोर कर मैंने अत्यंत अहम् फैसला ले लिया और अपने छोटे बेटे-बहू के साथ बैंगलोर में रहने का निर्णय सबको सुना दिया. सुशील ने नन्हें पार्थ का वास्ता देकर मुझे रोकने की भरसक कोशिश की, लेकिन न जाने मैंने कैसे कह दिया, “जब उसे एक अच्छी मां मिल गई है तो मेरी यहां क्या ज़रूरत है?” सुशील के बाबूजी घर व पार्थ को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे, पर मेरी ज़िद के आगे उनकी एक न चली. व़क़्त गुज़रता गया. सुशील के बाबूजी भी मुझे छोड़कर चले गए. तब रचना व सुशील ने मुझसे साथ चलने को कहा, लेकिन अपने निर्णय पर अडिग मैं छोटे बेटे के पास ही रही. हालांकि छोटी बहू की ज़ुबान कतरनी की तरह चलती थी, पर ना जाने मुझमें बरदाश्त करने की ग़जब की शक्ति कैसे पैदा हो गई थी? चुपचाप सब सुनती रहती. उसके दोनों बच्चे पूर्वी व अक्षत भी हरदम आपस में लड़ते रहते थे. कभी-कभी तो मुझे हैरानी होती थी कि सगे बहन-भाई भी इतना लड़-झगड़ सकते हैं. नीति की विदाई पर पार्थ को बुक्का फाड़कर रोते देख पूर्वी ने भाई अक्षत से कहा, “देख, एक ये भाई है, जो बहन से इतना प्यार करता है और एक तू है- जो हरदम लड़ने को तैयार रहता है.” अक्षय व्यंग्य से मुंह टेढ़ा करता हुआ बोला, “अरे बिलौटी, उसकी बहन भी तो कितनी स्नेहिल है. कितना प्यार करती है छोटे भाई से. तेरी जैसी कटखनी बिल्ली थोड़े ही है.” छोटी बहू चीख-चीखकर दोनों से चुप रहने को कह रही थी. मैं सोच रही थी कितना फ़र्क़ है दोनों बहुओं में. छोटी बहू के बच्चों में आपस में सात साल का अंतर था, फिर भी अक्षत बड़ी बहन को अपशब्दों से संबोधित करता है. जबकि नीति पार्थ से चार साल ही बड़ी है, लेकिन पार्थ उसे ‘दीदी’ कहकर सम्मान से बुलाता है और नीति भी उससे अत्यधिक स्नेह रखती है. रचना ने दोनों बच्चों को कितने अच्छे संस्कार दिए हैं. कोई कह नहीं सकता कि दोनों बच्चे एक ही मां की संतान नहीं हैं. रचना का पार्थ के प्रति प्रेम और सुशील का नीति के प्रति गहरा अपनापन देख मेरी आंखें सजल हो उठी थीं. मेरी सोच कितनी ग़लत, कितनी दूषित साबित हुई थी कि बच्चेवाली विधवा स्त्री पति के बच्चों को प्यार व स्नेह नहीं दे सकती. मैंने ये क्यों नहीं सोचा कि जिस नारी के अपने बच्चे पिता के प्यार व स्नेह से वंचित होंगे, वो बिन मां के बच्चों का दर्द और अच्छी तरह समझेगी. एक मां ही बिन मां के बच्चे को प्यार व अपनत्व से सराबोर कर सकती है. रचना ने कभी भी नीति और पार्थ में भेदभाव नहीं किया. अच्छा हुआ मैं यहां नहीं रही, वरना रचना इतने अच्छे तरी़के से बच्चे नहीं पाल पाती, क्योंकि मैं सौतेली मां के रूप में रचना की छोटी-छोटी बातों को शक के दायरे में लाती और घर में हरदम कहा-सुनी होती रहती. सुशील ने रचना के सरल स्वभाव को आरंभ में ही समझ लिया था. उसी का परिणाम आज उसका ये हंसता-खेलता हुआ परिवार है. बरसों से जमी नफ़रत की परतें आंसुओं के रूप में पिघलकर मेरी दोनों आंखों से बहने लगी थीं. तभी रचना की मधुर आवाज़ ने मरहम-सा काम किया, “ये क्या मांजी, पार्थ के संग-संग आप भी बच्ची बन गईं.” मैंने रचना को कसकर गले से लगा लिया. उसकी आंखों से भी इतनी देर से थमी अश्रुधारा प्रवाह तोड़कर बहने लगी थी. हम सास-बहू को यूं लिपटकर रोते देख सब इसे नीति की विदाई का दुख ही समझ रहे थे, लेकिन हम दोनों ही जानते थे कि ये आंसू हमारे आंतरिक मिलन के थे. ये दृश्य देखकर दूर खड़ा सुशील भी अपने आंसू न रोक सका था. आज सत्रह वर्षों बाद मैंने उसके निर्णय पर अपनी स्वीकृति की मोहर जो लगा दी थीअधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें - SHORT STORIES
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