सामान लेकर उसके यहां पहुंची, तो वहां के नज़ारे ने मन में पुलक भर दी. बहुत-सी बच्चियां बैठकर खा रही थीं. उसमें मेरी महरी की बेटियां भी थीं और धोबिन की भी. उसने मेरी बेटी को भी उनके बीच एक खाली हो गए स्थान में बैठने को कहा. मेरे दुखद आश्चर्य की सीमा न रही जब मेरी बेटी नाक-भौं सिकोड़ कर कहने लगी की मैं इनके बीच नहीं बैठूंगी. खैर! मेरे डांटने और मेरी सहेली के प्यार से समझाने से वो बैठ गई.
बात उन दिनों की है जब मेरी बेटी क़रीब दो साल की थी. खाने-पीने के मामले में अति नखरीली. ‘कंचक’ का दिन था. मैं उसके साथ निमंत्रकों के यहां घूम रही थी. साथ में अन्य घरों की लडकियां भी थीं, जो कुछ बड़ी थीं. मेरी सोसायटी में चार मंजिला घर हैं. हम एक जगह से निकलते, तो दूसरे घर वाली महिला विनती करके रोक लेती. बेटी कुछ खाती तो थी नहीं, मुझे उसकी थाली ये कहकर पकड़ा दी जाती कि प्रसाद को फेंक नहीं सकते. जब एक दूसरी मंजिल पर रहने वाली महिला ने आमंत्रित किया, तो मैं बेटी को अन्य बच्चियों के साथ भेजकर नीचे ही उसकी प्रतीक्षा करने लगी. तभी एक और सभ्य महिला मेरे हाथों में थालियां देखकर मुझसे पूछने लगी कि क्या मेरी बेटी ऊपर की मंजिल में कंचक खाने गई है? मेरे 'हां' कहने पर वो विनती करने वाले स्वर में बोलीं, "वहां से आ जाए, तो मेरे यहां ले चलिए प्लीज़. मुझे पूजा में थोड़ी देर हो गई, तो मुझे बच्चे नहीं मिल रहे हैं. मैं मना न कर सकी, तो वो मेरे साथ खड़ी होकर प्रतीक्षा करने लगीं. मैं मन में ये सोचकर परेशान थी कि प्रसाद फेंकना अच्छा नहीं लगेगा, पर मैं और इसके पापा कितना खा लेंगे. तभी मैंने ध्यान दिया कि मैले-कुचैले कपड़े पहने एक प्यारी सी बच्ची मेरे हाथ में सुगंधित पकवानों से भरी थालियाँ बड़ी हसरत से देख रही थी. मुझे तो अपनी समस्या का समाधान मिल गया. मैंने उसे इशारा किया, तो वो नज़दीक आ गई. मैं उसे थालियां पकड़ाने ही वाली थी कि उन महिला ने जो मेरे साथ मेरी बेटी की प्रतीक्षा कर रही थीं, तिरस्कार के स्वर में उस बच्ची को दुत्कारना शुरू कर दिया.
“चल हट, लालची आज इन जैसियों की बाढ़ आ जाती है. प्रसाद पर नज़र लगा रही है. भाग यहां से.” ये उनके शब्द थे. बच्ची सहम गई और मैं अवाक रह गई.
यदि इनकी नज़रों में अब भी मेरी बेटी और उस बच्ची में कोई फर्क़ है तो क्या किया है उन्होंने नौ दिन? मेरा मन वितृष्णा से भर उठा, लेकिन सभ्यता और संस्कारों ने मुंह पर पट्टी बांध रखी थी. तभी मेरी बेटी आ गई. वो एक और थाली ले आई थी. मैंने इतना ज़रूर किया कि उन्हें उपेक्षित करते हुए मुस्कुराकर वो और नई लाई थाली उस बच्ची को पकड़ा दी. उनका मुंह बनते हुए देखकर मैं बोली, “यदि हम इसे कूड़े में फेंक देंगे, तो क्या प्रसाद का अपमान न होगा?” महिला के दोबारा अनुरोध करने पर मैं अपनी बेटी को लेकर उनके घर चली तो गई, पर मेरा मन उनसे हट चुका था. क्या अर्थ है ऐसे व्रत-उपवास का, जो वाणी को मधुर न बना सके. क्या अर्थ है ऐसे दान-धर्म का जिसे उसे दिया जा रहा है, जो पहले से तृप्त है. इस नवरात्र मेरा भी मन था कि व्रत रहूं, पर किन्हीं कारणों से न रह सकी थी. सोचा था कि व्रत रहूंगी, तो किसी नियम-धर्म से व्रत रहने वाले से पूरी विधि पूछकर रहूंगी. पर अब जब देखा कि उन महिला के घर कर्मकांड की पूरी और अचूक व्यवस्था थी, तो मन में विकल्प उठने लगे.
तभी मेरी एक प्रिय सहेली का फोन आया.
“तू मेरा एक काम करेगी? बेसमेंट में जो बर्तन की दुकान है, उससे दस बर्तन के सेट और जो फल बता रही हूं, लेकर मेरे घर आ जा. और हां बेटी को भी साथ लाना. अर्जेंट भी है और ज़रूरी भी.” मैंने हां कर दी पर सामान ख़रीदते हुए मैं ये सोच रही थी कि ‘मेरी यह सहेली, तो कोई पूजा-पाठ या नियम-धर्म नहीं मानती थी. इस बार इसे क्या शौक चर्राया?
सामान लेकर उसके यहां पहुंची, तो वहां के नज़ारे ने मन में पुलक भर दी. बहुत-सी बच्चियां बैठकर खा रही थीं. उसमें मेरी महरी की बेटियां भी थीं और धोबिन की भी. उसने मेरी बेटी को भी उनके बीच एक खाली हो गए स्थान में बैठने को कहा. मेरे दुखद आश्चर्य की सीमा न रही जब मेरी बेटी नाक-भौं सिकोड़ कर कहने लगी की मैं इनके बीच नहीं बैठूंगी. खैर! मेरे डांटने और मेरी सहेली के प्यार से समझाने से वो बैठ गई.
उसने सबको उपहार देकर विदा किया और मुझसे नाश्ता करके जाने का आग्रह किया. मैंने उत्साह से भरकर उससे पूछा, " तू तो पूजा-पाठ कभी करती नहीं थी. ये सब कब और कैसे शुरू किया. उत्तर में उसने एक दिलचस्प वाकया सुनाया. उसकी महरी अक्सर शाम के समय अपनी दस वर्षीय बेटी को बरतन मांजने भेज देती थी. मेरी सहेली को उस पर दया तो बहुत आती थी, पर कुछ कर नहीं पाती थी. एक बार बेटे के जन्मदिन पर सारे दिन के काम के लिए कहने पर महरी ने कहा कि वो बेटी को भेज देगी. मेहमानों के बीच वो ख़राब न लगे, इसलिए मेरी सहेली ने उसके लिए अच्छे कपड़े ला दिए. उन्हें पहन कर वो बहुत ख़ुश हुई और बड़े जतन से काम किया. शाम को बच्चों के साथ उसकी भी बिल्कुल वैसी ही प्लेट लगाई गई और वही रिटर्न-गिफ्ट दिया, जो और बच्चों को दिया था. उसके चेहरे पर चमक देखकर सहेली अभिभूत थी, लेकिन उसके जाने के बाद उसे दिए गए इस सम्मान के कारण बेटे ने बहुत नाराज़गी जताई, तो वह इस बात को लेकर चिंतित हो गई कि क्या वो अपने बेटे को अच्छे संस्कार नहीं दे पा रही है?
समाधान की तलाश में उसने निश्चय किया कि वो अब बिना किसी स्वार्थ के भी उस बच्ची को प्रायः सम्मान के साथ भोजन कराया करेगी और नवरात्र में वंचित घरों की बच्चियों को बुलाकर ससम्मान खाना खिलाकर उनकी ज़रूरत की वस्तुएं दान करेगी. मां को नियमित रूप से इन बच्चों को सम्मान देते देख बेटा भी अच्छे संस्कार ज़रूर ग्रहण करेगा.
मुझे नवरात्र पूजन की विधि सीखने के लिए गुरु मिल चुका था और मेरे मन में पूजा-विधि के घूमते विकल्प एक संकल्प में बदल चुके थे.
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