"गगन शायद यह ठीक नहीं हो रहा है." मृदु ने उदास स्वर में उस दिन कहा. "हां शायद! मैं स्वयं भी बहुत परेशान हूं, उड़ने वाला पंछी पिंजरे की मैना से प्यार कर बैठा." "अभी तो कुछ दिन रहोगे न गगन." मृदु ने बोझिल वातावरण को कुछ हल्का करना चाहा.
स्वच्छ शुभ्र बसंत की चांदनी में आंगन के पेड़-पौधे नहा रहे हैं. रातरानी की मादक गंध मन की एक अवर्णनीय रोमांच से भर रही है. मुदु पिछवाड़े का द्वार खोल आंगन में आ खड़ी हुई. कैसा मादक वातावरण है. एक एक फूल का रंग पहचाना जा रहा है. एक एक पत्ती को गिना जा सकता है. उसे लगा इस समय वह किसी मायावी लोक में है. धरती पर तो उसने कभी ऐसा दृश्य नहीं देखा. देखती कब, रात साढ़े ग्यारह बजे अकेले कब और क्यों आंगन में आती वह. आज घर में अकेली है. मां-पिताजी किसी शादी में गए
है. उसे दरवाज़ा खोलने के लिए जागते रहना है. मृदु कुछ कदम आगे बढ़ी. मंद हवा में झूमता कनेर पुष्प का एक गुच्छा उसके कपोल को छू गया. सारे शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ गई. कनेर की डाल पकड़ कर उसने झुका ली. उस पुष्प गुच्छे कों समीप लाकर होंठों से छू लिया.
"तुम कहां हो गगन? उसके होंठों में शब्द अटक गए.
बिल्कुल ऐसा ही तो माहौल था पिछले वर्ष जब तुमने आकर मेरा हाथ छू लिया था. तुम्हारा वह मधुर स्पर्श मुझे छुईमुई बना गया. मुझे यह दुनिया कितनी प्यारी कितनी स्वप्निल लगी थी उस समप.
गगन एक माह के लिए अपने मामा के घर आया था. यह बीमारी से उठा था और हवा परिवर्तन के लिए यहां आया था.
मृदु ने पहली बार गगन को तब देखा था, जब वह शांति मौसी से अख़बार मांगने गई थी.
"मौसी कहां है?" बरामदे में कुसी पर बैठे गगन से उसने पूछा था.
मुंह के सामने की किताब को हटा जब गगन ने मृदु के चेहरे पर दृष्टि डाली तो कुछ क्षण वह पलक झपकाना ही भूल गया. रेशमी लटों में घिरा गोरा चेहरा सचमुच पूनम के चांद का आभास दे रहा था.
"मैं मौसी को पूछ रही हूं?" मृदु मुस्कुरा रही थी. उस दिन के बाद बरामदा, द्वार, छत, आंगन, कमरे की खिड़की सब जगह से झांककर, दोनों एक दूसरे को झलक पा लेने को आतुर रहते.
उस दिन मृदु अपने बरामदे में अकेली बैठी फूल के एक गुच्छे को अल्हड़ता से उछाल रही थी. यह गुच्छा सुबह माली उसके पिता को भेंट कर गया था. अचानक गुच्छा बरामदे की पार्टीशन दीवार के उस ओर जा गिरा, दूसरी ओर संयोग से गगन बैठा पढ़ रहा था. गुच्छा उसके सिर पर जा गिरा. मृद सहमकर पिछवाड़े भाग गई. दो-तीन दिन गगन से आंख मिलाने का साहस नहीं हुआ उसका, किंतु मन बार-बार गगन में ही जा अटकता.
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मार्च माह की हल्की गरम दोपहर में मृदु बाग के कोने में कनेर के नीचे बैठ कर पढ़ा करती थी. एक दिन...
"मृदु..." उसक कानों में झनकार हो उठी.
"गगन तुम..."
"हां..."
कुछ देर दोनों मौन जहां के तहां रहे फिर गगन ने एक पुस्तक आगे बढ़ाते हुए कहा, "यह तुम्हें लौटाने आया था."
"इसकी इतनी जल्दी नहीं थी गगन." कहते-कहते मृदु ने किताब पकड़ी तो दोनों के हाथ छू गए, आंखें मिली, एक अनिवर्चनीय अल्हाद दोनों में समा गया. गगम एकदम लौट पड़ा. मृदु देर तक गगन की दी हुई किताब को देखती रही. गोद में रखे पुस्तक के पन्ने हवा में उड़ रहे थे. एकाएक एक पुर्जा उड़ कर दूर जा गिरा. मृदु ने दौड़कर उठाया.
पढ़ा- तुम्हारा उपहार सिर आंखों पर मृदु?.. इस वाक्य के साथ मृदु जैसे सपनों में खो गई. वह कैसे कहे गगन से कि वह फूल का गुच्छा, उसके अल्हड़पन की एक भूल मात्र थी. यह बताकर तुम्हारे मन में बने प्यार के महल को वह कैसे तोड़ दे.
दिन हवा होने लगे. अब मृदु की राह में नित्य एक फुलों का गुच्छा होता. कभी उसके पढ़ने के टेबल पर, कभी बाग में बैठने के उसके स्थान पर, कभी पार्टींशन की दीवार पर, कभी लौटाई गई पुस्तक के साथ.
"गगन, शायद यह ठीक नहीं हो रहा." मृद ने उदास स्वर में उस दिन कहा.
"हां शायद, मैं स्वयं भी बहुत परेशान हूं. उड़ने वाला पंछी पिंजरे की मैना से प्यार कर बैठा है."
"अभी तो कुछ दिन रहोगे न गगन?" मृदु ने बोझिल वातावरण को कुछ हल्का करना चाहा.
"बस परसों चला जाऊंगा."
"परसों ही" मृदु के मुंह से एकदम निकला.
"हां, तुम तो जानती हो मैं यहां मेहमान हूं."
"जानती हूं गगन और यह भी जानती हूं कि मेहमान बसते नहीं, चले ही जाते है."
"बेटा गगन, तुम्हें मामा बुला रहे हैं." मृदु की मां की आवाज़ सुन गगन अपने घर दौड़ गया. मृदु दौड़कर जाते गगन के एक-एक कदम गिनती रही. जब उसका मन पढ़ने में न लगा तो उठकर कमरे में आ गई. पिछले पंद्रह दिनों में गगन से मिलने के बाद उसने जितना उल्हास समेटा था, इस समय लगा वह सारा चूक गया.
कमरे में आकर वह लेट गई, पर सो भी न सकी. कई बहाने सोचने लगी, कैसे मौसी के घर जाए और गगन के सामने बैठ जाए, पर बार-बार इसके लिए वह मां से कहे भी तो क्या? उससे लेटा भी नहीं गया. वह उठी और टेपरिकॉर्डर का बटन ऑन कर दिया. उसमें से मधुर आवाज़ फूट पड़ी- मैं देखूं जिस ओर सखी री सामने मेरे सांवरिया, प्रेम में ऐसे डूब गया मन जैसे जल में गागरिया... वह इन पंक्तियों को जितनी अधिक बार सुनती रही उतना ही मन अकुलाहट से भरता गया.
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सारी संध्या वह गगन की प्रतीक्षा करती रही, वह नहीं आया. गगन तो अपने मामा और किसी परिचित के साथ कोई फिल्म देखने गया हुआ था. रात दस बजे तक वह प्रतीक्षा में जागती रही. उसे न नींद आ रही थी, न पढ़ाई में मन लग रहा था.
वह दरवाज़ा खोल पिछले आंगन में निकल आई. चांदनी छिटक रही थी. आकाश में अकेला चांद और धरती पर यहां वह अकेली. पड़ोस के आंगन की पार्टीशन दीवार के पार उसने कोई सिर देखा, वह उस ओर बढ़ी, वह गगन था, जो उसी से मिलने आया था. क्षण मात्र में वह दीवार फांद उसके पास आ गया.
"ओह गगन!.." भावुकता में वह इतनी नज़दीक आ गई कि गगन की सांसों की गर्मी उसे छूने लगी. गगन ने मृदु के दोनों हाथ पकड़ लिए. मृदु ने उसके सोने पर सिर टिका लिया.
पूर्ण चांदनी में नहाते इस प्रेमी युगल का मौन एक दूसरे को सब कुछ कह गया.
"तुम यहां क्यों खड़ी थीं?"
"तुम आंगन में क्यों आए?" गगन ने मृदु की ठोड़ी पकड़ जब चेहरा ऊपर उठाया तो वह आंसुओं से तर था.
"नहीं... नहीं… नहीं... मृदु ये आंसू क्यों? मुझे हंसकर बिदा दो मृदु!.."
मृदु और फफफ कर रो पड़ी
"गगन न मैं तुम्हारे बिना रह सकती हूं न तुम्हारे लिए विद्रोह कर सकती हूं. बस जी करता है नींद की गोलियां खाकर सो जाऊं अभी."
"पगली..." गगन ने मृदु के होंठों पर हाथ रख दिया.
"ऐसी बातें ना कर मृदु मैं भी कम दुखी नहीं हूं. तुम्हारे बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकता, पर एक बात जानता हूं कि हमें धैर्य से काम लेना चाहिए. अभी हम माता-पिता पर आश्रित है, अधूरी शिक्षा है और साहस की भी कमी है."
"गगन, चलो कहीं भागकर शादी कर लें. फिर हमें साथ रहने से कोई नहीं रोकेगा. मां तो मुझे ख़ूब चाहती है."
" नहीं मृदु, ऐसा कुछ मत करो. मैं भी शायद तुम्हारे जैसा ही भावुक हो जाता, पर घटनाओं की मार ने मुझे समय से पहले प्रोढ़ बना दिया है. मेरी बहन इसी तरह प्यार की भावुकता में बहकर अपना जीवन तबाह कर बैठी. दो माह पूर्व उसने ज़हर खा लिया."
"ओह गगन मैं अपने प्रेम में इतनी अंधी हो गई कि तुम्हारे बारे में पूछा ही नहीं. तुम्हारी बीमारी तक का नहीं... बीमारी के लिए उल्टे तरह-तरह का मज़ाक ही करती रही. मुझे क्षमा..."
"क्षमा की बात नहीं मृदु, अपनी बहन के सदमे में ही मैं बीमार पड़ गया. वह मुझे बहुत प्यार करती थी." कहते हुए गगन का गला भर आया. दोनों कुछ देर यूं ही खड़े रहे.
"मृदु, मैं सुबह पांच बजे की गाड़ी से चला जाऊंगा, यहीं कारण था कि मैं दीवार फांद कर तुमसे मिलने आया."
"गगन मेरी भावुकता का ज्वार तुम्हारी बातों
से बैठ गया, पर मन की अकुलाहट कम न हुई. मैं तुम्हारे लिए जन्मभर प्रतीक्षा करूंगी, तुम मुझे वचन दो, अवश्य आओगे."
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"मृदु... मेरी मृदु... मैं वचन देकर तुम्हें बांधना नहीं चाहता. मेरी राहों में की चुनौतियां खड़ी हैं. बूढ़े मां-पिता हैं, छोटा भाई है, बहन की शादी के लिए कर्ज़ का भार चुकाना है और अपनी एम.ए. तक की शिक्षा पूरी करनी है. इस वर्ष बी.ए, कर लेता, पर बीमारी के कारण साल बरबाद हो गया."
"मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकूंगी गगन. मेरे हृदय की अकुलाहट को पहचानो."
"उस अकुलाहट को मैं भी अनुभव कर रहा हूं मृदु..." और एक फूलों का गुच्छा मृदु को दे गगन विदा हो लिया था.
फूल देते समय उसने कहा था, "तुमने तो भूल से मुझे फूलों का गुच्छा दिया था, किंतु मैं भूल में या अलहड़पन में यह नहीं दे रहा, बस यही चाहता हूं कि तुम सदा इन फूलों सी खिली रहो."
- उर्मि कृष्ण

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