
विवेक रंजन अग्निहोत्री ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वे एक ऐसे सशक्त निर्देशक हैं, जो इतिहास की क्रूर सच्चाई को पर्दे पर ईमानदारी से दिखाने का साहस रखते हैं. उन्होंने द ताशकंद फाइल्स, द कश्मीर फाइल्स और अब इसकी तीसरी कड़ी द बंगाल फाइल्स में इसे बख़ूबी दर्शाया है.

शिक्षक दिवस पर रिलीज़ हुई ‘द बंगाल फाइल्स’ हमें कई बातों की शिक्षा दे जाती है. अतीत में हुए वीभत्स दरिंदगी से रू-ब-रू कराती है.
फिल्म की कहानी पश्चिम बंगाल में 16 अगस्त, 1946 में हुए डायरेक्ट एक्शन डे और नोआखाली हिंदू नरसंहार पर प्रकाश डालती है. हम में से शायद ही कम लोगों को पता हो कि बंटवारे से साल भर पहले सांप्रदायिक आग में पूरी तरह से झुलस रहा था बंगाल.
ब्रिटीश हुकूमत और महात्मा गांधी के तमाम प्रयासों के बावजूद हिंदुस्तान का बंटवारा रुक नहीं पाया. आज देखते हैं, तो लगता है जिन्ना की ज़िद की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है मुसलमानों को.
जब देश स्वतंत्र हो रहा था, तब तीस करोड़ हिंदू तो दस करोड़ मुस्लिम लोगों में से मात्र साढ़े पांच करोड़ ही बंटवारे के पक्ष में जिन्ना के साथ थे. बाकि भारत में ही रहना चाहते थे और रहे भी. यह उनका विश्वास था कि हिंदू राष्ट्र भारत में वे पूर्णतः सुरक्षित हैं. यह पहलू इस बात पर भी रोशनी डालता है कि आम आदमी कभी विद्रोह, दंगे, बंटवारे के पक्ष में था ही नहीं. वो तो हमेशा से ही शांति और अमन की वकालत करता रहा. तो तो कुछ मुट्ठी भर कुराफ़ाती लोग, शरारती तत्वों और राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले नेताओं की हमेशा से ये कारगुज़ारी रही है.
गांधीजी बने अनुपम खेर वाकई में बेहद बेबस लगे. उनके कुछ दृश्य लाजवाब हैं, ख़ासकर जिन्ना बने राजेश खेरा के साथ उनकी बहस चुटीली है. उस पर बकरी का दूध निकालना, प्रार्थना सभा में दंगे से पीड़ित हिंदू महिला की गुहार, सोमवार को उनका मौन व्रत रहने पर अंग्रेज़ से लिखकर बात करना... काफ़ी दिलचस्प बने हैं.
पल्लवी जोशी और सिमरत कौर ने बेमिसाल अभिनय किया है. दोनों ने उन पर हुए अत्याचार के दर्द को अपने अभिनय से बेमिसाल बना दिया. प्रियांशु चटर्जी ने भी भारती बनर्जी बनी सिमरत-पल्लवी के पिता के रूप में अपनी छोटी सी भूमिका से प्रभावित किया है.
मिथुन चक्रवर्ती पागल बने हैं, जो कभी पहले पुलिस में थे. लेकिन दंगाईओं ने उन्हें कहीं का ना नहीं छोड़ा. उनके साथ हिंसा की सारी हदें पार कर दी. न केवल उनका जीभ काट दिया, बल्कि लिंग काटकर उन्हें नपुंसक तक बना दिया. लेकिन उन्होंने अपना देशप्रेम नहीं छोड़ा. शराब का सहारा लेते हुए अपने तुतलाते ज़ुबान में ही सही वे अपने दिल की आग को दिखाने की पुरज़ोर कोशिश करते रहते हैं.
आईपीएस ऑफिसर शिवा पंडित, दर्शन कुमार को पुनीत इस्सर बंगाल भेजते हैं, गुमशुदा लड़की का पता लगाने और उससे जुड़े राजनीति और विवादों को ख़त्म करके रिपोर्ट तैयार करने. लेकिन शिवा वहां पर बहुत सारे मुद्दों के बीच उलझकर रह जाता है. एक तरफ़ उसका अतीत कश्मीर में मां के साथ हुआ अत्याचार तो दूसरी तरफ़ बंगाल में हो रही महिलाओं के साथ ज़ुल्म उसे झकझोर कर रख देते हैं. न्याय के लिए वो वहां के अल्पसंख्यकों के नेता शाश्वत चटर्जी से भी टकरा जाता है, जो उस पर ही भारी पड़ जाता है.
आज वर्तमान में पश्चिम बंगाल में जो बीते दिनों में हुआ था और अब भी हो रहा है. उसी का कहीं न कहीं ट्रेलर का आभास फिल्म में होता है. यह कड़वी सच्चाई है, तभी तो पश्चिम बंगाल में फिल्म पर बैन का साया मंडरा रहा है. ममता बनर्जी सरकार फिल्म के कहानीकार, निर्माता व निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की अपील के बावजूद चुप्पी साधे बैठी हैं. फिल्म की दूसरी निर्माता और कलाकार पल्लवी जोशी ने तो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से भी बैन के मुद्दे पर दख़ल देने का निवेदन किया है.
दर्शन कुमार, दिव्यांदु भट्टाचार्य और सिमरत कौर रंधावा का अभिनय फिल्म की जान है. मिथुन चक्रवर्ती के सुपुत्र निमाशी चक्रवर्ती ने खलनायक की भूमिका में जानदार अभिनय किया है. उनका आक्रोश, वहशीपना क्रोध के साथ-साथ भयभीत भी करता है.
पुनीत इस्सर, गोविंद नामदेव, सौरव दास, पालोमी घोष, बब्बू मान, मोहन कपूर, दिव्या पलट व अंकित बिष्ट ने भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है.
अभिषेक अग्रवाल आर्ट्स, आई एम बुद्धा प्रोडक्शन के बैनर तले बनी क़रीब सवा तीन घंटे से अधिक की यह फिल्म बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है. अतीत का साया वर्तमान पर भी अपने अंश बिखेरता रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं. इतिहास से सबक लेकर सचेत होना होगा. यदि अभी नहीं संभले तो भविष्य में कुछ और भी ऐसा हो सकता है, जिसके लिए हम ख़ुद को शायद माफ़ न कर सके.

अत्तर सिंह सैनी का छायांकान उम्दा है. कहानी बार-बार अतीत-वर्तमान के बीच घूमती रहती है. आज़ादी से पहले और आज के बंगाल का ख़ूबसूरत चित्रण किया है सिनेमैटोग्राफर ने.
ज़ी म्यूज़िक का बैकग्राउंड संगीत कहानी के साथ बांधे रखता है. साथ ही नरसंहार, वीभत्सता, हिंसा, दरिंदगी से दिलोदिमाग़ में चल रहे तनाव को कम करने में भी मदद करता है.
यदि इतिहास को जानने के इच्छुक होने के साथ-साथ आप सच्चाई के कई पहलुओं को भी जानना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपको ज़रूर देखनी चाहिए. पांच-छह साल की रिसर्च और क़रीब बीस हज़ार पन्नों का लेखा-जोखा रहा निर्देशक का, सच विवेक रंजन अग्निहोत्री बधाई के पात्र हैं, जो इस तरह की चुनौती को स्वीकार करते हुए सच को दिखाने की कोशिश हमेशा ही करते हैं.
- ऊषा गुप्ता

Photo Courtesy: Social Media