
विनीता राहुरीकर
अस्पताल के वॉर्ड्स का माहौल भी अब उतना दुख भरा नहीं लगता था. डयूटी में भी एक रोमांच दिल को धड़काता रहता. नील को ईशा का आसपास होना और ईशा को नील का क़रीब रहना हर पल रोमांचित करता रहता.
साइड लैंप की लाइट बंद करके नील अर्थात नीलांश पलंग पर लेट गया. आंखों पर हाथ रखे वह चुपचाप पड़ा था. आज का दिन बड़ा व्यस्तता वाला रहा. यूं तो डॉक्टर का हर दिन ही व्यस्त रहता है, लेकिन उसमें भी कोई-कोई दिन मरीज़ों की संख्या अन्य दिनों की बजाय अधिक हो जाती है तो वो दिन कुछ अधिक ही व्यस्तता भरा बीतता है. शहर में उसके अलावा दूसरा कोई पल्मोनरी रोगों का स्पेशलिस्ट अर्थात पल्मोनोलॉजिस्ट है भी तो नहीं. नील चाहता था कि उसे जल्दी से नींद आ जाए, ताकि वह सुबह हॉस्पिटल जाने से पहले तरोताज़ा हो जाए. आज उसे बहुत थकान महसूस हो रही थी, लेकिन नींद तो न जाने किस स्टेशन पर खड़ी रह गई थी. आंखों तक पहुंचती ही नहीं. यादें आंखों के नाम रतजगे की चिट्ठी पहले ही पलकों के लेटर बॉक्स में डाल जाती है. रतजगे की चौखट से नींद भीतर आए तो कैसे आए. रतजगे की चौखट पर तो किसी ने यादों के पहरेदार खड़े कर रखे हैं. नींद बेचारी हथेलियों पर गालों को धरे चौखट के बाहर ही बैठी रह जाती है हर रात. “तुम्हारे नाम का मतलब क्या होता है? नीले रंग का कोई अंश?” आंखों पर से हाथ हटाकर नील ने करवट बदली. सामने ईशा मुस्कुरा रही थी. “पगली! नीले रंग का अंश, ये भी कोई मतलब हुआ किसी नाम का. नीलांश भगवान शिव को कहते हैं.” नील मुस्कुराया. “और नील का?” उसने पूछा. “नीलांश का शॉर्ट फॉर्म है. पुकारने में आसान होता है, इसलिए घरवालों ने निक नेम नील कर दिया.” नील ने बताया. “नहीं यह आयरिश मूल का शब्द है जिसका अर्थ बादल या भावुक होता है.” ईशा ने हंसते हुए कहा. “न मैं बादल हूं और न ही मैं भावुक हूं.” नील हंसा, “और तुम्हारे नाम का क्या मतलब है?” “मां ने नाम रखा ईशा अर्थात इच्छा या चाहत. पिताजी को आद्या नाम बहुत अच्छा लगता था तो वो आद्या ही कहते हैं, जिसका मतलब होता है देवी दुर्गा.” “तब तो तुम्हारे दोनों ही नाम सही रखे हैं तुम्हारे घरवालों ने.” नील ने शरारत से कहा. “वो कैसे?” “नील की ईशा अर्थात नील की चाहत और देवी दुर्गा अर्थात भगवान शिव की पत्नी. दोनों ही अर्थों में तुम मेरी हो.” नील ने बताया. “धत!” वह शरमाई. “और क्या तुम मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चाहत हो.” नील ने भावुक होकर कहा. वह हंसती रही. घने बादलों जैसी बालों की उड़ती स्याह लटों के बीच सूरज की किरण सी उजली हंसी. यही तो उसकी ख़ासियत है. वह हमेशा हंसती रहती है. कोई दुख, कोई तनाव, कोई चिंता उसे छू नहीं पाती. नील भी होना चाहता है उसके जैसा. हो भी गया है काफ़ी हद तक. कोशिश करता है उसके जैसे हर समय, हर परिस्थिति में हंसते रहने की. “कल रात भर फिर सोए नहीं क्या नील बाबा?” सुबह आठ बजे रमा बाई ने आते ही सोफे पर पड़ी चादर देख कर पूछा. “क्या करूं तुम्हारी बहू को रात भर मुझसे बातें करने की आदत है. सोने ही नहीं देती. सुबह छह बजे यहां आकर सो गया था.” नील ने चादर समेटते हुए कहा. “तो रात में ही यहां आकर सो जाया करो, ताकि नींद तो पूरी हो सके. ऐसे तो बाबा तुम बीमार पड़ जाओगे. जाओ हाथ-मुंह धो आओ, मैं चाय बनाती हूं तब तक. हज़ार बार समझाया मगर औंधे घड़े पर पानी है. दूसरों का इलाज करते हैं. कभी ख़ुद का भी इलाज कर लो.” रमा बाई बड़बड़ाते हुए किचन में चली गई. यह रोज़ सुबह का दृश्य था. रोज़ सुबह रमा बाई आती और नील की रतजगी फूली आंखें देख बड़बड़ाती. और नील हंसकर बाथरूम में भाग जाता. वापस आता तब तक रमा बाई चाय-नाश्ता टेबल पर रख कर खाना बनाने में जुट जाती. टिफिन लेकर नील हॉस्पिटल चला जाता. रमा बाई रात के लिए भी कुछ बनाकर बाकी काम करके चाबी पड़ोस में देकर चली जाती. अस्पताल पहुंचते ही नील मरीज़ों में व्यस्त हो जाता. लंच तक ओपीडी फिर उसके बाद वार्ड्स के राउंड. कभी-कभी ओपीडी में इतने पेशेंट्स आ जाते हैं कि लंच का समय भी बीत जाता है. ईशा कितना नाराज़ होती है. “तुम दूसरों का इलाज करके उन्हें तभी स्वस्थ बना पाओगे न जब ख़ुद स्वस्थ रहोगे. यदि रोज़ ही लंच स्किप करोगे या दोपहर का खाना शाम को खाओगे, तो ख़ुद बीमार पड़ जाओगे. तब दूसरों का इलाज क्या खाक कर पाओगे.” “मुझे कुछ नहीं होगा मेरी मां. सुबह ठूंस-ठूंस कर नाश्ता कर तो लेता हूं.” नील हंसकर कहता. ईशा ख़ुद क्या कम लापरवाह है. एक बार मरीज़ों की देखभाल में लगती है, तो खाना-पीना सब भूल जाती है. चाय के लिए भी उसे दस बार याद दिलाना पड़ता है. कई बार तो नील को डॉक्टर रोहन या मीनल में से किसी को वार्ड में बिठाकर ईशा को ज़बर्दस्ती चाय-कॉफी पिलाने या सैंडविच खिलाने ले जाना पड़ता है. तभी ईशा की जब नाइट डयूटी लगती है तो नील भी नाइट डयूटी ले लेता है, ताकि रात में उसे दो-एक बार कॉफी तो पिला सके. एक बार वो छुट्टी पर था और नाइट डयूटी में ईशा ने न कॉफी पी न कुछ खाया. इमर्जेंसी में उसे सुबह भी डयूटी करनी पड़ी और वह घर नहीं जा सकी. शाम तक न उसने ब्रेकफास्ट किया न लंच. नील कितना नाराज़ हुआ था उस पर शाम को आने के बाद. नील ने ही उसे कैंटीन ले जाकर डोसा खिलाकर कॉफी पिलाई पहले, तब घर जाने दिया था. इतना खो जाती है वह मरीज़ों की देखभाल में. आज भी याद है नील को नौ साल पहले ईशा ने 20 अक्टूबर को जूनियर डॉक्टर के रूप में डयूटी जॉइन की थी. वह उससे तीन साल सीनियर था. उसी के अंडर काम करती थी ईशा. कंधे तक कटे घने काले हल्के घुंघराले बाल जिन्हें वह क्लचर में बांधे रखती. हर समय हंसता हुआ मीठा सा चेहरा, दमकता गोरा रंग, बोलती सी आंखें. पहली नज़र में ही आकर्षित कर लेने वाला व्यक्तित्व था उसका. ज़ाहिर है डॉक्टर नीलांश को भी वो अच्छी लगी थी. समय से पहले ही वो डयूटी पर हाज़िर हो जाती. लेकिन तब भी जाने कब नील को उसका इंतज़ार रहने लगा. नज़रें बार-बार घड़ी की ओर चली जातीं या हाथ बेवजह जेब से मोबाइल निकालकर चेक करने लगते कि कहीं उसका मैसेज तो नहीं आया कि आज नहीं आऊंगी. ईशा कब उसके दिल की चाहत बन गई नील को पता ही नहीं चला. डॉक्टर नीलांश कब नील बन गया, ईशा ख़ुद भी कहां समझ पाई. मरीज़ों के दर्द दूर करते कब दोनों ख़ुद दर्द-ए-इश्क़ के मरीज़ हो गए, जान नहीं पाए. बस एक-दूसरे की उपस्थिति को जीने लगे. एक-दूसरे को देखकर ही ख़ुश होने लगे थे. दिलों को इंतज़ार रहने लगा. आंखें अस्पताल के कम्पाउंड में आते ही इधर-उधर किसी को देखने की हसरत में डोलने लगतीं. ओपीडी के बाद वॉर्ड्स में रूटीन राउंड लगाने के बाद कुछ समय कैंटीन की बगीचे की तरफ़ की खुली खिड़की के पास लगे टेबल पर बीतने लगा. कभी गर्म कॉफी, कभी कोल्ड ड्रिंक, कभी चाय-सैंडविच तो कभी मैसूर मसाला डोसा. अस्पताल के वॉर्ड्स का माहौल भी अब उतना दुख भरा नहीं लगता था. ड्यूटी में भी एक रोमांच दिल को धड़काता रहता. नील को ईशा का आसपास होना और ईशा को नील का क़रीब रहना हर पल रोमांचित करता रहता. वॉर्ड्स से कैंटीन और कैंटीन की खुली खिड़की से दोनों पंख लगाकर हरीभरी वादियों की पनाह में उड़ गए. नील ईशा का क्लचर खोल देता. “अस्पताल में बंधन में रहते हैं, अब तो इन लटों को आज़ादी से खुली हवा में लहराने दो.” ईशा के नकली ग़ुस्से पर नील हंसकर कहता. नरम घास के मैदानों में दोनों नंगे पैर दूर तक हाथ में हाथ डाले घूमते रहते. “मेरे दिल ने आज तक की ज़िंदगी में जितनी भी चाहतें की हैं, तुम उनमें से सबसे ख़ूबसूरत चाहत हो मेरे दिल की.” नील ईशा की आंखों में झांककर जब कहता, तो अनंत तक फैला नीला आसमान उसकी आंखों मे उतर आता और उस नीली गहराई में नील डूबता चला जाता. सिल्वर ओक या बुरांश की छाया में जब वह ईशा की गोद में सिर रख कर लेटता, तो ईशा की धड़कनें उसे अपने कानों में सुनाई देतीं और नील को लगता कि ये उसके अपने दिल की धड़कनें ही हैं. दोनों की धड़कनें एक ही तो थीं. इन्हीं धड़कनों के आवेग में एक दिन बुरांश के तने से टिककर बैठी ईशा को अपनी बांहों में भर लिया था नील ने. पता नहीं हवा की शरारत थी या ईशा के तन की सिहरन से बुरांश का भी सीना धड़क गया था. अचानक ही एक सुर्ख फूल उन पर गिरा दिया था बुरांश ने. “इसे क्या कहूं, ईश्वर का आशीर्वाद या बुरांश भी तुम्हें सीने से लगाना चाहता है.” नील ने फूल हाथ में लेकर मुस्कुराते हुए ईशा से पूछा. ईशा कुछ न कह पाई थी. उसने पलकों को मूंद लिया था. नील ने हंसते हुए एक बार फिर उसे सीने से लगा लिया. “लंच टाइम हो गया है. चलो वॉर्ड में बाद में जाना, पहले टिफिन उठाकर कैंटीन में जाकर खाना खा लो. फिर एक कप चाय पीने के बाद ही इधर आना.” चुपके से ईशा ने कान में कहा, तो नील रोहन के साथ जल्दी से लंच बॉक्स लेकर कैंटीन की ओर बढ़ गया. ईशा की बात कैसे न सुनता वह. चौबीसों घंटे तो उसकी नज़र नील पर रहती है. नील ख़ुद भी तो हर लम्हा ईशा में ही खोया रहता है. हो भी क्यों न, जहां डॉक्टर ईशा एक ईमानदार, संवेदनशील और कर्मठ डॉक्टर थी, वहीं नील से बेपनाह प्यार करने वाली एक भावुक प्रेमिका भी थी. ईशा के दोनों ही रूप नील के मन को छूते थे. जब नाइट ड्यूटी नहीं रहती थी तब रातों को देर तक वह पलंग पर करवट बदलता रहता ईशा की चाहत में. तकिए को भी किसी साथी की दरकार थी. अब पलंग पर अकेले करवटें बदलना अखरने लगा था. ज़रूरत भी नहीं थी. दोनों के घरवालों को भी तो कोई ऐतराज़ नहीं था. सुनहले सपनों के सच होने के दिन थे वे... रात नील घर पहुंचा. कपड़े बदलकर उसने खाना गर्म करके खाया. ईशा का आग्रह या आदेश जो है, बिना खाना खाए नील सोने नहीं जा सकता. नील हर रोज़ उसके आदेश का पालन करता है. खाना खाकर नील कमरे में आकर पलंग पर लेट गया. आंखों को बंद किया ही था कि पलकों पर दस्तक दी यादों के डाकिये ने और उदास मन से रतजगे की एक चिट्ठी थमा दी. सब तो अच्छा चल रहा था. सगाई की तारीख़ भी तय हो गई थी. कितनी उत्साहित थी ईशा और वह ईशा के उत्साह में ख़ुश था. कि तभी कोरोना नाम की आंधी की दूसरी लहर ने उसकी ख़ुशियों को लील लिया. अस्पताल में मरीज़ों की बढ़ती भीड़ और डॉक्टरों की रात-दिन की कोशिशें उन्हें बचाने की. नील और ईशा भी तो सब भुलाकर ज़िंदगियों को बचाने की जद्दोज़ेहद में जुट गए थे. न रात देखा न दिन. सारे प्रिकॉशन रखे, प्रिवेंटिव डोसेज लेते रहे और काम करते रहे. अस्पताल में मरीज़ों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी और डॉक्टर्स उनकी मौत से लड़ते रहते. कितनों को बचा पाने का संतोष मिला और कितनों को न बचा पाने का मलाल रह गया. एक मौत का ग़म भी नहीं मना पाते थे कि दूसरी ज़िंदगी को बचाने की कोशिशों में लग जाते. नहीं बताया ईशा ने कि उसे थकान लग रही है, नहीं पता चलने दिया नील को कि उसे सांस लेने में द़िक्क़त हो रही है. पल्मोनोलॉजिस्ट डॉक्टर नीलांश का ध्यान जब तक इस बात पर गया, तब तक देर हो चुकी थी. बहुत से मरीज़ों के साथ कोरोना की दूसरी लहर ईशा को भी नील से छीन ले गई. नील बेबस सा सिसकता रह गया. “वादा करो नील तुम ज़िंदगी को मुस्कुराते हुए जियोगे. दुखी नहीं होगे. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं. मेरा काम भी अब तुम्हें ही करना है. जब भी कोई मरीज़ ठीक होगा, मेरी आत्मा को शांति मिलेगी.” यही आख़री वाक्य थे ईशा के नील के लिए. उसके बाद वह भी उन अंधेरों में गुम हो गई जहां से कोई वापस नहीं आता. तब से, पिछले पांच बरसों से वह दिनभर अपनी मेहनत और ईशा की संवेदनशीलता के साथ मरीज़ों की देखभाल करता है और हर रात, रात भर रतजगों की चिट्ठियां बांचता रहता है. नील ने करवट बदली. साइड स्टूल पर रखी तस्वीर में ईशा मुस्कुरा रही थी. घने बादलों जैसी बालों की उड़ती स्याह लटों के बीच सूरज की किरण सी उजली हंसी. “तुम गई कहां हो ईशा, तुम तो चाहत बन कर मेरे दिल में बस गई हो. आद्या कभी अपने नीलांश से अलग हो सकती है भला! वो तो उनमें ही समाहित रहती है...” नील ने मुस्कुराते हुए उसकी तस्वीर उठाई और अपने सीने पर रख ली.
