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कहानी- बाबा ऐसा वर ढूंढ़ो… (Short Story- Baba Aisa Var Dhundho…)

किरण सिंह

बाबा इतना कहकर उठने को हुए, मैंने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया. कुछ था जो मन से बाहर आना चाह रहा था, “कैसे-कैसे दामाद ढूंढ़ें हैं आपने बाबा? एक वो फूफाजी, जिनकी नज़र इस मकान पर है और वो शेखर...” बाबा चौंक गए, “शेखर क्या? बताओ रज्जो.”  

लहंगा और गहने लिए बुआ झुंझला रही थीं, “आपको ख़राब नहीं लग रहा है कि आप जिसको सजाने आई हैं, वो सजने के लिए तैयार नहीं है? रोती ही जा रही है. आजकल की लड़कियों को क्या बोलें, इतना अमीर घर मिला है, इतना अच्छा लड़का है...”

ब्यूटीशियन मुस्कुराते हुए बोली, “मैं तो बस इनको देख रही हूं, इससे ज़्यादा प्यारा चेहरा मैंने आज तक नहीं देखा.”

बुआ थोड़ा और खीजकर, लहंगा बिस्तर पर पटककर कमरे से निकल गई थीं. ब्यूटीशियन मेरे पास आकर धीरे से बोलीं, “आप इतना क्यों रो रही हैं रजनी? आज तो सगाई है, विदाई में बहुत दिन बाकी हैं. कोई और बात है क्या? लड़का आपको पसंद नहीं?”

मैंने इस बात का जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा. बस एक नज़र लहंगे पर डाली. हां, वही पीले रंग वाला है, जो मैंने पसंद किया था. शेखर ने उस दिन सबके सामने कह दिया था, “देखिए, सारे कपड़े रजनी की पसंद से ही लिए जाएंगे, पहनना उसको ही है.”

मेरी होनेवाली सास ने हंसते हुए हामी भर दी थी. सब कुछ तो ठीक था. ठीक क्या अच्छा ही था, तब भी मेरा मन इतना बुझा हुआ क्यों था? “देखिए रजनी, आप रोना बंद करिए, मेकअप नहीं हो पाएगा.” ब्यूटीशियन की आवाज़ से मैंने पूरी कोशिश की, एक भी आंसू अब बाहर न आने पाए, लेकिन भीतर जो उदासी का सागर उफान मार रहा था, वो उदासी चेहरे पर आने से भला कैसे रोक सकती थी?

पांच साल की उम्र रही होगी, जब ट्रेन एक्सीडेंट में मम्मी-पापा को खो देने के बाद घर के बड़े के नाम पर बस दादाजी यानी ’बाबा’ ही आसपास दिखे. बुआ की शादी हो चुकी थी, वो कभी-कभी ही घर आतीं. यहां बस हम दो लोग रहते, बाबा और उनकी पोती यानी मैं! बाबा तो मेरी वजह से, बेटे-बहू को खोने का दुख भी ठीक से स्वीकार नहीं कर पाए होंगे... उनको जल्दी-जल्दी सब कुछ करना पड़ा. एक छोटी बच्ची की मां भी बनना पड़ा, पिता भी. ननिहाल से नानाजी लेने आए, तो बाबा ने साफ़ मना कर दिया. उनका कहना था कि ये भी मुझे छोड़कर चली गई, तो ज़िंदा नहीं रह पाऊंगा.

मुझे अपने हाथ से खाना खिलाते हुए वो अक्सर फफक पड़ते, “ठीक से खाओ, तुम्हारे मम्मी-पापा देख रहे होंगे.” उस उम्र में तो कुछ समझ नहीं आता था, धीरे-धीरे सब समझ में आता गया. बाबा कहीं किसी तरह अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में चूक न जाएं, तभी तो ये बात याद रखते थे कि छोड़ कर गए उनके परिवारवाले अभी भी, दूसरे लोक से उन पर नज़र रखे हुए हैं. ये बात हमारे जीवन में भी उतरती चली गई.

मैं अच्छे नंबर लाकर उनको ख़ुश कर देती, तो वो रिज़ल्ट का काग़ज़ मां-पापा की तस्वीर के पास रखकर कहते, “देख रहे हो तुम लोग? तुम दोनों से ज़्यादा होशियार है.”

कभी बाबा को बुखार होता, मैं दवा देकर आती, तो अपने आप निगाहें उसी तस्वीर की ओर उठ जातीं, मैं बुदबुदाकर कहती, “देख रहे हो न आप लोग, मैं भी बाबा का ध्यान रखती हूं.”

हम दोनों एक-दूसरे के आंसू पोंछते-पोंछते, एक-दूसरे की हंसी का कारण बनते-बनते ये तो भूल ही गए थे कि हमेशा के लिए कोई भी साथ नहीं रहता... नहीं, सिर्फ़ मैं भूली थी, बाबा तो हमेशा याद दिलाते थे, “जब शादी करके मुझे छोड़कर चली जाओगी, तब मेरा कौन ध्यान रखेगा?”

मैं तुनक कर जवाब देती थी, “शादी कर ही कौन रहा है बाबा? मैं तो यहीं रहूंगी, आपके पास.” समय के पास पता नहीं कौन से पहिए हैं, बिना आवाज़ भागा चला जाता है... वो भी इस रफ़्तार से कि उसको थामने वाले के हाथ ही छिल जाएं. मैं भी अपनी घायल हथेली लिए खड़ी थी, समय को रोकने के प्रयास में... वो समय जो मुझे एक बेहद कठिन इम्तिहान के लिए तैयार कर रहा था. जब शेखर से रिश्ते की बात चली, तो बाबा ने तुरंत हां कर दी थी, मुझे समझाया भी था, “रज्जो, तुम्हारी एक ही शर्त थी न कि लड़का इसी शहर में होना चाहिए, जिससे तुम मुझसे मिलने आती रहो. इतने बड़े घर से ख़ुद रिश्ता आया है, लड़का भी तुमको पसंद है, फिर क्या समस्या है?”

मैं बड़ी मुश्किल से इतना बोल पाई थी, “बाबा, थोड़ा रुक जाते... अभी तो आपकी तबीयत...” फिर तो वो दोपहर मैंने रोते-रोते ही काटी थी. मुझे पता था, जब भी ये दिन आता, मेरी यही हालत होनी थी. सबके समझाने पर शादी की तैयारियां शुरू तो हो गई थीं, लेकिन बाबा की बिगड़ती तबियत मुझे किसी भी सुख को अनुभव करने से रोक दे रही थी. जैसे तैसे सगाई की रस्म भी हुई, इधर फोटोग्राफर अलग-अलग पोज़ बताकर अपना हुनर दिखा रहा था, उधर मेरे चेहरे पर फैली उदासी देखकर शेखर भी असहज हो गए थे.

अगली सुबह आंखें खुलीं, तो देखा शेखर का मैसेज था, कहीं मिलने के लिए बुलाया था. शेखर का मूड उखड़ा हुआ था, ये तो मुझे मैसेज पढ़कर ही समझ में आ गया था, लेकिन बात यहां तक बिगड़ चुकी थी, ये वहां जाकर समझ में आया. “रजनी, तुम श्योर हो न कि इस शादी से तुम्हें कोई प्रॉब्लम नहीं है.” जूस पीते-पीते मैंने बस सिर हिला दिया.

“अब इसे हां समझूं या न समझूं?” शेखर झल्ला कर बात कर रहे थे. इस तरह तो मैं ठीक से बात कर ही नहीं सकती थी.

मैने जूस ख़त्म करके पूछा, “हो गई बात? अब मैं जाऊं?” शेखर थोड़ी देर मुझे देखते रहे, फिर उनको अपनी ग़लती का एहसास हुआ, “सॉरी रजनी... एक्चुअली सब कुछ इतनी जल्दी-जल्दी और एक साथ हो रहा है कि, वैसे ये तुम्हारे फूफाजी के साथ क्या इश्यू है?” फूफाजी का नाम सुनते ही मैं चौंक गई.

“उन्होंने क्या कर दिया?” शेखर ने बताना शुरू किया, “कल सगाई के बाद उन्होंने कहा कि शादी के बाद तुम्हारे बाबा वाला घर उनके नाम हो जाना चाहिए, क्योंकि वो ही उनका ध्यान रखेंगे. मुझसे पूछ रहे थे कि मुझे हिस्सा चाहिए हो तो...”

मुझे घिन आने लगी थी.. इतने घटिया हैं फूफाजी? उनकी गिरी हुई सोच का अंदाज़ा तो बहुत पहले से ही था, लेकिन इस हद तक?

“शेखर, पहली बात तो फूफाजी ने जब आज तक हमारा ध्यान नहीं रखा, तो अब क्या रखेंगे? दूसरी बात, बाबा हमेशा कहते हैं कि उस मकान में वो अनाथालय या ग़रीब बच्चों के लिए कुछ... अच्छा छोड़िए...”

इससे ज़्यादा मैं कुछ कह नहीं सकी. कैसे हैं ये रिश्ते! बाबा के जीते जी उनकी संपत्ति के बंटवारे की बात चल रही है. कैसा है ये लड़का, जिसको फूफाजी के साथ हिस्से वाली बातें करना अच्छा लग रहा है! मैंने वहां से उठने से पहले अपनी बात रखना ज़रूरी समझा, “आपके दूसरे सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है. आपकी फूफाजी से क्या बात हुई, आप समझिए. हां, पहले सवाल का जवाब है, शादी से मुझे कोई द़िक्क़त नहीं है, बस मेरे जाने के बाद बाबा का क्या होगा, ये सवाल मुझे ख़ुश होने नहीं देता.”

शेखर के चेहरे पर एक साथ कई भाव आए, उनमें से एक ठहरा रहा. मुझे बहुत देर तक गौर से देखते रहे, फिर मेरी हथेली थामकर बोले, “कल तुम बहुत प्यारी लग रही थी, बस स्माइल की कमी थी. अगले फंक्शन में मुस्कुराती रहना, प्लीज़.”

घर आकर बहुत देर तक आंगन में बैठी रही. कभी छत की ओर निहारती, कभी कमरों की चौखट पर नज़र टिकी रह जाती. लड़की मायका छोड़ती है, तो सब कुछ उससे छूटता है. आंखें बार-बार भर रही थीं. आज मन में दुख भी था, रोष भी... लग रहा था बाबा के पास जाकर झगड़ा करूं, चीखूं-चिल्लाऊं, क्यों करवा रहे हैं आप मेरी शादी? “अरे रज्जो, यहां क्यों बैठी है? कब आई? शेखर से मिलने गई थी न?” बाबा एक साथ कई सवाल पूछते हुए मेरे बगल में आकर बैठ गए थे. मुझसे कुछ बोलते न बना, तो उनके कंधे पर सिर रखकर आंखें मूंद लीं.

“कितनी सुंदर लग रही है ये अंगूठी तुम्हारे हाथ में.” बाबा ने सगाई वाली अंगूठी देखते हुए मेरे हाथ सहलाए. मैंने उनके हाथ देखे. मुझे बड़ा करते-करते ही ये हाथ इतने सिकुड़ गए हैं! त्वचा ढीली होकर लटकने लगी है. कभी-कभी हाथ कांपने भी लगते हैं. कितनी बार हुआ कि ग्लास या कटोरी बाबा के हाथों से छूटकर गिर गई.

“क्या कहा शेखर ने? सब ठीक है न?” बाबा मुझे इतना चुप देखकर घबराने लगे थे.

“हां, सब ठीक है बाबा.” “अच्छा जाओ, कपड़े बदलकर आराम करो. आज शाम को भी तो कोई रस्म है, लोग आने लगेंगे.” बाबा इतना कहकर उठने को हुए, मैंने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया. कुछ था जो मन से बाहर आना चाह रहा था, “कैसे-कैसे दामाद ढूंढ़ें हैं आपने बाबा? एक वो फूफाजी, जिनकी नज़र इस मकान पर है और वो शेखर...”

बाबा चौंक गए, “शेखर क्या? बताओ रज्जो.”

“मैंने शादी के लिए एक ही बात कही थी न बाबा, मेरे लिए ऐसा लड़का ढूंढ़िएगा, जो आपसे भी लगाव महसूस करे. ये ढूंढ़ा आपने? इतना रुपया-पैसा है और फूफाजी के साथ मिलकर हिस्से की बात कर रहा है?” बाबा चुप थे. उनकी आंखें कहीं दूर आसमान में स्थिर थीं.

“बाबा, फूफाजी ने मकान की बात उठाई, तो शेखर को मना कर देना चाहिए था. उनको डपट देना चाहिए था न, ख़ुद के मन में भी लालच होगा.” बाबा ने कुछ कहा नहीं, कुछ भी नहीं. घर के नौकरों को बुलाकर कुछ काम समझाए और धीरे-धीरे अपने कमरे की ओर बढ़ गए. ये उनका पुराना स्टाइल था, जब बात को टालना हो, तब दूसरी बातों में ख़ुद भी उलझ जाओ, दूसरों को भी उलझा दो. मैं भी अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर आंखें मूंदकर लेटी रही. घर में आए मेहमानों के बच्चे दौड़-दौड़कर खेल रहे थे. उनकी आवाज़ मुझे बचपन में खींचकर ले जा रही थी. इसी बरामदे में, इन्हीं सीढ़ियों पर दौड़ते-दौड़ते मैं बड़ी हुई. बुआ अक्सर बाबा से कहती थीं, “इतना चंचल होना ठीक नहीं होता लड़कियों का.” बाबा हंसते हुए एक ही बात कहते थे, “इसकी दौड़-भाग से ही तो मेरे दिन, महीने, साल भागकर आगे जा रहे हैं, नहीं तो सब रुक ही जाता.”

दिल में तकलीफ़ होने लगी थी. मेरे जाने के बाद, सब रुक जाएगा क्या? बाबा कहते हैं सब संभाल लेंगे, एक नर्स रखेंगे जो पूरा ध्यान रखेगी. नर्स जान पाएगी कि क्या जब बाबा रसोई में जाकर पानी पीने के लिए ग्लास लेने जाते हैं, तो उनकी निगाहें बिस्किट का डिब्बा ढूंढ़ रही होती हैं. नर्स को कैसे पता चलेगा कि खाना पूरा होने के बाद भी एक कटोरी में मलाई के साथ चीनी दे दो, तो बाबा आधी रोटी और खा लेते हैं! नर्स को ये भी नहीं पता होगा कि सर्दियों में धूप सेंकते बाबा वहीं कुर्सी पर बैठे-बैठे सो जाते हैं, तब उनको जगाया नहीं जाता है... आंखों से दो आंसू टपक कर मेरी तकिया नम कर गए.. मन किया जाकर बाबा से पूछूं, “मुझे क्यों अकेले पाला, क्यों नहीं किसी नर्स के हवाले कर दिया?”

“चलो रजनी, हो गया आराम... आज अनाज छूने वाली रस्म है. चलो चलकर हाथ लगा दो. तुम रो रही हो क्या? आओ, जल्दी बाहर आओ.” बुआ ने आकर पूछा भी तो ऐसे कि जवाब सुनना ही न चाह रही हों! किसी तरह उठकर, हाथ-मुंह धोकर आंगन में पहुंची, तो वहां खानदान भर की औरतें रस्म निभाने के साथ-साथ हंसी ठिठोली भी कर रही थीं. मन थोड़ा और अजीब हो गया. जो-जो बुआ बताती गईं, वो सब मैं मशीन की तरह करती चली गई. फिर आया एक आदेश, “सुन लो रज्जो, अब तुमको घर से बाहर नहीं निकलना है, जब तक शादी न हो जाए. बस शादी वाले दिन पार्लर जाओगी. उसके अलावा कहीं नहीं, याद रखना.” बुआ के इतना कहते ही फिर वही खी-खी की आवाज़ें... मैं बुआ से पूछकर अपने कमरे में चली आई. कपड़े बदलने के लिए जाने को ही थी कि देखा फोन में शेखर की कई मिस्ड कॉल्स पड़ी हुई थीं. “हेलो.. सॉरी! मैं बाहर आंगन में थी, फोन कमरे में था...”

“सॉरी की कोई बात नहीं रजनी, ये बताओ कि कल फ्री हो? थोड़ी देर के लिए मिलते हैं, कुछ बात करनी है.”

“कल.. हां, ठीक है.” कहते ही मुझे बुआ की बात याद आ गई, “नहीं, कल नहीं मिल सकती... मतलब अब तब तक घर से निकलना नहीं है...” मैं बस इतना बोलकर चुप हो गई. शेखर शरारत के मूड में थे, “कब तक नहीं निकलना है? जब तक मैं लेने न आ जाऊं?” कितनी ख़ुशी, कितनी चंचलता थी उस स्वर में... इसी ख़ुशी से मैं क्यों नहीं जवाब दे पा रही थी? मुझे तो शर्मा कर गुलाबी हो जाना चाहिए था न, पर मैं तो अजीब हालत में थी.

“कुछ अर्जेंट बात थी क्या, मतलब आप मिलने के लिए कह रहे थे...” शेखर कुछ कहनेवाले थे कि तभी मुझे ज़ोर-ज़ोेर से आवाज़ देकर कोई बाहर बुलाने लगा, “मैं थोड़ी देर में कॉल करती हूं, रिश्तेदार आने लगे हैं, मुझे बुला रहे हैं.” मैं बस इतना ही बोल पाई. शेखर ने बिना कुछ जवाब दिए गुड नाइट बोलकर फोन रख दिया था. थोड़ी देर में ही घर मेहमानों से भरने लगा था, दो दिनों बाद शादी थी. एक के बाद एक लोग आते गए. इतने शोरगुल और बातों में मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि मुझे शेखर को फोन करना था. वो तो जब रात को दो बजे सोने आई, तो देखा शेखर का मैसेज था- मेरी दुल्हन बिज़ी है, फोन नहीं कर सकती, मिलने नहीं आ सकती... ऐसे में दूल्हे को क्या करना चाहिए? मन किया लिख दूं, दूल्हे को आ जाना चाहिए. पता नहीं, कौन सी बेड़ियां आकर मुझे रोक गईं और वो सवाल अनुत्तरित ही रह गया. लेकिन मुझे क्या पता था कि मेरे बिना लिखे, बिना कहे वो बात शेखर तक पहुंच चुकी थी. “दीदी उठो, जल्दी... जीजाजी आए हैं, उनके पापा भी.” सुबह आंखें खुलने से पहले ही कानों में ये आवाज़ पड़ी. मेरे मामा की बेटियां मुझे जगाते हुए चिल्ला रही थीं. जीजाजी? यानी शेखर आए हैं? इतनी सुबह, वो भी अपने पापा के साथ? पूरे शरीर में झुरझुरी दौड़ गई... ऐसा क्या हो गया? अपने आपको जी भरकर कोसा. कल रात फोन पर बात कर लेती, तो क्या बिगड़ जाता, पता नहीं क्या बात रही होगी, जो सुबह-सुबह ये सब हो रहा है.

“इधर आओ तुम दोनों. क्या बात कर रहे हैं शेखर. मतलब तुम्हारे जीजाजी और उनके पापा क्या कह रहे हैं?” मैंने उन दोनों से पूछा, वो लोग याद करके बोलीं, “पता नहीं, हमने तो बस इतना सुना था कि हमारी बात माननी पड़ेगी.” मन के भीतर कुछ रिसता हुआ मैंने महसूस किया. क्या मनवाना चाह रहे हैं ये लोग बाबा से? एक पल के लिए मन कमज़ोर हुआ, फिर दूसरे ही पल उसी ख़राब मन को मज़बूत करते हुए मैंने मुंह धोया, अपना हुलिया ठीक किया और सीधे बैठक की ओर बढ़ती चली गई. बैठक में घुसने से पहले एक पल के लिए ठिठकी, बाबा की रुंधी हुई आवाज़ आ रही थी, “नहीं बेटा, ये नहीं हो पाएगा...” मन में कड़वाहट का एक पहाड़ इकट्ठा होने लगा था. ज़रूर मकान को लेकर ही बात उठी होगी. बैठक का पर्दा हटाकर मैं अंदर गई. शेखर के पापा के पैर छूने के लिए झुकी, तो उन्होंने प्यार से सिर पर हाथ फेर दिया. एक उचटती हुई निगाह शेखर पर डाली. उनके चेहरे पर वही शरारती मुस्कान थी. मैं चुपचाप जाकर बाबा के बगल में बैठ गई. बुआ-फूफा भी वहां मौजूद थे.

“क्या हुआ बाबा, आप.. आप ऐसे क्यों?..” बाबा की आंखों में आंसू साफ़-साफ़ दिख रहे थे. बाबा ने शेखर की ओर इशारा कर दिया, “इन लोगों की तरफ़ से ऐसी मांग आ गई है...” ऐसा बोलते हुए बाबा ने शेखर की ओर बड़े प्यार से देखा. मेरे लिए ये सब एक अजीब पहेली था. बुआ-फूफा के चेहरे पर उलझन थी. शेखर और उनके पापा मुस्कुरा रहे थे और बाबा, कहने को तो उनकी आंखें भरी हुई थीं, लेकिन उनमें तकलीफ़ नहीं थी. शेखर ने बोलना शुरू किया, “मैंने आज वो बात कह दी है, जो मैं बहुत दिनों से बोलना चाह रहा था, मैं चाहता हूं कि तुम्हारे बाबा...” इतना बोलकर शेखर एक पल के लिए रुके, फिर बाबा के पास आकर बैठ गए.

“वैसे अब ये मेरे भी बाबा हैं... मैं चाहता हूं कि अब हमारे बाबा, यहां अकेले रहने की बजाय हम सबके साथ रहें. इस मकान के लिए तो उन्होंने पहले ही बहुत कुछ सोच रखा है, वो तो होता रहेगा. अब फैसला इनके ऊपर है, अपनी लाड़ली पोती के दूल्हे की बात मानेंगे या नाराज़ कर देंगे?” मेरी निगाह शेखर के चेहरे पर अटककर रह गई. ये सच था? जो कुछ मैंने सुना, वो सही में कहा भी गया था या नहीं? शेखर के पापा और शेखर अलग-अलग तर्क देकर बाबा को राज़ी करने में लगे हुए थे, अपनी ज़िद पर अड़े हुए थे. बाबा ने अनिश्‍चय की स्थिति में मेरी ओर देखा, “रज्जो, ऐसा नहीं होता है..इन लोगों को कैसे समझाऊं?” मैंने कमरे में टंगी हुई तस्वीर को देखा. चंदन की माला से सजी मां-पापा की तस्वीर..

“आपको अकेले छोड़ जाऊंगी, तो इन लोगों को कैसे समझाऊंगी?” मेरे इस सवाल का बाबा के पास कोई जवाब नहीं था, वो चुप थे. शेखर अपनी जगह से उठकर उसी तस्वीर के पास हाथ जोड़कर आकर खड़े हो गए थे. सब कुछ कितना अच्छा लगने लगा था. शादी के सारे रंग अचानक एक इंद्रधनुष में जुड़कर मेरे मन के आसमान पर सज गए थे. मैं भी शेखर के पास जाकर खड़ी हो गई थी.

मैंने मन ही मन, मां-पापा से कह भी दिया था, “देख रहे हो न आप लोग, बाबा ने मेरे लिए कितना अच्छा वर ढूंढ़ा है!”

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